ईद अल्लाह की दावत है और कुर्बानी का अपना विज्ञान और मनोविज्ञान है...
इस्हाक़ यहूदियों के पुरखे हैं. ईसा मसीह भी जन्म से यहूदी थे, इसलिए इस्हाक़ भी ईसाइयों के पुरखे हो जाते हैं और इस तरह ईसाइयत का एक आधार स्तंभ हैं. दूसरी तरफ इस्माइल पैगंबर मोहम्मद साहब के पूर्वज थे.
पैगंबर मोहम्मद ने कहा है कि हर कौम के पास खुशियां मनाने का दिन यानी ईद होती है. हमारे पास ऐसे दो दिन हैं. हम सभी जानते हैं कि रमजान में एम महीने के रोजों के बाद अंत में ईद-उल-फितर आती है. उसके ढाई महीने बाद ईद उल अदहा आती है. जिसे आज 22 अगस्त को हम मना रहे हैं. भारतीय उपमहाद्वीप में इसका लोकप्रिय नाम बकरीद भी है.
हम सब जानते ही हैं कि इस दिन पैगंबर अब्राहम ने अपने बेटे इस्माइल को अल्लाह की राह पर कुर्बान किया था. पैगंबर अब्राहम यहूदी, ईसाई और मुस्लिम पैगंबरों के पुरखे हैं. यहूदी और ईसाई उनके बेटे को इश्माइल कहते हैं, जबकि मुसलमान उन्हें इस्माइल कहते हैं. हमें यह कहानी पता है कि ईश्वर ने किस तरह उनके बेटे को मेमने से बदल दिया और इस तरह इस्माइल का जीवन बच गया और मेमने की कुर्बानी स्वीकार की. इस बात को लेकर यहूदी, ईसाई और मुसलमानों में बहस होती रहती है. यहूदी और ईसाई कहते हैं कि अब्राहम ने अपने बेटे इस्हाक़ या आइजैक की कुर्बानी दी थी, जबकि मुस्लिम मानते हैं कि उन्होंने अपने बेटे इस्माइल की कुर्बानी दी थी.
इस्हाक़ यहूदियों के पुरखे हैं. ईसा मसीह भी जन्म से यहूदी थे, इसलिए इस्हाक़ भी ईसाइयों के पुरखे हो जाते हैं और इस तरह ईसाइयत का एक आधार स्तंभ हैं. दूसरी तरफ इस्माइल पैगंबर मोहम्मद साहब के पूर्वज थे. इसलिए वह इस्लाम के केंद्र में हैं.
इस बारे में इजराइली रब्बी ने एक महत्वपूर्ण बात कही है: वह कहते हैं कि मुसलमान अब्राहम को इब्राहिम पुकारते हैं. असल में असली नाम इब्राहिम ही है. अब्राहम, इप्राहिम, अबराम, अब्राहामोव, अप्रैम, इप्राहीम आदि इसी से बने नाम हैं. रब्बी के मुताबिक, जहां तक उच्चारण का सवाल है तो मुसलमान ही उन्हें उनके असली नाम से पुकारते हैं. पैगंबर मोहम्मद ने अक्सर अब्राहम को अपना दादा बताया. इसीलिए अब्राहम के मेमने की दावत मुसलमानों में ज्यादा जोर-शोर से मनाई जाती है.
इसके अलावा त्योहार का अर्थ और इसमें छिपे संदेश को भी गहराई से देखा जाना चाहिए. यहूदी, मुसलमान और ईसाई धर्मशास्त्रियों ने कहा है कि ईश्वर द्वारा इस्माइल की कुर्बानी को अस्वीकार कर देना और उसकी जगह मेमने को रख देना इंसान की बलि का साफतौर पर निषेध दर्शाता है. इससे कम से कम इतना पता चलता है कि अब्राहम के धर्म यहूदी, ईसाई और मुसलमानों ने एक सहस्राब्दी पहले मानव बलि को हमेशा के लिए छोड़ दिया, जबकि यह दुनिया के बाकी हिस्सों में 20वीं सदी तक जारी रही. अब्राहम की परंपरा के बाहर अन्य किसी ने भी इस परंपरा को हमेशा के लिए नहीं त्यागा. इस्लाम की 1400 साल के इतिहास में इस तरह की बहुत सी मिसालें मिल जाएंगी, लेकिन उनका ब्यौरा देना जरूरी नहीं है. इतना कहा जा सकता है कि अगर आप मानव बली के निषेध की परंपरा से हटते हैं, तो आप ईसाई यहूदी या मुसलमान नहीं हैं.
इस त्योहार का एक और महत्व है, जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, जबकि सबको इसका ध्यान रखना चाहिए. ईद उल अदहा को जियाफत अल्लाह यानी ईश्वर की ओर से दी गई दावत भी कहा जाता है. इसकी थोड़ी सी व्याख्या करनी जरूरी है. हम जानते हैं कि दुनिया में हर रोज लाखों जानवर खाने के उद्देश्य से काटे जाते हैं. इनके अलावा पक्षी, मुर्गे और मछलियां तो खाए ही जाते हैं. यह उन्हीं लोगों को उपलब्ध होते हैं, जिनके पास इस एनिमल प्रोटीन को खरीदने की क्षमता होती है. यह गरीबों तक नहीं पहुंच पाते. केवल इन्हीं तीन दिनों में, बल्कि कुछ समुदायों में 4 दिनों तक, उन लोगों को भी मांस खाने को मिल जाता है जो इसे खरीद नहीं पाते. उन्हें यह कुर्बानी के तौर पर मिलता है.
इसका मुख्य उद्देश्य जितना ज्यादा हो सके उतना ज्यादा मांस पड़ोसियों, दोस्तों, रिश्तेदारों और अजनबियों को बांटना होता है. यह जरूरी नहीं है कि मीट प्राप्त करने वाला व्यक्ति मुसलमान ही हो. अगर आप और आपके परिवार को ज्यादा मीट की जरूरत है तो आप दो तिहाई मांस अपने पास रख सकते हैं और बाकी मांस आपको बांटना होता है. यह भी देखने में आता है कि इन तीन-चार दिन में भिखारी भी पैसे की बजाय मांस की भीख मांगते हैं और उन्हें यह भीख मिलती भी है.
चाहे ईद उल अदहा जैसे धार्मिक उद्देश्यों के लिए जानवरों की कुर्बानी दी जाए या पुराने जमाने में, मध्ययुग में या उत्तर वैदिक काल में, बलि का मांस लोगों के खाने के लिए होता था. जिस जमाने में हिंदू धर्म बुद्ध धर्म के प्रभाव में नहीं आया था, तब पशुवध खाने के उद्देश्य से जुड़ा हुआ था. इस बारे में नैतिक, पर्यावरण, आर्थिक और स्वास्थ्य के नजरिए से बहस होती रहती है कि जानवरों को मारना ठीक है या नहीं. भारत में इस विषय में होने वाली बहस तथ्यात्मक और मौलिक नहीं होती. शाकाहारी और मांसाहारी दोनों ही अपनी खाने की आदतों का पक्ष रखते हैं. ऐसी बहस में सत्य की हानि होती है.
इस्लाम खुद को एक प्राकृतिक धर्म मानता है और मांस खाना उतना ही प्राकृतिक है, जितना कि शाकाहारी होना. इस्लाम में इस बात पर कोई बहस नहीं होती कि कौन सी चीज ज्यादा नैतिक है. 21वीं सदी के लोगों को यह भी जानना चाहिए कि महात्मा बुद्ध संसार में पैदा हुए सबसे ज्यादा नैतिक व्यक्तियों में से एक थे और वह भी भिक्षा में मिले मांस को खारिज नहीं करते थे. हालांकि उन्होंने अपना पूरा जीवन अहिंसा को समर्पित किया.
उनके अनुयाई अक्सर मांस खाने और अहिंसा की बहस में फंस जाते थे और उन्होंने इन दोनों को एक साथ बनाए रखने के अभिनव तरीके निकाले. दूसरी ओर अडोल्फ हिटलर शाकाहारी था. बावजूद इसके वह मानव इतिहास का सबसे बड़ा हत्यारा था. एक ऐसा आदमी जो लाखों लोगों की मौत के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार था. तो कौन ज्यादा नैतिक हुआ मांस का निषेध न करने वाले बुद्ध या शाकाहारी हिटलर.
अगर भोजन संबंधी फासीवाद (जिसमें कुछ लोग तय करते हैं कि बाकी लोग क्या खाएंगे) को छोड़ दिया जाए तो भोजन के दोनों विकल्पों में से कोई भी कम या ज्यादा नैतिक नहीं है, क्योंकि दोनों के पास ही अपने-अपने पक्ष में पर्याप्त दलीलें हैं. इस बारे में इस्लाम का मत यह है कि मनुष्य भी भोजन श्रृंखला का एक भाग है. मनुष्य जानवरों को खाता है और उसके बदले में जानवर भी मरे और अगर मौका मिले तो जीवित इंसान को खा लेता है.
हालांकि, इस्लामिक परंपराएं मांसाहारी लोगों के ऊपर बहुत सी जिम्मेदारियां डालती हैं. पैगंबर मोहम्मद साहब ने अपने अनुयायियों से कहा कि पशु के वध से पहले ही चाकू को धार न लगा लें. किसी भी पशु की कुर्बानी दूसरे पशुओं के सामने न दी जाए. पशु को भोंथरे चाकू से न काटा जाए. वध के लिए लाए गए जानवर के साथ दुर्व्यवहार न किया जाए और न ही उसका अपमान किया जाए.
(लेखक इस्लामिक स्कॉलर और वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)