साल 2017 तक आते आते हिन्दी दिवस के बहाने हिन्दी पर ज्यादा बात करने का माहौल बचा नहीं है. सरकारी प्रतिष्ठानों में हिन्दी पखवाड़े के बैनर लगने के अलावा और कुछ होता हो यह भी नहीं दिखाई देता. हिन्दी बढ़ाओ, हिन्दी बचाओ के नेता भी आजकल कम पाए जा रहे हैं. दो-तीन दशक पहले कभी हिन्दी को लेकर चिंता अभियान चलाने वाला कोई आ जाता था लेकिन धरना-प्रदर्शन करके हार थककर बैठ जाता था. आजकल हिन्दी नेता भी नहीं दिखाई देते. खैर आज का एक दिन हिन्दी के नाम पर मनाने का जो चलन चला आ रहा है सो हिन्दी पर कोई बात तो होनी ही चाहिए.


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हिन्दी माध्यम के स्कूलों की हालत
आंकड़े देकर साबित करने की ज़रूरत नहीं है कि हिन्दी माध्यम से शिक्षा देने वाले स्कूल कॉलेजों की क्या हालत है. बल्कि बड़े से बड़े हिन्दी के तरफदार अपनी शिक्षण संस्थाओं को अंग्रेजी माध्यम में परिवर्तित करने की जुगत में हैं. ऐसा क्यों है? इसका जवाब पाने के लिए ज्य़ादा मशक्कत की जरूरत नहीं. कोई भी बता सकता है कि रोज़गार के बाजार में हिन्दी भाषी का भाव कम हो गया है. इस आधार पर कह सकते हैं कि भाषा भी बाजार और कामधंधे में काम आने के लिहाज़ से ही अपनी जगह बना पाती है.


दुर्लभ होने का लाभ उठा सकती है हिन्दी
अगर यह मान लें कि हिन्दी खासतौर पर अच्छी हिन्दी या प्रभावी हिन्दी दुर्लभ होती जा रही है तो अपनी दुर्लभता के कारण उसका भाव बढ़ना चाहिए. भले ही नगण्य हो लेकिन वाकई पत्रकार जगत में हिन्दी की पूछ अभी बाकी है. मंचीय बाजार में कुछ हिन्दी कवि अभी भी उर्दू शायरों को टक्कर दे रहे हैं. वो तो हिन्दी के प्रति अस्मिता का भाव जताने के लिए हिन्दी कवि सम्मेलन करवाने का रिवाज़ चला आ रहा है सो कवि सम्मेलनों की परंपरा का संरक्षण हो रहा है लेकिन इन सम्मेलनों का आकर्षण बढ़ाने के लिए हमने गंगा-जमुनी संस्कृति का भाव बना लिया है और उर्दू शायरी से संतुलन बैठा लिया है. वहां भी निरपेक्ष हिन्दी या स्वतंत्र हिन्दी पर संकट ही दिख रहा है.


अपनी है सो अस्मिता का सवाल है ही...
हर मामले में ‘मैं-पन’ कहां छूटता है. सो भाषा में भी कैसे छूटेगा. इसीलिए गाहे-बगाहे हमें अपनी भाषा की चिंता होती रहती है, भले ही हम उसके लिए कर कुछ न पा रहे हों. विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रभुत्वकाल में विज्ञान का अध्ययन अध्यापन हिन्दी में करने की व्यवस्था हम आजादी के बाद से ही सोचते चले आ रहे हैं. लेकिन मुश्किल ये है कि आधुनिक विज्ञान का अधिकांश पाठ उसके विदेशी सृजकों का होने के कारण वह उनकी भाषा में ही है. उसका हिन्दी अनुवाद करने बैठते हैं तो इस सवाल से सामना होता है कि संज्ञाओं के नाम का अनुवाद कैसे करें मसलन ऑक्सीज़न, नाइट्रोजन वगैरह वगैरह. आखिर में यहीतरीका सूझता है कि उसे देवनागरी लिपि में लिखकर पढ़ पढ़ा लें. और विज्ञान जगत में उसी को हिन्दीकह लें. यूनानी, इतालवी, ब्रितानी वैज्ञानिकों के नाम हम कैसे बदल सकते हैं. फिर भी अरस्तू जैसे नामबदलने का हमने सफल प्रयास किया लेकिन वहां एरिस्टॉटल बोलने की असुविधा के कारण मुख सुख सिद्धांत लगाकर किया होगा. यानी हिन्दी के सामने एक समस्या यह भी है कि अपने प्राचीन ज्ञान विज्ञान की प्रासंगिकता ही जब कम समझी जाने लगी तो अपनी भाषा या भाषाओं की भी प्रासंगिकता कम होने लगी.


मज़बूरी में बाज़ार ही उठाएगा हिन्दी को
कहते हैं कि वैश्वीकरण के दौर में सारे देश एक-दूसरे को बाज़ार बनाने में लगे हैं. अपने जीवन निर्वाह के लिए आत्मनिर्भरता से किसी का गुज़ारा हो नहीं पा रहा है. स्पष्ट स्फटिक तथ्य है कि अपना देश अपनी आबादी के कारण दुनिया में दूसरे नंबर पर है. अगले दशक तक पहले नंबर पर आने की आशा या आशंका लिए अपने देश को हर कोई एक बड़े बाजार की तरह देखता है. हम भी यह दिखाकर खुश दिखाई दे रहे हैं. ऐसे में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने माल की बिक्री या विपणन के लिए प्रचार या विज्ञापन तंत्र की भी जरूरत पड़ती है. भारतीय बाजा़र के सूत्र नित्य प्रतिदिन बता रहे हैं कि देश के गांव गांव तक आकर्षक और संप्रेषणीय विज्ञापन के लिए उन्हें रचनाशील हिन्दीकार चाहिए. उद्योग व्यापार जगत में विज्ञापन वाला यह क्षेत्र हिन्दी को बढ़ाने या बचाने के लिए एक उम्मीद बन कर हमारे सामने है.


सबसे ज्यादा सोशल मीडिया बचाए है हिन्दी को
सोशल मीडिया में हिन्दी में टिप्पणी लिखने वाले वाकई धूम मचाए हैं. किसी जगह अगर हिन्दी से कोईभी भाषा टक्कर नहीं ले पा रही है तो वह जगह सोशल मीडिया है. इस समय सोशल मीडिया हिन्दी भाषा की हर विधा में घटनाप्रधान रचनाओं का स्वयंभू प्रकाशक है. हिन्दी की अपूर्व सेवा के लिए उसे हिन्दी दिवस पर पुरस्कृत किया जाना चाहिए.  


(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)