आय के स्रोत का ब्यौरा स्थापित करेगा चुनावी पारदर्शिता
सुप्रीम कोर्ट के निदेश के आलोक में ऐसे उम्मीदवारों के नामांकन को अवैध घोषित कर चुनाव लड़ने हेतु निरर्ह घोषित किया जा सकेगा जो अपने आश्रितों की संपत्ति एवं आय के स्रोत का उल्लेख नामांकन में नहीं करते है.
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस जे चमलेश्वर एवं जस्टिस एस अब्दुल अजीज की पीठ ने लखनऊ के गैर सरकारी संगठन लोकप्रहरी की याचिका पर सुनवाई करते हुए निर्णय दिया है कि चुनावों में नामांकन के समय उम्मीदवारों को अब अपने जीवनसाथी के साथ परिजनों एवं आश्रितों की चल-अचल संपत्ति एवं आय के स्रोत का ब्यौरा भी अनिवार्य रुप से देना पड़ेगा. अभी तक नामांकन मे सम्पत्ति एवं आय के ब्यौरे के साथ स्रोत का उल्लेख अनिवार्य नहीं था.
इसके पूर्व भी साल 2002 में यूनियन ऑफ़ इंडिया बनाम एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक एवं अन्य के मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट यह निर्णय दे चुका है कि नागरिकों की जानकारी हेतु नामांकन में उम्मीदवार द्वारा सूचना का दिया जाना संविधान की धारा 19(1)क के तहत अनिवार्य पहलू है और यह नागरिकों का मौलिक अधिकार है कि वे मतदान करने के समय उचित निर्णय में पहुंचने हेतु चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों के प्रति सही जानकारी प्राप्त कर सकें. जीवनसाथी के साथ आश्रितों की चल-अचल संपत्ति एवं आय के स्रोत का ब्यौरा देने से निर्वाचन प्रक्रिया में और गहन स्तर पर पारदर्शिता को सुनिश्चित किया जा सकेगा.
अभी तक यह मामला सामने आता रहा है कि कई उम्मीदवार नामांकन में अपनी संपत्ति एवं आय के स्रोत का उल्लेख नहीं करते है. अब यह संभंव नहीं होगा.
यह भी पढ़ेंः सोशल मीडिया कुप्रचार पर नकेल-प्रशासनिक चुनौती
सुप्रीम कोर्ट के निदेश के आलोक में ऐसे उम्मीदवारों के नामांकन को अवैध घोषित कर चुनाव लड़ने हेतु निरर्ह घोषित किया जा सकेगा जो अपने आश्रितों की संपत्ति एवं आय के स्रोत का उल्लेख नामांकन में नहीं करते है. न्यायालय ने इंगित किया कि यदि कोई निर्वाचित संसद सदस्य या विधानमंडल सदस्य की संपत्ति में पिछले पांच साल में 500 से 1000 फीसदी की बढ़ोत्तरी हो रही है तो ये जांच का विषय होना चाहिए. हाल ही में केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर आयोग (सीबीडीटी) ने संपत्ति के घोषित स्रोतों एवं आय में गड़बड़ी के लिए 98 विधायकों एवं 7 लोकसभा सांसदों के प्रथमदृष्टया जांच के अधीन होने का हलफनामा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया है, सुप्रीम कोर्ट ने इस हलफनामे का भी उल्लेख अपनी सुनवाई में किया.
ऐसे में पूर्व निर्वाचित उम्मीदवारों के लिए स्वच्छ आचरण अपनाते हुए निर्वाचन प्रक्रिया में सहभागी बनना और भी अनिवार्य शर्त बन गया है. अब यदि नामांकन पत्र में आश्रितों की संपत्ति एवं आय का स्रोत का ब्यौरा नहीं दिया जाता है तो नामांकन ही अस्वीकृत हो सकता है और यदि आश्रितों की संपत्ति और आय के स्रोत का ब्यौरा
दिया जाता है तो संपत्ति में पिछले पांच वर्षो में अवैध स्रोतों से अनियमित बढ़ोत्तरी पाये जाने पर जांच के घेरे में आना संभावित है. इसके लिए उम्मीदवार को उचित स्पष्टीकरण तैयार करके रखना होगा. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया है कि उम्मीदवार द्वारा स्वयं की एवं आश्रितों की संपत्ति का खुलासा नहीं किया जाना लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 123(2) के तहत भ्रष्ट आचरण का विषय है एवं ऐसे उम्मीदवारों पर आईपीसी की धारा 177 के तहत कानूनी कार्रवाई का आधार भी बनता है. वैसे आश्रितों की परिभाषा को लेकर अभी और ज्यादा स्पष्टीकरण की भी आवश्यकता है क्योंकि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 75क की उपधारा 5 के तहत आश्रितों में सम्मिलित व्यक्ति वे पुत्र एवं पुत्री है जिनकी आय उम्मीदवार से अलग आय नहीं मानी जाती है एवं उन्हें उम्मीदवार पर पूर्ण आश्रित माना जाता है, ऐसे में वे परिजन जिनकी आय का स्रोत उम्मीदवार से अलग है, उनको आश्रित माना जायेगा कि नहीं, इसका भी स्पष्टीकरण आवश्यक है.
यह भी पढ़ेंः सामाजिक संघर्ष का हल धर्म में है कि राजनीति में- एक सवाल
पीयूसीएल, एडीआर जैसे संगठन कई बार इस तरह की मांग उठाते है कि नामांकन के समय जो उम्मीदवार अपनी संपत्ति] आय एवं क्रिमीनल रिकार्ड से संबंधित सूचनाओं को छुपाते है या अधूरी देते है. ऐसे उम्मीदवारों के नामांकन को रद्द करने हेतु रिटर्निंग आफिसर के स्तर से कार्रवाई कराना संभव नहीं होता है.
इस संबंध में स्पष्ट होना जरुरी है कि सुप्रीम कोर्ट के 13 सिंतबर 2013 के एक निदेश के आलोक में यदि नामांकन पत्र अधूरा है, कोई कॉल जानबूझकर रिटर्निंग अफसर द्वारा नोटिस दिये जाने के बाद भी अधूरा छोड़ा जाता है तो अस्वीकृत किया जा सकता है. लेकिन लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 36(4) के तहत लिपिकीय भूल, मतदाता सूची की त्रुटि के कारण अथवा बिना किसी
वस्तुनिष्ठ आधार के किसी उम्मीदवार का नामांकन अवैध घोषित नहीं किया जा सकता. एवं धारा 36(6) के तहत यदि किसी का नामांकन अवैध पाया जाता है एवं रिटर्निंग अफसर द्वारा अस्वीकृत किया जाता है तो इस संबंध में रिटर्निंग अफसर को अपना मंतव्य रिकार्ड कर देना होगा. गैर वस्तुनिष्ठ आधार के किसी उम्मीदवार का नामांकन अस्वीकृत करना उसके लोकतांत्रिक अधिकारों का अतिक्रमण माना जायेगा एवं इसके प्रति रिटर्निंग अफसर उत्तरदायी होगा. ऐसे में रिटर्निंग अफसर का पहला उत्तरदायित्व उम्मीदवारों को निर्वाचन प्रक्रिया में सहभागी बनाना है न कि उन्हें निर्वाचन प्रक्रिया में भाग लेने से रोकना है.
यह भी पढ़ेंः कैसे स्थापित होगा राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र!
लेकिन यदि किसी उम्मीदवार द्वारा अपनी संपत्ति, आय एवं अपराधिक रिकार्ड के बारे में गलत सूचना दी जाने एवं छुपाये जाने का परिवाद अन्य उम्मीदवारों या अन्य पक्षों से प्राप्त होता है और रिटर्निंग अफसर इस शिकायत के सही होने के संबंध में पूरी तरह से संतुष्ट हो जाता है तो रिटर्निंग अफसर नामांकन को अवैध घोषित कर अस्वीकृत करने के स्थान पर लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 की धारा 125(क) के तहत सक्षम न्यायालय के समक्ष औपचारिक शिकायत दर्ज करेगा एवं संबंधित उम्मीदवार के नामांकन की वैधता के संबंध में न्यायालय निर्णय करेगा एवं आरोप सही पाये जाने पर छह महीने की सजा या आर्थिक दंड अथवा दोनों का प्रावधान कर सकेगा.
संपत्ति एवं आय के ब्यौरे के साथ उसके स्रोत की जानकारी उपलब्ध कराने के सुप्रीम कोर्ट के निदेश के बाद आम नागरिक समूह, मीडिया एवं गैर सरकारी संगठन वाच डॉग की स्थिति में और मजबूत रुप से कार्य कर सकेंगे एवं नामांकन के पश्चात रिटर्निंग अफसर के कार्यालय में प्रदर्शित उम्मीदवारों के नामांकन का उचित मूल्यांकन ज्यादा प्रभावी रुप से कर सकेंगे. उम्मीदवारों पर प्रतिद्वंदी उम्मीदवारों की तरफ से प्रश्नगत होने का भी दबाव तीव्रता से कार्य करेगा. रिटर्निंग अफसर के लिए भी पहले से अधिक सजगता की आवश्यकता होगी एवं स्क्रूटिनी अब ज्यादा गहन एवं पारदर्शी सहभागिता को सुनिश्चित कराने के लिए संपन्न होगी.
(लेखक कपिल शर्मा बिहार राज्य निर्वाचन सेवा में अधिकारी हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)