क्या भारतीय जनता पार्टी के लिए भूतपूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को श्रद्धांजलि देना जन समर्थन हासिल करने का नया मौका है? क्या वाजपेयी के नाम पर की जा रहीं घोषणाएं पार्टी की लोकप्रियता को प्रभावित कर सकती हैं?


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इसमें कोई शक नहीं है कि वाजपेयी देश के उन कुछ राजनीतिक नेताओं में हैं जिनकी लोकप्रियता दलों की सीमाओं से बंधी नहीं है. उनके सहज व्यक्तित्व, सबको साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति, देशहित को दल के हित से ऊपर रखने की सोच और ओजस्वी भाषा की वजह से आज हर उम्र के लोग उन्हें अपने दिल के करीब मानते हैं. जिस तरह देश भर में उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए लोग बड़ी संख्या में शामिल हुए वह कोई प्रायोजित कार्यक्रम नहीं था, और निश्चित तौर पर स्वतः प्रतिक्रिया थी.


स्वतंत्रता दिवस के एक दिन बाद घोषित उनके निधन के बाद से ही केंद्र और राज्यों में भाजपा या एनडीए की सरकारों में उन्हें श्रद्धांजलि देने, उनके नाम पर कार्यक्रम, योजनाएं या स्मारक बनाने की घोषणाएं लगातार हो रही हैं. उनकी अस्थियां देश भर में नदियों में प्रवाहित की गईं हैं. उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए वक्तव्यों में अटल को भारत और भारत को अटल के बराबर कहने की होड़ कुछ ऐसी ही लग रही है जैसी एक समय पर इंदिरा को इंडिया, और इंडिया को इंदिरा बताने की हुआ करती थी. अटल के नाम पर योजनाएं, स्मारक, मेडिकल कॉलेज, यूनिवर्सिटी, अन्य संस्थान, रेलगाड़ियाँ, बस सेवा आदि चलाने की घोषणाएं कई राज्यों में हो चुकी हैं. वैसे वर्तमान में भी अटल के नाम पर कई योजनाएं देश में चल रहीं हैं जिनमे प्रमुख हैं अटल पेंशन योजना और अमृत शहरी सुधार कार्यक्रम.


भाजपा नीतिगत तौर पर किसी व्यक्ति विशेष को ख़ास तौर पर वंशगत कारणों से महिमामंडित करने का विरोध करती रहती है, और यह तथ्य भी कई बार सार्वजनिक किया जा चुका है कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम पर देश में दर्जनों योजनाएं और संस्थान चल रहे हैं, हालांकि भाजपा की सरकार बनने के बाद कई पुरानी योजनाओं का नाम बदला जा चुका है.


लेकिन क्या अटल (और इससे पहले दीन दयाल उपाध्याय) के नाम पर योजनाओं और संस्थानों का नाम रख कर पूर्ववर्ती सरकारों की परम्परा को ही आगे बढाया जा रहा है? और इससे क्या इस बात की सम्भावना भी नहीं हो जाती कि भविष्य में किसी और पार्टी की सरकार बनने के बाद अटल और उपाध्याय के नाम की योजनाओं का नाम भी बदला जा सकता है? निश्चित तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता दीन दयाल उपाध्याय से


ज्यादा व्यापक है और भाजपा के लिए जहां उपाध्याय एक चिन्तक व नीति-निर्धारक के रूप में महत्वपूर्ण हैं, वहीँ अटल एक कुशल वक्ता और विशाल-हृदय वाले सफल प्रधान मंत्री के रूप में लोकप्रिय हैं. अटल के निधन के बाद से उनकी याद में कई योजनाओं की घोषणा की गई है, और यह केंद्र सरकार के लिए एक बड़ा मौका है कि आगामी योजनाओं और कार्यक्रमों को भी अटल के नाम पर ही शुरू किया जाए. इससे जहाँ भाजपा को अटल की वास्तविक श्रद्धांजलि देने का एक मौका तो मिलता ही है, दूसरी ओर लोगों की याद में अटल को पुनर्जीवित करने का और उसके बल पर समर्थन पाने का मौका भी मिलता ही है.


देश में पूर्व प्रधान मंत्री नेहरु, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के न रहने के बाद तत्कालीन कांग्रेस सरकारों ने उनके नाम का पूरा उपयोग करके उनके बल पर कांग्रेस को जनमानस में लोकप्रिय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, वहीँ कांग्रेस के ही अन्य प्रधान मंत्री नरसिम्हा राव व मनमोहन सिंह के नाम पर देश में कोई योजना नहीं है – अलबत्ता ब्रिटेन की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के सेंट जॉन कॉलेज में मनमोहन सिंह के नाम पर एक स्कालरशिप की योजना वर्ष 2008 से चल रही है.


जहां अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर की जा रही घोषणाओं के ऊपर अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ल ने रायपुर में दिए गए एक बयान में यह जरूर कहा है कि भाजपा वाजपेयी के नाम का इस्तेमाल राजनीतिक कारणों से कर रही है. उन्होंने तो अटल के अस्थि कलश यात्रा के देश-व्यापी आयोजन पर भी नाराज़गी जताई है. यह बात अलग है कि अस्थि कलश यात्रा में लोग लखनऊ व अन्य शहरों में ख़राब मौसम के बावजूद भी बड़ी संख्या में शामिल हुए, जो जनभावना का ही एक संकेत है. पूरे प्रकरण में अटल के नाम पर योजनाएं चलाये जाना एक पहलू है, लेकिन ज्यादा जरूरी यह है कि वर्तमान राजनीति पर अटल की छाप दिखाई दे. यही उनको याद रखने का अविस्मरणीय तरीका होगा. 


(रतनमणि लाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार है)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)