नई दिल्ली: राहुल गांधी की अमेरिका यात्रा के बाद से ही मीडिया के कुछ हिस्सों में उन्हें एक नए अवतार के रूप में पेश किया जा रहा था, लेकिन गुजरात चुनाव परिणाम ने उसकी हकीकत बता दी. कांग्रेस को एक बार फिर वहां पराजय का सामना करना पड़ा है. वह संतोष कर सकती है कि पिछले 22 वर्षों में यहां उसका सबसे अच्छा प्रदर्शन है. वहीं उसको कष्ट हो सकता है कि उसने एक मौका गंवा दिया, लेकिन उसे शायद इसका अहसास नहीं होगा कि यह तो होना ही था. गुजरात चुनाव परिणाम कतई अप्रत्याशित नहीं था.


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गुजरात चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस ने अपनी रणनीति जरूर बदली, लेकिन वह कारगर नहीं हो सकी. 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी पराजय से सबक लेकर कांग्रेस ने अपनी अल्पसंख्यक परस्त छवि दूर करने के लिए हिन्दू कार्ड खेला, ताकि नाराज हिन्दुत्ववादियों को अपनी ओर आकृष्ट कर सके. राहुल गांधी मंदिर-मंदिर घूमते रहे, लेकिन उनकी हिन्दुत्व की यह राजनीति उल्टी पड़ गई. कांग्रेस के स्टार प्रचारक राहुल गांधी के धर्म के संदर्भ में ही सवाल उठ गया. जब यह बात उठी, तो असली और नकली हिन्दुत्व तक पहुंच गई. यह एक ऐसा सवाल था, जिसे हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा ने लपक लिया. कांग्रेस सफाई की मुद्रा में आ गई, फिर भी वह हिन्दुओं को पूरी तरह आश्वस्त नहीं कर सकी. यह एक ऐसा सवाल है, जो आने वाले समय में भी कांग्रेस को परेशान करेगा. इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या के विवादित ढांचे पर चल रही सुनवाई के दौरान कपिल सिब्बल ने जो रुख अपनाया, उससे कांग्रेस के हिन्दुत्व प्रेम पर सवाल और गहरा हो गया. कांग्रेस के लिए संतोषजनक जवाब देते नहीं बना.



ऐसा लगता है कि गुजरात चुनाव में कांग्रेस की हिन्दुत्व राजनीति एक रणनीति से प्रेरित थी. एक तरफ उसने भाजपा के हिन्दुत्व की राजनीति की काट के लिए जातिगत गोलबंदी का सहारा लिया, तो दूसरी ओर हिन्दुओं को धर्म के आधार पर भाजपा के पक्ष में गोलबंद होने से रोकने की कोशिश की. यही नहीं, उसने इसे हिन्दू बनाम मुसलमान बनाने से रोकने के लिए मुसलमानों से दूरी दिखाई, ताकि हिन्दुओं में इसके खिलाफ प्रतिक्रिया न हो. यह रणनीति काफी हद तक कारगर नहीं हो सकी, उल्टे इस चुनाव से एक बार फिर कांग्रेस का कथित धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा उतर गया.


दरअसल, अतीत के ऐसे अनेक मुद्दे हैं, जो आने वाले समय में कांग्रेस के लिए समस्या का कारण बनेंगे. इसके बावजूद ऐसा नहीं लगता कि कांग्रेस का दृष्टिकोण बिल्कुल साफ है. अपनी ताजपोशी के दौरान राहुल गांधी ने जिस प्रकार का भाषण दिया, वह उसके नीतिगत भ्रम को दिखाता है. अगर आजाद भारत में कांग्रेस के इतिहास पर ध्यान दें, तो यह आकस्मिक नहीं है. जवाहरलाल नेहरू ने राजकाज से धर्म को अलग रखने की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को स्वीकार किया था, लेकिन उनके ही काल में कांग्रेस का झुकाव अल्पसंख्यकों की तरफ बढ़ता गया. बाद में अपने शासन के उत्तरार्द्ध में इंदिरा गांधी ने इसे संतुलित करने की कोशिश की, जो कमोबेश नरसिंह राव के शासन काल तक चला. लेकिन सोनिया-मनमोहन राज में उसका अल्पसंख्यकों की ओर झुकने लगा था, जिसे खुद कांग्रेसी नेता एके एंटनी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद स्वीकार किया था.


राहुल गांधी की परीक्षा अभी बाकी है, लेकिन अगर कांग्रेस को हिन्दुत्व की फसल काटनी है, तो अभी उसे इंतजार करना पड़ेगा. हिन्दू समाज में जिस प्रकार से जागरुकता बढ़ रही है, आने वाले समय में किसी भी पार्टी के लिए उसकी भावना की अनदेखी करना राजनीतिक दृष्टि से घातक हो सकता है.


 


(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)