उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बने मुश्किल से 14 महीने हुए हैं और अभी से सरकार पर अपराध नियंत्रण में असफल होने के आरोप लगना शुरू हो गए हैं. प्रदेश की पिछली समाजवादी पार्टी सरकार के ऊपर भी ऐसे आरोप सरकार बनने के एक-दो साल बाद लगने लगे थे और अंततः, अपनी कुछ उपलब्धियों के बावजूद अपनी पार्टी और परिवार में कलह और अपराध नियंत्रण में असफल होने के आरोपों के बोझ तले अखिलेश यादव की सरकार चुनाव हार गई थी.


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उत्तर प्रदेश अपने राजनीतिक गतिविधियों के अलावा यदि किसी और वजह से सुर्ख़ियों में रहता है तो वह है यहा की कानून-व्यवस्था और अपराध की स्थिति. इस घने प्रदेश में होने वाला अपराध जाति-गत और सांप्रदायिक घटनाओं और उन पर होने वाली राजनीति से कहीं गहरे से जुड़ा हुआ है. सच तो यह है कि 2007-2012 के दौरान सत्ता में रही बहुजन पार्टी की सरकार, और 2012-2017 के दौरान की सपा सरकार इन्ही दो आरोपों से घिरी और सत्ता से बेदखल भी हुई. और अब, विकास और बदलाव के नाम पर सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर तेजी से दिशाहीनता के आरोप लगने शुरू हो चुके हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भले ही अपने अनुशासन-प्रिय और भ्रष्टाचार-विरोधी छवि के लिए जाने जाते हों, लेकिन एक प्रशासक के तौर पर उनकी उपलब्धियां अभी सामने आनी बाकी हैं.


इसका खामियाजा प्रदेश की कानून-व्यवस्था और अपराध नियंत्रण की स्थिति पर दिखने लगा है. न केवल उन्नाव का बहुचर्चित अपहरण व बलात्कार काण्ड, बल्कि कासगंज, इलाहाबाद, गोरखपुर, लखनऊ समेत कई शहरों में हुई दुस्साहसी अपराधिक घटनाओं से लगता है कि मुख्यमंत्री के पसंदीदा प्रदेश पुलिस के महानिदेशक और शीर्ष प्रशासनिक अधिकारी अभी भी वह नहीं कर दिखा पा रहे हैं जो मुख्यमंत्री चाहते हैं. फिर विरोधाभास यह भी है कि एक ओर तो प्रदेश सरकार द्वारा संगठित अपराध को रोकने के लिए नया कानून लाया गया और पुराने अपराधियों को मुठभेड़ में पकड़ा या मार गिराया जा रहा है, तो दूसरी ओर आंकड़े बताते हैं कि इस वर्ष जनवरी से मार्च तक प्रदेश में बलात्कार के 899 मामले पुलिस में दर्ज हुए हैं. इसी अवधि में महिलाओं के विरुद्ध अपराध के मामलों की संख्या प्रदेश भर में 100 से अधिक रही है.


स्थिति से निबटने के लिए महिला हेल्पलाइन, डायल-100, एंटी-रोमियो दल जैसी सेवाएं एकीकृत किए जाने का प्रस्ताव है और बच्चों के खिलाफ यौन अपराध के मामलों में फ़ास्ट-ट्रैक अदालतें बनाने पर भी विचार्किया जा रहा है. इन सब के बावजूद अपराधियों में पुलिस का डर अभी भी नहीं दिख रहा और जिस बेख़ौफ़ तरीके से हत्याएं, लूटपाट अदि की वारदातें हो रही हैं, उससे लगता है कि थाना स्तर पर पुलिसकर्मियों में अपना काम सख्ती से करने का, और लापरवाही करने पर दंड मिलने का, कोई सन्देश नहीं गया है.


अखिलेश यादव, मायावती और कांग्रेस समेत विपक्षी दलों के नेता इस मोर्चे पर विफलता और सरकारी तंत्र की ढिलाई के लिए योगी को दोष दे रहे हैं. लेकिन पिछली दो सरकारों के कार्यकाल में भी न तो अपराधों की संख्या कम थी और न ही राजनीतिक लोगों का हत्या, बलात्कार आदि जैसी घटनाओं में संलिप्तिता कम थी. जहां मायावती की सरकार के दौरान संगठित अपराधियों पर सख्ती देखी गई थी, लेकिन बड़ी संख्या में तत्कालीन विधायक व मंत्री तमाम तरह में अपराध में लिप्त पाए गए थे, उन पर कार्यवाई हुई थी और वे सरकार या पार्टी से बाहर किये गए थे. अखिलेश यादव के कार्यकाल में जहां एक ही वर्ग के लोगों की बड़ी संख्या में पुलिस में तैनाती के आरोप लगे थे, लूटपाट, हत्या आदि की घटनाएं बढ़ी थीं और सबसे गंभीर बात यह थी कि बड़ी संख्या में अराजक तत्वों द्वारा पुलिसकर्मियों और पुलिस थानों पर हमले हुए थे.


पूरे परिदृश्य से तो यही लगता है कि उत्तर प्रदेश में अपराध पर नियंत्रण पाना किसी भी राजनीतिक दल की सरकार के बस के बात नहीं है. अपने कार्यकाल में मायावती और अखिलेश समय समय पर अपराध से सख्ती से निबटने की बातें करते थे और अब योगी आदित्यनाथ भी यही कहते हैं. ताबड़तोड़ हुई मुठभेड़ में कई दुर्दांत अपराधी मारे गए हैं, कई अपराधी मारे जाने के डर से आत्मसमर्पण कर रहे हैं, कई जिलों में पुलिस अधीक्षक बदले गए हैं, समीक्षा बैठकें हो रही हैं लेकिन कोई जमीनी बदलाव नहीं दिख रहा. प्रदेश के शहरों और कस्बों की सड़कों पर अराजक तत्वों का जमावड़ा, पुलिस की अकर्मण्यता, कोई कार्यवाई होने पर सत्तारूढ़ दलों के नेताओं की सिफारिश आना, आदि वैसे का वैसा है.


कई विशेषज्ञों का मानना है कि उत्तर प्रदेश अभी भी बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़ा है, कृषि और उद्योग के क्षेत्र में कुछ बदलाव आने के बावजूद अभी भी प्रदेश के अधिकतर लोगों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आया है और इससे उपजी हताशा व निराशा ही अपराध को बढ़ावा देती है. हाल में हुई कुछ अपराध भी यह संकेत देते हैं कि छोटे विवादों के बाद भी हत्या कर देने की वारदातें बढ़ी हैं. उस पर पुलिस का डर न होना, या किसी कार्यवाई को आसानी से एक फ़ोन करके रोक देना अपराधियों का हौसला और बढ़ाते हैं. राजधानी लखनऊ से लगे हुए गावों में भी लोग अपनी बेटियों को स्कूल भेजने में हिचकिचाते हैं क्योंकि स्कूल के रास्ते में मंडराते शरारती तत्वों के इरादे संदेहास्पद होते हैं. समुचित संख्या में शौचालयों के न होने की वजह से बच्चे खेत मैदान में जाते हैं जहां आवारा कुत्ते या अन्य जानवर उन्हें शिकार बना रहे हैं. फिर जातिगत विद्वेष कहीं से भी कम नहीं हुआ है, और एक ओर किसी विशेष जाति के लोगों पर शादी या समारोह मनाने पर हिंसा भड़कती है, तो दूसरी ओर दो अलग वर्गों के लड़के या लड़कियों की दोस्ती, प्रेम या शादी होने पर हत्या, बलात्कार या एसिड-अटैक की नौबत आ जाती है.


इन स्थितियों से पार पाना सिर्फ राजनीतिक दलों के बस में नहीं है. जिस तरह के सामाजिक या शैक्षिक बदलाव की जरूरत है, वह किसी भी सरकार की वरीयता में कभी रहता ही नहीं. ऐसी स्थिति में, इस सरकार के बाद किसी भी पार्टी की सरकार बन जाए, कुछ ख़ास बदलने वाला नहीं है.


(रतनमणि लाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार है)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)