मेरा एक दोस्त हुआ करता था. उसे बहस करने की खूब आदत थी. बहस करना मुझे भी बहुत भाता था. औऱ हमारे कई दोस्त थे जो देश दुनिया की इन बहसों में खुद को शामिल किया करते थे. हमारी शामे रोज़ ऐसी ही किसी ना खत्म होने वाली बहस के साथ शुरू होती थी और हमारे समय को सार्थक किया करती थी . मेरे दोस्त की एक विशेष आदत थी. जब हम लोगों की बहस या किसी विषय पर चर्चा चल रही होती थी. औऱ सामने वाला कोई अपना तर्क दे रहा होता था. उस दौरान मेरे उसे अमुक दोस्त का मुंह भी चल रहा होता था. मतलब वो सामने वाला क्या कह रहा है इस बात पर कान देने के बजाए अपना जवाब तैयार कर रहा होता था. उसकी भावनाएं उसके होठों पर तैर जाती थी औऱ उन्हे चलने पर मजबूर कर दिया करती थी. 


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मेरे उक्त दोस्त के लिए बहस का मतलब जवाब देना होता था. चूंकि उस दौर में जो कुछ भी होता था वो सामने होता था तो उनका चलता हुआ मुंह हम सबकी नज़रों मे आ जाया करता था. लेकिन फिर भी उनकी आदत कभी नहीं छूटी और जब तक हम साथ में रहे तब तक जब भी किसी विषय पर चर्चा हुई वो जवाब देता रहा . दरअसल वो सिर्फ जवाब देना जानता था. उसने कभी भी ये नहीं सुना की सामने वाला क्या सवाल पूछ रहा है. वो अपने एक जवाब के बाद दूसरा जवाब देता चला जाता था. कई बार तो कुछ दोस्त उसे चेताते भी थे की उसका जवाब और किया गया सवाल बिल्कुल अलग है. तो इस बात पर भी वो पहले से ही तैयार जवाब दे दिया करता था. वो दरअसल अपने दिमाग में खुद ही सवाल तैयार करता रहता था. जैसे मैं फलाना जवाब दूंगा तो सामने वाला ये सवाल पूछेगा फिर मैं उसका ऐसा जवाब दे दूंगा. इस तरह से उसके पास जवाबों की फेररिस्त हुआ करती थी. इस तरह हमारे साथ रहते हुए भी हम लोगों के बीच कभी कम्यूनिकेशन पूरा नहीं पाया . क्योंकि वो एक तरफा होता था. और कम्यूनिकेशन यानि संप्रेषण का सिद्धांत कहता है कि वो जब तक पूरा नहीं हो सकता है जब तक फीडबैक ना मिल जाए .


फेसबुक, वॉट्सएप को कम्यूनिकेशन की दुनिया की सबसे बड़ी क्रांति के रूप में देखा जाता है. इन माध्यमों ने दुनिया को अपनी बात कहने औऱ उस पर चर्चा करने के लिए एक ऐसा मंच दिया, जहां वो बगैर किसी लाग लपेट के अपनी बात कह सकते थे औऱ उस पर दूसरों की राय जान सकते हैं. लेकिन ये माध्यम एकतरफा संप्रेषण का सबसे बड़ा मंच बन कर उभरे हैं . जहां हर व्यक्ति कह रहा है और सिर्फ कह रहा है. और कहते कहते ये भी कह रहा है कि आप मेरी बात समझे नही क्योंकि आप ठीक से सुन नहीं रहे हैं. सबसे खास बात ये है कि हम उन्हीं लोगों से बातचीत पसंद कर रहे हैं जो समर्थन में है बाकी सब हमें विरोधी लगने लगे हैं. समर्थन से तात्पर्य जी हुजूरी से है. दूसरी तरफ सोशल मीडिया मंच में एक तबका और भी उभरा है जो आलोचना करने के लिए आलोचना कर रहा है. वो इस कदर आलोचक बन कर उभरा है कि उसने चीजों को पसंद करना ही छोड़ दिया है. उसे लगता है कि अगर कहीं गलती से उससे किसी चीज की तारीफ हो गई तो कहीं लोग उस पर सवाल खड़े ना करने लगे.


मुझे याद है जब हमारी नई नई नौकरी लगी  थी और हम एक न्यूज चैनल को अपनी सेवाएं दे रहे थे . तो हमारा सामना वहां पर नए नए बने एक बॉस से हुआ. उनकी नज़रे टीवी स्क्रीन पर हमेशा नीचे रहती थी जैसे कोई अंग्रेजी फिल्म को सबटाइटल के साथ देख रहा हो. दरअसल न्यूज़ में क्या कंटेट जा रहा है इससे ज्यादा ध्यान उनका इस बात पर रहता था कि नीचे स्क्रोल हो रहे टिकर में मात्रा ठीक जा रही है या नहीं. मतलब ऐसा नहीं है कि वो ज़रूरी नहीं था लेकिन दरअसल उन्हे सबसे ज्यादा ज़रूरी वही लगता था. उनकी ये आदत सोशल मीडिया मंच पर उभरे कई महाआलोचकों में नज़र आती है. जो किसी की शेयर की गई जानकारी में मात्राओं की गलती ढूंढ ढूंढ कर निकाल रहे होते हैं और कंटेट के बारे में उनका कुछ भी कहना नहीं होता है. दरअसल इन्होंने भी हर पोस्ट को लेकर अपना जवाब तैयार किया रहता है. जिसे वो ईमानदारी के साथ चिपकाते रहते हैं.


इस मंच ने हमारे कम्यूनिकेशन को इस कदर एक तरफा कर दिया है कि हम लोग जो कभी किसी टुच्चे जोक पर भी यूं ही जबरन हंस लिया करते थे वो गंभीर से गंभीरतम की श्रेणी में जाते जा रहे हैं. हमने तय कर लिया है कि हमें सिर्फ तय बातों पर ही हंसना है और कोई भी बात जो हमारी सामाजिक मंच पर हमारे बौद्धिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाए हमें वहां गंभीर रुख अपनाते हुए हंसना नहीं है. मज़ाक तो खैर पूरी तरह से भुलाया जा चुका है. रोज़ाना सुबह उठ कर हम इस तैयारी में लग जाते है कि किस तरह आज ऐसी कोई बात लिख दूं जिसे सुनकर दुनिया वाह वाह कर उठे. उसी दौरान हमारे दिमाग में ये भी चल रहा होता है कि किस तरह से मुझे अपनी कही बात की ओर सभी का ध्यान आकर्षित करना है औऱ दूसरो के कहे हुए किसी भी विचार को किस तरह धता बतानी है.  इस तरह कोई मज़ाक, कोई विचारणीय बात, या कोई यूं ही कही गई बात सब को किनारे करते हुए हम हर जगह अपना जवाब दे रहे हैं. हमने अब पूछना छोड़ दिया है . 


‘दि नॉलेज इल्यूजन- वाय वी नेवर थिंक अलोन’ के लेखक स्टीवन स्लोमान के मुताबिक खुद को सही साबित करने  और बात के सही होने के बीच एक पतली सी लकीर है. स्टीवन का मानना है कि हमें ये भ्रम है कि दुनिया को या मुद्दों को लेकर हमारी समझ काफी गहरी और सही है. . मसलन आपके पास कोई वॉट्सएप पर कोई संदेश आता है जिसमें बताया जाता है  कि नासा के मुताबिक कोई कॉस्मिक रेज फलाने समय पर निकलने वाली है और उससे आपको नुकसान पहुंच सकता है . आप अगर उस संदेश को गलत साबित करते हुए कोई तर्क देते हैं तो मैसेज फारवर्ड करने वाला आपके तर्कों को ना मानते हुए चार दूसरे तर्कों को आपकी तरफ सरका देता है जो ये साबित करने में जी जान लगा रहा होता हैं कि उसने जो कहा है वो सही है. इस तरह मैसेज भेजने वाला आपके तर्कों को बगैर जाने अपनी बात को सही साबित करने में जुट जाता है . 


दरअसल सोशल मीडिया ने हमे कुएं का मेढक बना दिया है जो अपने ही दायरे में घूम कर खुश है और किसी समुद्र के पक्षी के ये कहने पर की समुद्र इस कदर विशाल होता है की उसकी कुएं से तुलना ही नहीं की जा सकती है . पहले पहल तो मेढक उसे गलत साबित करने में जुट जाता है . फिर भी जब उसकी धकती नहीं है तो वो चिढ़ कर समुद्री पक्षी को अपने कुएं में आने से ब्लॉक कर देता है . इस तरह इंटरनेट पर हमारी सोच का दायरा सिमटता जा रहा है क्योंकि हम अपनी ही तरह सोचने वालों के साथ रहना पसंद करते हैं. हम नहीं चाहते हैं कि कोई भी हमारी कही बात पर कोई सवाल खड़ा करे. अगर कोई खड़ा करता भी है तो अव्वल हमारे द्वारा ख़डी की गई समर्थित टीम मिल कर उसको नेस्तनाबूद कर देती है नहीं तो हम उसे इस तरह कह कह ब्लॉक करते हैं गोया किसी बिरादरी ने अपराधी मानकर  किसी का हुक्का पानी बंद कर दिया हो.


हम लोगों की हालत कभी खुशी कभी ग़म के उस बाप वाले चरित्र जैसी हो गई है जो कोई बात बोलता है और जब कोई उनकी बात के विरोध में कुछ कहने के लिए मुंह खोलता है तो शब्द के बाहर निकलने से पहले ही वो बाप रूपी चरित्र एक संवाद कहता है, ‘कह दिया मतलब कह दिया’ .


(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)