हर साल आज का दिन हमें हिंदी पत्रकारिता पर बात करने के लिए मिलता है. दशकों से इस दिन आमतौर पर हिंदी पत्रकारिता की दिशा और दशा पर चिंता जताते हुए आयोजन होते हुए दिखते हैं. कभी कभी हिंदी पत्रकारिता के गुणगान के आयोजन भी हो जाते हैं. इस बार भी कई जगह हो रहे होंगे. लेकिन उन आयोजनों मे हुए विचार विमर्शों के बारे में खुद हिंदी अखबारों और हिंदी टीवी चैनलों में कुछ भी पढ़ने-सुनने को नहीं मिलता. खैर ये कोई बड़ी चिंता की बात नहीं. क्योंकि हिंदी के अलावा और दूसरी भाषाओं की पत्रकारिता पर ही कौन सा विमर्श हो रहा है. खासतौर पर अंग्रेजी पत्रकारिता तो इस समय अपनी अस्मिता की चिंता को छोड़ धड़ल्ले से हिंदी के शब्द, हिंदी के वक्ताओं और हिंदी भाषी जनता को हूबहू कहते दिखाना चाह रही है. यानी पत्रकारिता चाहे हिंदी में हो या किसी दूसरी भाषा में, वह अपनी भाषाई अस्मिता को छोड़ती हुई सिर्फ पत्रकारिता ही दिखाई दे रही है.


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हिंदी पत्रकारिता का नया रूप
चाहे हिंदी अखबार देखें या हिंदी टीवी चैनल, एक बात साफ दिखती है कि कहीं भी संस्कृतनिष्ठ हिंदी का आग्रह नहीं बचा. ठीक भी है. सब पत्रकारिता ही कर रहे हैं. हिंदी के विकास या संवर्धन या संरक्षण करने का उन्होंने कभी वादा किया भी नहीं था. आज के दिन एक बात का जिक्र खासतौर पर करने का मौका है. वह ये कि पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में भले न पढ़ाया जा रहा हो लेकिन प्रंबंधन प्रौद्योगिकी के पाठयक्रम में जो मास कम्युनिकेशन पढ़ाया जा रहा है उसमें यू व्यू तकनीक पर जोर दिया जाता है. यू व्यू तकनीक में बताया जाता है कि जो शब्द ग्राहक को समझ में आएं उन्हीं का इस्तेमाल करें. इसीलिए विज्ञापन की भाषा अनिवार्य रूप से उपभोक्ता की भाषा ही होती है. यह बात हिंदी पत्रकारिता पर लागू क्यों न हो. शायद इसीलिए आज संस्कृत निष्ठ हिंदी का आग्रह हिंदी पत्रकारिता में नहीं दिखाई देता. वैसे भी पत्रकारिता का मकसद सूचना देना ओर मनोरंजन तक सीमित है. वह मकसद अंग्रेजी, उर्दू और देशज जिन भी शब्दों के इस्तेमाल से पूरा होता हो हिंदी पत्रकारिता उन शब्दों का इस्तेमाल बेहिचक करने लगी.


भाषाई आग्रह वाले पत्रकार सिर्फ साहित्यकार बनते चले गए
जो हिंदी की अस्मिता यानी हिंदी की रक्षा में लगे थे वे पत्रकार की बजाए साहित्यकार की श्रेणी में पहुंचते रहे. बेशक साहित्यकार पूज्यनीय होते हैं, लेकिन उन्हें अपनी टक्कर के ही पाठकों और श्रोत्राओं की जरूरत पड़ती है. कोई शोध निष्कर्ष तो उपलब्ध नहीं है लेकिन सामान्य अनुभव है कि इस समय देश के पाठक और श्रोताओं में विभिन्न भाषाओं के शब्दों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, खासतौर पर हिंदी की बोलचाल में अंग्रेजी और उर्दू के बहुप्रचलित शब्दों के इस्तेमाल से किसी को कोई परहेज़ नहीं बचा. यही मिश्रभाषा आज हिंदी पत्रकारिता की भाषा है जिसे अंग्रेजी वाले पहले से ही पिजिन ;च्पकहपदद्ध के नाम से समझते और इस्तेमाल करते आए हैं.


भाषा की रक्षा पत्रकारिता का काम है भी या नही?
भाषा की रक्षा और विकास किसका काम है? स्कूल कालेजों और विश्वविद्यालयों में हिंदी के अध्ययन और अध्यापन करने वालों पर यह जिम्मेदारी डाली जानी चाहिए. वहां पूछा जाना चाहिए कि हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिए क्या हो रहा है. खांमखां पत्रकारों को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है. जबकि हिंदी पत्रकार अपने मकसद का ऐलान करके चलता है कि उसका काम अपने हिंदी भाषी ग्राहकों तक जानने लायक जानकारी देना भर है. और उस जानकारी को अपने पाठक या श्रोत्रा की समझ में आने लायक भाषा का वह इस्तेमाल करता है. यानी जानकारी लेनेवाले की बोलचाल में अगर दूसरी भाषा के शब्द आते जा रहे हैं तो हिंदी पत्रकार की जरूरत यही है कि वह अपने पाठकों की सुविधानुसार उन अहिंदी शब्दों का इस्तेमाल भी करता चले. रही बात हिंदी के संवर्धन या विकास की तो यह काम हिंदी के विद्वानों और अध्यापकों का ही है.


हिंदी पत्रकारिता में जोर हिंदी पर दें या पत्रकारिता पर
हिंदी पत्रकारिता दिवस पर औपचारिक विमर्श का अगर कोई विषय या थीम तय करना हो तो सबसे पहले इसी सवाल को उठा लेना चाहिए कि जोर हिंदी पर दें या पत्रकारिता पर. उत्तर निकलकर आ सकता है कि संकट में पत्रकारिता है. और उस पत्रकारिता पर संकट ज्यादा है जो हिंदी भाषा में की जा रही है. यह संकट कोई छोटा मोटा संकट नहीं है. तथ्यों से समृद्ध किसी खबर के लिए आज भी हमें उन स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ रहा है जो अपनी सूचनाएं अंग्रेजी में देते हैं. क्या इस बात से कोई इनकार कर सकता है कि आज देश दुनिया में जो भी शोधकार्य हो रहे हैं उनकी रिपोर्ट अंग्रेजी में ही उपलब्ध हो पाती है. जाहिर है कि खबर की पहली शर्त तुरत फुरत सूचना देने के कारण हिंदी पत्रकारिता इस काम में पिछड़ जाती है. वह अनुुवाद करने में वक्त लगा देती है. इस तरह यह मुश्किल हिंदी से ज्यादा उस पत्रकारिता की है जो हिंदी विशेषण के साथ की जा रही है.


तथ्य आधारित हिंदी पत्रकारिता की स्थिति
चाहे खबर हो या विचार आलेख उनमें हमेशा तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकालकर देने की जरूरत होती है. खासतौर पर खोजी पत्रकारिता में तथ्य और आंकड़ों के विश्लेषण जरूरी माने जाते हैं. मोटे तौर पर यह रिसर्च हिंदी पत्रकारिता में आज तक दुर्लभ है. यही वह चीज़ है जो पत्रकारिता के उत्पाद की विश्वसनीयता सुनिश्चित करती है. इस मामले में भी हिंदी पत्रकारिता के किसी शोधपरक अध्ययन का हवाला हमें नहीं मिलता. वैसे भी यह गुणवत्ता का युग है. यह जरूरत पूरी करने से आगे जाकर मांग और चाह पूरी करने का समय है. हर मामले में विश्वस्तरीय उत्पाद की मांग बढ़ चली है. हो सकता है हिंदी पत्रकारिता में कुछ लोग गुणवत्तापूर्ण शोधकार्य कर रहे हों लेकिन यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि हमें मीडिया में उनके शोध की सूचना नहीं दिखाई दे रही है. पता तो हमें यह भी नहीं है कि विश्वस्तरीय बनने की चाह रखने वाले कितने विश्वविद्यालयों में कितने शोधकार्यों की रिपोर्ट हिंदी भाषा में लिखकर जमा की जा रही है. ममला यह बन रहा है कि हिंदी पत्रकारिता अब अपने उपर एक भरापूरा शोधकार्य शुरू करने की मांग कर रही है.