बघेलखंड और बुंदेलखंड में करवट बदल रहें हैं सियासी समीकरण
भाजपा के गढ़ में मजबूत चुनौती दे रही है कांग्रेस
चुनाव के आखिरी दौर की रिपोर्टिंग और आंकलन सबसे ज्यादा माथापच्ची का काम है. माहौल भाँग के नशे की तरह तरंगित होता रहता है, फिर भी सन् 1985 से लेकर पिछले चुनाव तक की रिपोर्टिंग का तजुर्बा चुप बैठने नहीं देता. इस बार फील्ड में पहले की तरह घूमे नहीं लेकिन रिपोर्रटरों के संपर्क में सतत् बना रहा. वैसे सोशल मीडिया ने इस बार काम काफी आसान कर दिया है. कई आकलन तो पेशेवर रिपोर्टिंग से बेहतर लगे. बहरहाल मैं विंध्यक्षेत्र की बात करने जा रहा हूं.
देश में विंध्यक्षेत्र की एक अलग राजनीतिक पहचान है. इस नाते भी कि कभी यह विंध्यप्रदेश रहा है और इसके दो हिस्से थे एक बघेलखण्ड और दूसरा बुंदेलखंड. इसमें कोई संदेह नहीं कि अर्जुन सिंह की वजह से इस क्षेत्र को देशव्यापी ख्याति मिली. संसदीय चुनाव में बसपा के एक नौजवान सुखलाल कुशवाहा से उन्हें मिली पराजय ने इस क्षेत्र के राजनीतिक मिजाज से भी देश को परिचित कराया. संयोग देखिए कि बसपा के ही एक नौजवान के हाथों राजनीति में अर्जुन सिंह के प्रतिद्वंद्वी श्रीनिवास तिवारी का भी राजनीतिक अंत हुआ.
खैर..जब विंध्यप्रदेश था तब रीवा, सीधी, सतना, शहडोल बघेलखण्ड के व पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया बुंदेलखंड के राजस्व जिले थे. अब सब कुछ तितर-बितर हो गया है लेकिन राजनीतिक एकरूपता अभी इन्हें एक अदृश्य राजनीतिक डोर से बांधे हुए है. दोनों इलाकों की समस्याएं भी एक सी हैं और राजनीतिक मिजाज भी.
बघेलखण्ड के हिस्से में कुल जमा 30 सीटें आती हैं. इनमें इस चुनाव से पहले तक भाजपा के पास 16, कांग्रेस के खाते में 12 सीटें थीं. 2 सीटों में बसपा अपनी मौजूदगी बरकरार रखे हुए थी. रीवा और सतना ऐसे जिले हैं जहां पूरे प्रदेश में सबसे ज्यादा सामान्य वर्ग या सीधे-सीधे कहें तो सवर्ण मतदाता हैं. इन्हीं दोनों जिलों में बसपा ने राजनीति का तीसरा कोण बनाकर रखा है.
सतना में भाजपा पिछले बार ही मुश्किल में थी, इस बार और भी मुश्किल में दिख रही है. कांग्रेस ने काफी सोच विचार करके उम्मीदवार खड़े किए हैं जबकि भाजपा आखिरी वक्त तक मतिभ्रम में फँसी रही. विद्रोह का आलम यह कि भाजपा के कोषाध्यक्ष रह चुके रामोराम गुप्ता सतना खास से सपाक्स से खड़े हैं तो भाजपा छोड़कर जिला पंचायत की उपाध्यक्ष डा.रश्मि सिंह नागौद से.
यही दो सीटें भाजपा के लिए उम्मीदों की थी. सतना शुरू से जनसंघ का गढ़ रहा है. इसके पहले प्रदेशाध्यक्ष राजकिशोर शुक्ल यहीं के थे. शंकरलाल चौथी बार मैदान पर हैं पर व्यापारियों का कोर वोटबैंक उनसे छिटका है. नागौद से नागेंद्र सिंह कद्दावर नेता हैं, पिछली बार वे मैदान छोड़ गए थे तो कांग्रेस के यादवेन्द्र सिंह को वाक ओवर मिल गया था. नागेद्र सिंह मुश्किल में हैं. इस जिले से भाजपा दो सीटें बचा ले जाए तो बड़ी बात होगी. कुलमिलाकर सतना की स्थिति पिछले चुनाव सी लगती है. यहां बसपा एक बड़ा फैक्टर है. अभ्युदय से लेकर अबतक उसके 15 से 20 प्रतिशत वोट बरकरार हैं. वोट डिवीजन हुआ तो वह एक दो सीटें यहां से निकाल सकती है. कद्दावरों में विधानसभा उपाध्यक्ष राजेन्द्रसिंह अमरपाटन से हैं. इन्हें घेरने के लिए भाजपा अपने सांसद गणेश सिंह को उतारना चाहती थी लेकिन वे पीछे हट गए. आखिरी वक्त में पिछले चुनाव में मात खा चुके रामखेलावन पटेल को उतारा. यहां टिकट चयन के दौर में ही भाजपा मात खा चुकी है.
रीवा जिले की हर सीटें हाट सीट पर हैं. विकास पुरुष राजेंद्र शुक्ल की भी. भाजपा छोड़कर आए अभय मिश्र को कांग्रेस ने फील्ड किया है. छल-छद्म और बीस संगीन अपराधों की पृष्ठभूमि वाले अभय मिश्र उन ताकतों की बंदूक की नली बन गए हैं जो राजेन्द्र शुक्ल से निजी अदावत रखती हैं. जैसे पहले कभी श्रीनिवास तिवारी को घेरा जाता था वैसे इस बार राजेन्द्र को घेरने की कोशिशें हुई हैं. राजेन्द्र के लिए गनीमत की बात यह कि मेनस्ट्रीम के काँग्रेसी अभय के साथ नहीं हैं वजह अभय पैराशूट लैंडर हैं और राहुल गांधी ने यहीं वो वक्तव्य दिया था कि पैराशूट लैंडरों को टिकटें नहीं दी जाएंगी. यहां जातीय गोलबंदी के चलते विकास का मुद्दा पीछे छूट गया है. पिछला चुनाव 37 हजार के भारी अंतर से जीतने वाले राजेंद्र शुक्ल का मार्जिन कितना भी घटे पर वह पराजय की सीमा रेखा से ऊपर ही रहेगा, अब तक की प्रायः सभी मीडिया रिपोर्ट्स यही कहती हैं. अभय का साथ देने वाले भी जीतने से ज्यादा कड़ी टक्कर की बात करते हैं.
रीवा जिले में टिकट चयन में कांग्रेस की चूक भारी पड़ती दिखती है. यहां से कांग्रेस ने तीन पैराशूट लैंडर उतारे हैं उनमें दो बसपा की हैं. चूंकि इस इलाके में बसपा ने ही कांग्रेस का काम तमाम किया था इसलिए ऐसे उम्मीदवार कांग्रेसियों को पचाए नहीं पच रहे हैं. यहां भाजपा के दो प्रत्याशियों रीवा राजघराने के दिव्यराज सिंह सिरमौर और खाँटी नेता नागेद्र सिंह गुढ को समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों ने नाक में दम करके रखा है. चूंकि ये सपाई प्रदीपसिंह व कपिध्वज सिंह दोनों सजातीय हैं लिहाजा जातीय गोलबंदी भी छिन्नभिन्न हो गई है. मजेदार बात यह कि इन सीटों से कांग्रेस की ओर से श्रीनिवास तिवारी के वारिस उनके पौत्र विवेक की पत्नी अरुणा और पुत्र सुंदरलाल मैदान पर हैं. जनवरी में तिवारीजी की बरसी है, अचरज नहीं कि उनके घर के दो विधायक उनका तर्पण करें.
रीवा की राजनीति जातीय जहर से भीगी है. कार्यकर्ता विधानसभा क्षेत्रों की सीमा पार करते ही झंडे बदल लेते हैं. अब तक वोट डिवीजन का फायदा बसपा उठाती रही है पहली बार ऐसा लग रहा है कि यह फायदा भाजपा को मिल सकता हो. वजह बसपा के कोर वोट बैंक भाजपा की ओर शिफ्ट होते दिख रहे हैं. यहां सपाक्स का कोई जोर तो नहीं पर एट्रोसिटी एक्ट और माई के लाल की चर्चा जरूर है. सवर्णों का एक तबका कांग्रेस की ओर खिसक सकता है. यहां जीत हार इस बात पर निर्भर करेगी कि सवर्णों के कितने वोट भाजपा से बिदके और कितने बसपाई वोट उससे जुड़े.
सीधी-सिंगरौली की चार सीटें सामान्य हैं और तीन जनजाति सुरक्षित. चुरहट से लड़ रहे अजय सिंह राहुल का यहां असर है. भितरघात और बगावत कांग्रेस भाजपा दोनों में बराबर. आदिवासी अभी भी भाजपा के मोहपाश में हैं जबकि सवर्ण भाजपा से बिदके हुए. यहां राहुल फैक्टर दिख सकता है. सात में अभी तीन सीटें कांग्रेस की थीं इनकी संख्या बढ़ सकती है.
शहडोल संभाग की आठ सीटों में से महज एक सामान्य है कोतमा की बाकी रिजर्व. पूरे संभाग में भाजपा को बगावत झेलनी पड़ रही है. इसके बावजूद कि कद्दावर नेता दलवीर सिंह का किला ध्वस्त होकर भाजपा का मैदान बन चुका है. पुष्पराजगढ़ से उनकी बेटी हिमाद्री जो संसदीय उप चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी थीं अब अपने भाजपाई पति नरेन्द्र मराबी के साथ हैं जो उम्मीदवार भी हैं. टिकट कटने से नाराज सुदामा सिंह इसी विधानसभा से बागी हैं. शहडोल में जिस दिन मोदी की सभा थी उसी दिन एक और टिकट वंचित विधायक प्रमिला सिंह जैतपुर ने कांग्रेस कांग्रेस का दामन थाम लिया.
इन मुश्किलातों के बावजूद भाजपा को शहडोल संभाग से बड़ी उम्मीद है क्यों कि ग्राउण्ड रिपोर्ट्स कहती हैं कि जनजातीय वोटरों के साथ भाजपा की मजबूत बांडिंग है.
तो बघेलखण्ड की जो तस्वीर उभरकर सामने आ रही है उससे लगता है कि इसबार मामला उलट सकता है यानी कि 12 भाजपा और 16 कांग्रेस. कम से कम 2 सीटों पर बसपा का हक तो बनता ही है. चुपके से एक सीट सपा भी निकाल सकती है पर इससे भाजपा के नहीं कांग्रेस के नंबर कम होंगे. इस पूरी तस्वीर के पीछे आंचलिक संवाददाताओं और सोशल मीडिया का इनपुट है और उसके साथ 85 से अब तक के मेरी चुनावी रिपोर्टिंग का तजुर्बा. अंततः क्रिकेट और चुनाव में क्या कहा जा सकता है. एक बाल में छः रनों की जरूरत में किसी के छक्के भी लग सकते हैं.
अब बात बुंदेलखंड की. विंध्यप्रदेश वाले बुंदेलखंड में 17 सीटें हैं. इसमें सागर और दमोह को जोड़ दें तो यह आंकड़ा 60 का पहुंचता है. पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा का पलड़ा भारी था. सागर संभाग की 26 सीटों में 6 में कांग्रेस और 20 में भाजपा जीती थी. दतिया के नतीजे भी जोड़ दें तो 3 सीटें भाजपा की और बढ़ जाती हैं. कुल मिलाकर बुंदेलखंड तमाम विपदाओं के साथ टीकमगढ़ के ग्रेनाइट चट्टान की भाँति भाजपा के साथ था. एक बड़ी वजह यह भी थी कि 2013 के चुनाव में उमा भारती भाजपा में लौट चुकीं थी.
इस बार भाजपा और कांग्रेस दोनों ने तमाम बड़े जोधाओं को मैदान पर उतारा है. यहां भी बघेलखण्ड की भांति बसपा और सपा फैक्टर है. सपा का कुछ ज्यादा ही कह सकते हैं. कांग्रेस की ओर से मुकेश नायक पवई, शंकर प्रताप सिंह बिजावर, ब्रजेन्द्र सिंह राठौर पृथ्वीपुर, आलोक चतुर्वेदी पज्जन छतरपुर से उम्मीदवार हैं वहीं मानवेंद्रसिंह महाराजपुर, हरिशंकर खटीक और ब्रजेन्द्र सिंह पन्ना से हैं. उमा भारती के भतीजे राहुल लोधी भी किस्मत आजमा रहे हैं. पर सबसे चर्चित मामला सत्यव्रत चतुर्वेदी का है. चतुर्वेदी विद्यावती-बाबूराम चतुर्वेदी के वंशधर हैं जिनका कांग्रेस की राजनीति में आजादी के बाद से ही वर्चस्व रहा है. सत्यव्रत जो कि इलाके में विनोद भैय्या के नाम से जाने जाते हैं कांग्रेस से नाराज ही नहीं बागी भी हैं. उन्होंने राजनगर की सीट से अपने बेटे नितिन चतुर्वेदी को सपा की टिकट से खड़ा कर दिया है. वे राजनगर से लगातार दो बार से विधायकी जीत रहे विक्रम सिंह नातीराजा की जगह अपने बेटे की टिकट चाह रहे थे. कहते हैं कि सत्यव्रत ने ही पहली बार ज्योतिरादित्य का नाम मुख्यमंत्री के लिए उछाला था इसलिए कमलनाथ और दिग्विजय ने मिलकर उनके साथ खेल कर दिया, ज्योतिरादित्य यह सब देखते रह गए. सत्यव्रत ने सब कुछ दाँव पर लगा रखा है. कांग्रेस का खेल राजनगर ही नहीं कई सीटों में बिगड़ना तय है.
इधर भाजपा में सबसे बड़ी बगावत भी बुंदेलखंड में ही है. पिछड़े वर्ग के दिग्गज भाजपा नेता रामकृष्ण कुसमारिया बागी होकर दमोह की दो सीटों से उतर गए हैं. कुसमरिया खजुराहो सांसद भी रह चुके हैं पिछली मर्तबा राजनगर से चुनाव हार गए थे. कुसमरिया बड़े जनाधार वाले नेता हैं और जीवन के उत्तरार्द्ध में वे पार्टी के बर्ताव को अपने जातीय अपमान के साथ जोड़ रहे हैं. उनके निशाने पर जयंत मलैया हैं. पिछले चुनाव में ही कम मार्जिन से जीतने वाले मलैया अबतक के सबसे मुश्किल राजनीतिक दौर से गुजर रहे हैं. इधर पन्ना की कुसुम महदेले ने भले ही बगावत का झंड़ा न बुलंद किया हो पर अपने पार्टी के नेताओं को कठघरे में खड़ा ही कर दिया कि 26 हजार से चुनाव जीतने वाले को टिकट क्यों नहीं? कुसुम जिज्जी को निष्प्रभावी बनाने के लिए पार्टी ने उमा भारती को मोर्चे पर लगा दिया है. उमाजी ने ऐलानिया कहा है कि पवई के प्रहलाद लोधी को उन्होंने टिकट दिलवाई है और बृजेन्द्र प्रताप को पन्ना से लड़ने के लिए मनाया है. जाहिर है कुसुम जिज्जी उमाभारती को ही काटनहार मान रही हैं.
बुंदेलखंड में इस बार भाजपा का वैसे जोर नहीं ही है. यहां भी भाजपा ढलान पर है. फिसलने की रफ्तार क्या है यह नाप पाना जरा मुश्किल है. खामोश मतदाताओं के बीच से निकली ग्राउण्ड रिपोर्ट यह संकेत करती हैं कि कांग्रेस यहां कम से कम अपनी संख्या दोगुनी करेगी ही. और हां ऐसा पहली बार है कि बुंदेलखंड की चुनावी फिजा से वीर विक्रम भैय्याराजा व उनके खानदान की चर्चा गायब है. कभी 'लाश मिलेगी घाटी में' कहकर वोटरों को धमकाने के लिए मशहूर इस बाहुबली का जेल में ही बहुत बुरा अंत हो चुका है. शांतप्रिय लोग इसे राहत ही मान रहे हैं.
यह दुर्भाग्य देखिये कि सूखे की विभीषिका से जूझ रहे बुंदेलखंड में भुखमरी और पलायन कोई मुद्दा नहीं. बुंदेलखंड पैकेज के घोटालों की भी कोई बात नहीं करता. अभागे मजदूरों को ढ़ोने के लिए आज भी गुन्नौर से गुडगांव और पवई से पानीपत के लिए बसें चलती हैं. स्वभाव के हिसाब से प्रत्याशियों के तेवर तल्ख हैं वहीं वोटर फुटकर राजाओं(ठाकुर) और महराजों(बाम्हन) दोनों को रहस्यमयी निगाहों से विलोक रहा है. कुलजमा मतदान पूर्व चुनाव की यही कहानी समझ में आ रही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)