शिक्षक वो जो ‘कहे ऐसा भी हो सकता है’
हम आज भी लॉर्ड मैकाले के तरीके का अनुसरण कर रहे है. जिसका मकसद भारत में शिक्षा फैलाना नहीं था बल्कि ऐसी बाबुओं की कौम तैयार करना था जो सत्ता की कमांड को मान सके.
स्कूल में नर्सरी की क्लास चल रही थी. व्यस्त मैडम ने सभी बच्चों को एक शीट और कुछ रंग दिए. शीट पर चांद का चित्र था. सभी बच्चों से कहा गया कि इसमें रंग भरें. बच्चों ने रंग भरना शुरू किया. जब वक्त खत्म हुआ तो सभी बच्चों से शीट को वापस लिया गया. एक बच्ची ने चांद में गाढ़ा गुलाबी रंग भर दिया था. मैडम ने मुस्कुराते हुए उसे बोला कि चांद का रंग सफेद होता है क्या तुमने कभी चांद नहीं देखा है कहते हुए मैडम ने उस बच्ची को चांद का एक चित्र दिखाया. फिर मैडम ने उस बच्ची के रंग की हुई शीट को सभी बच्चों को दिखाते हुए बोला कि देखों इसमें कौन सा रंग भरा है. सब बच्चे ज़ोर जोर से हंसने लगे. रंग भरने वाली बच्ची अपने में सिमट गई. मैडम ने फिर जोर से पूछा, अच्छा बताओ चांद कौन से रंग का होता है. सभी बच्चों ने उतने ही जोश में चिल्ला कर कहा, सफेद.
बच्ची छुट्टी में अपने घर पहुंची और अपने पापा से गुस्सा होते हुए बोली की आज उसका स्कूल में मज़ाक उड़ाया गया . पापा के पूछने पर उसने सारा वाकया कह सुनाया. ये महज़ संयोग था कि कुछ दिन पहले चंद्रग्रहण था और पापा ने अपनी बेटी को लाल चांद दिखाया था. बच्ची को गुलाबी रंग पसंद है ऐसे में जब उसने चांद में अपना पसंदीदा रंग भरा हुआ देखा तो उसके ज़हन में वही बात रह गई और उसने अपनी कल्पना को स्कूल में भी रंग दिया .
ये वाकया तारे ज़मीन पर फिल्म के एक दृश्य को ताजा कर देता है. जिसमें हिंदी के टीचर बच्चों से कविता पाठ करने के लिए एक पेज खोलने के लिए बोलते हैं . कविता का शीर्षक होता है ‘दृष्टिकोण’ —
ऊपर से देखूं तो है खुला आसमान
बादलों से भरा भरा तेरा ये जहान
जब तक ना तरस जाएं पीने को हाथी
या कूद के दिखाएं ये मेरे साथी
साइकल की घंटी या कंकड़ या माटी
या तुझ पर बरस जाए अंधे की लाठी
तब सब को दिखे है तू पानी सी नदी
तू तो हे तू अपनी प्यारी सी नदी .
फिल्म के मुख्य किरदार ईशान से इस कविता का अर्थ समझाने के लिए कहा जाता है तो वह बोलता है - जो दिखता है हमको लगता है वो है औऱ जो नहीं दिखता है हमको लगता है वो नहीं है लेकिन कभी कभी जो दिखता है वो नहीं होता और जो नहीं दिखता है वो होता है. इस बात पर शिक्षक नाराज होकर उसे फटकार देता है औऱ दूसरे बच्चे से कहता है कि वो समझाए. दूसरा बच्चा कविता की एक रटी रटाई व्याख्या सुना देता है. बाद में ईशान के बगल में बैठा बच्चा बोलता है कि कविता का सही अर्थ तो तुमने समझाया बाकियों ने तो रटे हुए उत्तर दिये.
फिल्म का यह सीन हमारी शिक्षण व्यवस्था और ज्यादातर शिक्षकों के पढ़ाने के तरीके को बताता है. जहां हम सिर्फ पढ़ा रहे हैं, सिखा कुछ नहीं रहे हैं. यह सिलसिला प्ले स्कूल से शुरू होता है और तब तक चलता है जब तक आप पढ़ रहे होते हैं. दरअसल शिक्षा के नाम पर हमने खानापूर्ति करना सीख लिया है. हम बच्चों को पढ़ाते तो हैं लेकिन हमने उन्हें सवाल पूछने से रोक दिया है. हमारी व्यवस्था चाहती ही नहीं है कि कोई सवाल पूछा जाए. क्योंकि सवाल पूछने पर उसका जवाब देना होगा.
दरअसल शिक्षक का काम बच्चे को पढ़ाना नहीं होता है बल्कि एक नज़रिया देना होता है. तमाम प्रकार के बोझ से लदा हुआ शिक्षक जिसे शिक्षण संस्थान पढ़ाने के अलावा औऱ भी तमाम तरह के कामों के वजन सा ढंक देता है वो चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता है. ऐसे में अगर कोई शिक्षक कुछ अलग करने की कोशिश करता भी है तो उस पर प्रबंधन और साथी शिक्षकों का ऐसा दबाव पड़ता है कि वो किताबी शिक्षा देने पर मजबूर हो जाता है .
इसका नतीजा ये होता है कि जो बच्चा आगे है शिक्षक भी उसी पर ध्यान देता है. उसे अपनी ड्यूटी पूरी करनी है. साथ ही अपनी कक्षा का रिज़ल्ट सुधारना है. कुछ बच्चों को इस तरह से तैयार करना है कि स्कूल में वो नज़र आएं औऱ शिक्षक का नंबर बढ़ते रहें. कुल मिलाकर शिक्षण संस्थान अब पालक से ये उम्मीद करते हैं कि वो अपने बच्चे को इस तरह तैयार करके भेजें कि जब वो स्कूल पहुंचे तो अपना बैग उतारे, सीट पर बैठे(बच्चे अपनी समझदारी और आपसा सामंजस्य से खुद ही कभी आगे कभी पीछे बैठने का चुनाव कर लें).
टीचर कक्षा में आकर मन में सोचे की क्या पढ़ाना है इतने में बच्चा किताब निकालकर पढ़़ना शुरू कर दे, ताकि मैडम अगली कक्षा के बारे में सोच सकें. इतनी देर में बच्चा पढ़कर मैडम की सोचने में मदद कर दे तो क्या कहने कहानी सुनाना हो, कविता कहनी हो या फिर रंग ही भरना हो, बच्चे को खुद आगे बढ़ कर टीचर से बोलना आना चाहिए. अगर वो टीचर से छीन कर ये काम कर ले तो क्या कहने वो नटखट है तो पालक उसे शांत रहना सिखाएं,, शांत है तो बोलते कैसे हैं ये बताएं, अगर दोनों ही तरह का नहीं है तो कोई और खामी ढूंढिए फिर ठीक करें . क्योंकि स्कूल को ऐसे बच्चे चाहिए होते हैं जो कमांड लेना जानते हों. जिससे उनका काम आसान हो सके . क्योंकि उसे केवल बच्चों को पढ़ाना नहीं है और बहुत से ऐसे काम है जो करने हैं जिससे स्कूल का बाजार बना रहे.
इसमें केवल शिक्षकों का दोष नहीं है. ये तरीका हमारे सिस्टम में इस कदर रच बस गया है कि हमारे लिए शिक्षा का मतलब किताब पढ़ाना है. भले ही किताब में गलत ही क्यों ना लिखा हो.
अगर हम आधुनिक भारत में शिक्षा के विकास पर नज़र डालें तो हमें समीतियां बहुत नज़र आती हैं, सुझाव भी बहुत दिखते हैं लेकिन बदलाव उस स्तर का नज़र नहीं आता है. हम आज भी लॉर्ड मैकाले के तरीके का अनुसरण कर रहे है. जिसका मकसद भारत में शिक्षा फैलाना नहीं था बल्कि ऐसी बाबुओं की कौम तैयार करना था जो सत्ता की कमांड को मान सके.
कॉलेज में बच्चों को पढ़ाने के दौरान कई बार ऐसा अनुभव हुआ कि अगर आप बच्चों को किताब से इतर कुछ समझाने या बताने की कोशिश करते भी हैं तो कभी प्रबंधन, कभी बच्चों के पालक तो कभी खुद बच्चे इस बात को लेकर चिंता जाहिर कर देते हैं कि कोर्स पूरा नहीं हुआ है. ये समझा पाना बेहद मुश्किल हो जाता है कि जिंदगी किताब से नहीं चलती है जिंदगी की पढाई अलग है. और अगर मान लीजिए कोई बच्चा जिज्ञासु है तो शिक्षक उसे हतोत्साहित कर देते हैं. क्योंकि हर सवाल का एक जवाब है. जो सवाल को पूरा करता है. शिक्षा सवाल पूछना ही सिखाती है. और शिक्षक वो होता है जो सवाल का जवाब देता है या छात्र के साथ जवाब खोजता है. वो बच्चे को ये कहकर चुप नहीं कराता है कि चांद सफेद ही होता है. वो बच्चे के बोलने पर कि चांद गुलाबी भी हो सकता है नाराज़ नहीं होता है बल्कि उसकी बात को मानता है या उसके गलते होने पर उसे समझाता है.
विश्वास कीजिए जब तक हमारी शिक्षा व्यवस्था चांद को सफेद के साथ लाल होना नहीं स्वीकारती है तब तक चांद असलियत में सफेद नहीं हो पाएगा. क्योंकि शिक्षा वही है जो हर संभावना को स्वीकारती है. औऱ शिक्षक वही होता है जो अपने हर छात्र के काम के लिए ये कहे ‘ऐसा भी हो सकता है .
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)