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यदि यथार्थ का नकार किसी राजनीति का आधार होगा, तो वह टिकाऊ नहीं हो सकता. फिलहाल हुए पांच राज्यों के चुनाव-परिणामों ने हिन्दुस्तान की राजनीति को इस दौर में पहुंचा दिया है. लेकिन अभी तक ‘शब्दों की सौदेबाजी‘ करके राजनीति को जीने वाले हमारे राजनीतिज्ञों को अभी भी या तो यह सत्य नज़र नहीं आ रहा है, और यदि आ रहा है, तो वे इसे अपने गले नहीं उतार पा रहे हैं. इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, मुसलमानों के लिए अब तक की गई राजनीति में आया हुआ यू टर्न. और इस यू टर्न को दिखाने वाला सबसे चमकदार और विश्वसनीय आइना है- उत्तर प्रदेश जहां मुस्लिमों की सबसे बड़ी आबादी रहती है।


बसपा, सपा और कांग्रेस चाहे जो कुछ भी विश्लेषण करते रहें, यह तो निर्विवाद सत्य है कि मुस्लिम वोटों के अभाव में कोई भी पार्टी 403 में से लगभग सवा तीन सौ सीटें पाने का चमत्कार नहीं कर सकती. यहां गौर करने लायक बात यह नहीं है कि यह चमत्कार भारतीय जनता पार्टी ने किया, बल्कि यह है कि उसने यह चमत्कार एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को खड़ा किये बिना ही करके दिखा दिया. और मतदाताओं की ओर से किया गया चमत्कार यह है कि ऐसा उन्होंने तब किया, जबकि उनके पास अपने धर्म के उम्मीदवारों को चुनने का विकल्प था. बसपा के 100 मुसलमान उम्मीदवारों में से केवल तीन ही जीत पाये.


भाजपा द्वारा एक भी मुसलमान को उम्मीदवार न बनाये जाने की पहल को कई राजनीतिक पंडित उसे ‘मुस्लिम विरोधी‘ होने के ठोस प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, जैसा कि वे अब तक अपनी धर्मनिरपेक्षता के ‘ओल्ड फैशंड‘ चश्मे की नज़र से देखते रहे है. लेकिन यहां इसे एक अलग किन्तु आधुनिकतम तथा संवैधानिक नज़रिये से देखने की कोशिश की जा रही है.


भाजपा शुरू से ही मुस्लिम संतुष्टीकरण की नीति की घोर विरोधी रही है, जिसका जमकर राजनीतिक लाभ पार्टियों ने उठाया है. इसमें मुस्लिम राजनीतिक और धार्मिक नेता भी शामिल हैं. संविधान में परिभाषित धर्मनिरपेक्षता समानता के सिद्धांत पर आधारित है, न कि आरक्षण के सिद्धांत पर. भारतीय चुनावों को दलों ने धर्म और जाति का रंग देकर उसे एक प्रकार से आरक्षित कर दिया.


उत्तर प्रदेश में भाजपा द्वारा मुस्लिम बहुल क्षेत्रों तक में गैर-मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा करके धर्म एवं जाति पर आधारित इस तथाकथित आरक्षित नीति के खिलाफ एक प्रकार से ‘क्रांतिकारी कदम‘ उठाया है. इस निर्णय में कम बड़ा जोखिम नही था. यह धारा के विरूद्ध तैरने जैसा था लेकिन उसने किया. और इससे भी बड़ी बात यह कि मतदाताओं ने भी इसे इसी रूप में लिया. उन्होंने गैर-मुस्लिम उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान करके पूरे देश को यह संदेश दिया है कि “हम संकीर्ण निगाहों से देखना बंद करो.” उन्हें समानता पर आधारित ऐसे योग्य प्रतिनिधि चाहिए, जो उनके विकास को सुनिश्चित कर सकें.


यह भारतीय मतदाता की नई और चमकदार आवाज़ है. अब यह बात अलग है कि हमारे राजनेताओं को यह आवाज़ सुनाई पड़ रही है या नहीं.


(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार है)