Opinion: `सबका साथ` क्यों नहीं मिल पा रहा बीजेपी को?
बीजेपी में एक सोच स्पष्ट हो रही है कि चुनाव जिताना मोदी और अमित शाह की ही जिम्मेदारी है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 'सबका साथ सबका विकास' का नारा यदि यह संकेत देने की कोशिश थी कि वे और उनकी पार्टी किसी ख़ास जाति या वर्ग के हित के बजाय सभी वर्गों और संप्रदायों के हित में काम कर रही है तो कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद आए ताजे उपचुनावों के परिणाम दर्शाते हैं कि इस नारे को कम से कम पिछड़ी जातियों व मुस्लिम समुदाय ने नकार दिया है. यही नहीं, उत्तर प्रदेश व बिहार के परिणाम तो यह भी संकेत देते हैं कि पिछड़ी जातियां, दलित वर्ग व मुस्लिम वर्ग बीजेपी के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं. एक तरफ तो इसका संदेश यह है कि मोदी की हिंदू समुदाय के सभी वर्गों को अपने पक्ष में रखने की कोशिश नाकाम रही है, तो दूसरी ओर यह भी दीखता है कि हिंदू समुदाय एक बार फिर जाति के आधार पर ही बंटना पसंद कर रहा है, और इस प्रयास में मुस्लिम उनके साथ हैं. एक और सन्देश यह भी है कि अब कोई भी चुनाव केवल केंद्र सरकार और मोदी की उपलब्धियों के बल पर जीता जाना मुश्किल होता जा रहा है.
बीजेपी में एक सोच स्पष्ट हो रही है कि चुनाव जिताना मोदी और अमित शाह की ही जिम्मेदारी है. उत्तर प्रदेश में पिछले एक साल में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्त्व में बीजेपी की सरकार बनने के बाद चार उपचुनाव हारना कहीं न कहीं स्पष्ट इशारा है कि प्रदेश की सरकार लोगों की अपेक्षाएं पूरी नहीं कर पा रही है. भले ही कहा जाए कि उपचुनाव स्थानीय मुद्दों पर और प्रत्याशी की छवि पर लड़ा जाता है क्योंकि इसके नतीजे से सरकार पर कोई असर नहीं होता, लेकिन बीजेपी के भीतर योगी के काम-काज पर सवाल उठें तो संदेह नहीं होना चाहिए.
इसी तरह, बिहार के उपचुनाव में राष्ट्रीय जनता दल की जीत भी जेडीयू व बीजेपी की संयुक्त सरकार के काम पर सवाल खड़ा करती है. इसके उलट, पंजाब में सत्तारूढ़ कांग्रेस ने वहां का एक उपचुनाव बड़ी आसानी से जीत लिया है. साथ ही, कर्नाटक में तमाम राजनीतिक उठापटक के बावजूद एक उपचुनाव कांग्रेस के ही पक्ष में गया. क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि बीजेपी (या एनडीए) शासित राज्यों में लोगों को वास्तव में सरकार से बड़ी शिकायतें हैं? क्या केंद्र सरकार का काम, उपलब्धियां, दीर्घ-कालीन परियोजनाएं और भ्रष्टाचार कम करने के दावे लोगों को पसंद नहीं आ रहे? क्या मोदी की लोकप्रियता का मुकाबला करने के लिए अंततः जाति के समीकरण ही सफल होंगें? क्या एक बार फिर क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ेगा भले ही इससे केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो?
उत्तर प्रदेश में जिस तरह से समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल कभी-साथ, कभी-अलग के फार्मूले पर चल रहे हैं, उससे लगता है कि अभी इन तीनों दलों के बीच कोई भी औपचारिक समझौता नहीं हुआ है. लेकिन गोरखपुर और फूलपुर में हुए लोक सभा उपचुनाव और अब कैराना लोक सभा व नूरपुर (विधानसभा) के उपचुनाव के नतीजे ऐसी कोशिशों को और मजबूत करेंगे. ये बात अलग है कि इन नतीजों से सपा, बसपा और रालोद को अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी मजबूती का एहसास हुआ है और इसके दम पर 2019 के आम चुनाव के पहले ये दल किसी भी बीजेपी विरोधी गठबंधन में अपने हिस्से की मांग को और मजबूती से रखेंगे. कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस की सरकार के मुख्य मंत्री कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण के बाद से बसपा प्रमुख मायावती के भी सुर बदले लग रहे हैं और वे किसी भी भावी गठबंधन में “सम्मानजनक” सीट-वितरणसमझौते की शर्त लगा रही हैं. जहां तक कांग्रेस का सवाल है, उसे तो इस बीजेपी-विरोध में हर तरह से अपना फायदा ही दिख रहा है क्योंकि कर्नाटक के प्रयोग को राष्ट्रीय स्तर पर दोहराना उसके लिए कोई कठिन नहीं होगा.
बीजेपी के लिए चिंता से ज्यादा ये चिंतन का समय है कि उसकी विचारधारा पर समाज के एक बड़े हिस्से को भरोसा क्यों नहीं हो पा रहा है. आखिर क्या कारण है कि स्थानीय, क्षेत्रीय दल जो पूरी तरह से एक ही परिवार के सदस्यों द्वारा संचालित किये जाते हैं, वे लोगों का भरोसा जीतने में सफल होते हैं?
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(रतनमणि लाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार है)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)