सीएम के वादे के बावजूद भयावह है लोकतंत्र में बच्चों की आवाज का न सुना जाना
बड़ा सवाल यह है कि हमारी व्यवस्था में बच्चों की ओर से जब भी कोई आवाज आती है तो व्यवस्था को अचानक बहरेपन का रोग क्यों लग जाता है?
मध्यप्रदेश के बम्हौरी गांव के तकरीबन 1800 बच्चे अब हड़ताल करने से पहले सौ बार सोचेंगे! अगले सप्ताह जब वह अपने घर से परीक्षा केन्द्र तक आने-जाने के लिए 56 किलोमीटर का सफर तय करेंगे तो उनके मन में यह सवाल जरूर आएगा कि ‘आखिर उनके लंबे संघर्ष से हासिल क्या हुआ?’ उनकी आंखों के सामने किताबों में लिखी वह बातें भी जरूर ही आएंगी जिनमें भारत के दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का जिक्र होता है पर वास्तव में उनके लिए लोकतंत्र शब्द का अर्थ एक ऐसा सिस्टम होगा जो उनकी आवाज को बिलकुल भी नहीं सुनता. वह भी तब जब वह अपनी ताकत को एकजुट कर अपने दुख-दर्द को मुख्यमंत्री तक पहुंचा चुके हों और मुख्यमंत्री महोदय की ओर से उन्हें मांग पूरी करने का आश्वासन दिया गया हो, वह भी कलेक्टर महोदय के हस्ताक्षर से उस लैटरपैड पर जिसमें चार सिंह ‘शक्ति,’ ‘साहस’ और ‘जीत’ को बताते हैं और कहीं छोटे सुनहरे अक्षरों में ‘सत्यमेव जयते’ का घोष भी होता है.
अब से तकरीबन चार माह पहले छतरपुर जिले के एक छोटे से गांव बम्हौरी के तकरीबन 1800 बच्चों ने छह दिन लंबी हड़ताल करके चौंका दिया था. यह गांव सागर जिले से साठ किलोमीटर और जिला मुख्यालय से तकरीबन 150 किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ीनुमा क्षेत्र में बसा है. आसपास के तकरीबन बीस गांव के लिए यह बक्सवाहा ब्लॉक का एक महत्वपूर्ण गांव है जहां कक्षा एक से 12वीं तक के 1800 बच्चों के नाम दर्ज हैं. हैरानी की बात यह है कि इतनी बड़ी संख्या के बैठने के लिए यहां पर पर्याप्त भवन भी नहीं है. एक कक्ष में कई कक्षाओं को पढ़ाया जाता है. केवल कक्षा भर नहीं इतनी बड़ी संख्या को पढ़ाने के लिए यहां पर महज छह शिक्षक पदस्थ हैं. आप गणित लगा लीजिए कि कितने बच्चों को एक शिक्षक पढ़ाते होंगे. एक और संकट यह कि बोर्ड कक्षाओं दसवी और बारहवीं के लिए उन्हें यहां से तकरीबन 13 किलोमीटर का सफर तय करना होता है. वास्तव में 13 किमी तो स्कूल से है लेकिन छात्रों के घर से देखें तो इसकी दूरी ज्यादा होती है. जाहिर है ऐसे में कई विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है.
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इन परिस्थितियों से जूझने के लिए यदि विद्यार्थी ही सामने आए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. लगातार सप्ताह भर तक स्कूल पर ताला और स्कूल परिसर के बाहर चौबीसों घंटे का धरना लगातार छह दिन. जब लोकल मीडिया ने यह मुद्दा उठाया तो मामला गर्माया भी. प्रशासनिक व्यवस्था ने फौरी तौर पर परीक्षा केन्द्र को गांव में ही बनाए जाने का लिखित आश्वासन दिया. इसके बाद अपनी जीत मानकर इन 1800 बच्चों ने अपनी हड़ताल को समाप्त भी कर दी.
लेकिन जब दसवी और बारहवीं के बच्चों को परीक्षा के लिए प्रवेश पत्र मिले तो वह भौचक रह गए. इन प्रवेश पत्रों पर परीक्षा केन्द्र में उनके अपने गांव और स्कूल का नाम दर्ज नहीं था. ऐसा तब हुआ जब मुख्यमंत्री महोदय ने खुद कम से कम उनकी परीक्षा केन्द्र की फौरी मांग को स्वीकार किया था. वह भी तब जब शिक्षा राज्यमंत्री ने अखबार के संवाददाताओं को बयान देकर वादा किया था.
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सरकारी शिक्षा व्यवस्था की बदहाली पर तमाम अध्ययन जब-तब छपते रहते हैं. मीडिया के लिए भी सबसे आसान खबर तो यही है कि किसी भी कक्षा में जाकर बच्चों से कुछ सवाल पूछ लेना और यह स्थापना कर देना कि सरकारी स्कूल में तो बच्चों को कुछ भी नहीं आता. कई एजेंसियां और गैर-सरकारी संगठन भी इस बदहाली को हर साल किसी रस्म की तरह दिखाते आए हैं. सवाल यह है कि इसी व्यवस्था में बच्चों की ओर से कोई आवाज आती है तो व्यवस्था को अचानक बहरेपन का रोग क्यों लग जाता है. हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति हमारी अगली पीढ़ी क्या नजरिया बनाएगी? व्यवस्था के प्रति यह आक्रोश क्या बालमन में किसी ‘गलत सोच’ को बढ़ावा तो नहीं देगा? क्या हमें सोचना होगा कि हम बड़ों के समाज में बच्चों की आवाज कैसे, कब और कितनी सुनी जाएगी?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)