त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय के चुनाव नतीजों के बाद एक बड़ा सवाल उठता है- आखिर भारतीय जनता पार्टी ऐसा क्या कर रही है कि उसे ऐसे राज्यों में भी सफलता मिल रही है जहां उसका कोई जनाधार कुछ साल पहले तक नहीं था? क्या केवल हिन्दू समुदाय की आकांक्षाओं को जगाना ही उसकी सफलता का एकमात्र कारण है? या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किए गए वादे लोगों को इतना उत्साहित कर देते हैं कि वे केंद्र सरकार व पीएम मोदी के कामकाज में कमियों के बावजूद पार्टी को समर्थन देने से पीछे नहीं हटते?


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इन तीन राज्यों में भाजपा का प्रदर्शन जिस स्तर का है उससे यह तो साफ है कि इन सीमावर्ती और सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील राज्यों में पार्टी की सफलता के पीछे लंबा और गंभीर प्रयास है. त्रिपुरा में अपनी पहचान बनाने के लिए तो पार्टी ने कई राज्यों से लोगों के समूहों को कुछ-कुछ महीनों के लिए अगरतला में रहने और जनसंपर्क करने को भेजा था. इन लोगों में से कई भाजपा के पुराने सदस्य या कार्यकर्ता भी नहीं थे बल्कि वे सिर्फ पार्टी की विचारधारा से प्रभावित थे और अपनी पहल पर पार्टी के लिए कुछ योगदान करना चाहते थे. इनमें से कई सेवानिवृत्त अधिकारी, शिक्षक, व्यापारी आदि थे, और वे यह जानते हुए त्रिपुरा में जाकर रहने के लिए तैयार हुए थे कि वहां उत्तर या पश्चिम भारत के निवासियों को खान-पान व भाषा की दिक्कतें हो सकती थीं. 


इनमें से एक का कहना है कि उनसे सिर्फ यही अपेक्षा थी कि वे वहां लोगों से मिलेंगे, उनकी आकांक्षाओं के बारे जानेंगे और सरकार बदलने में उनकी रुचि टटोलेंगे. ऐसा लगता है कि यह पूरा प्रयास काफी हद तक सफल रहा है. त्रिपुरा में लंबे समय से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार थी जिसके पक्ष में यह कहा जा सकता है कि वह प्रदेश में उग्रवादियों को काबू में रहने में काफी हद तक सफल रही, भले ही उसकी वजह से प्रदेश में उद्योग, व्यापार, शिक्षा आदि के मोर्चे पर कोई उल्लेखनीय प्रगति न हुई हो. वहां की नई पीढ़ी और युवा वर्ग में मोदी से बड़ी अपेक्षाएं हैं और वे उम्मीद करते हैं कि भाजपा की सरकार बनाने के बाद उनके राज्य में कुछ न कुछ नया और बड़ा काम जरूर होगा. सीमापार बांग्लादेश से आने वाले अवैध प्रवासियों पर असंतोष, और मूल आदवासी व गैर-आदिवासी लोगों के बीच के विरोधों का भी लाभ भाजपा को मिला है. त्रिपुरा चुनाव की मतगणना के दौरान जिस तरह से उतार-चढ़ाव दिखे उससे से भी साफ है कि आदिवासी और गैर-आदिवासी इलाकों में मतदान में कितना अंतर था.


Opinion : नई सरकार के बीच नागालैंड के जरूरी सवाल


जहां तक नागालैंड और मेघालय का सवाल है, इन दोनों ही राज्यों में ईसाई वर्ग की बड़ी संख्या है और दोनों ही जगहों में इस समुदाय का वर्चस्व है. नागालैंड में तो चर्च से जुड़े संगठनों ने लोगों से अपील भी की थी कि वे भाजपा को समर्थन न दें. मेघालय में भी ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की गई थी कि भाजपा मूल रूप से हिन्दू पार्टी होने की वजह से ईसाई विरोधी है. 


कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी मेघालय में प्रचार के दौरान भाजपा को ईसाई-विरोधी बताया था. यदि इन प्रयासों के बावजूद नागालैंड व मेघालय में भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया है तो यह इस बात का संकेत है कि आम तौर पर लोगों ने धार्मिक आधार पर मतदान नहीं किया और अपने विवेक का उपयोग किया. इन दोनों ही राज्यों में स्थानीय तौर पर लोकप्रिय और मजबूत नेता ज्यादा मायने रखते हैं, भले ही वे किसी भी पार्टी में रहे हों. यही नहीं, यहां थोड़े विधायकों के साथ छोटी पार्टियां समय और लाभ के हिसाब से उस दल (या उन दलों) को समर्थन दे देती हैं 


जिससे सरकार बनाने में मदद मिले. भाजपा द्वारा भी यही किया गया. जिस तरह से कांग्रेस ने अपने दिग्गज नेताओं को नतीजे पूरे निकलने से पहले ही मेघालय भेजा उससे साफ है कि पार्टी मेघालय में पिछले साल मणिपुर और गोवा में की गई गलतियां नहीं दोहराना चाहेगी.


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कुल मिलाकर मोदी की लोकप्रियता और लोगों का उनके वादों पर विश्वास, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं द्वारा महीनों तक पृष्ठभूमि में किया गया काम, स्थानीय बनाम बाहरी का मुद्दा, विकास की चाहत, युवाओं की महत्वाकांक्षा, स्थानीय नेताओं को दिए गए आश्वासन और त्रिपुरा में वामदलों द्वारा अपने को बदलने में असफल रहना भाजपा के पक्ष में गया.


जहां तक अन्य दलों का सवाल है, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस सरकार के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है. उनके द्वारा भाजपा और केंद्र सरकार के खिलाफ इस्तमाल किए सभी मुद्दे त्रिपुरा पर भी लागू होते थे, लेकिन उसके बावजूद यदि त्रिपुरा के लोगों ने भाजपा को अपनाया है तो यह ममता के लिए स्पष्ट संकेत है की लंबे समय तक सत्ता में रहना इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि आगे भी सत्ता उनके हाथ में रहेगी. जिस तरह से ममता ने पश्चिम बंगाल में दशकों पुराने वाम दलों के शासन को उखाड़ फेंका था, ठीक वैसे ही भाजपा ने त्रिपुरा में दशकों से चल रहे वाम दल के शासन का अंत किया. वाम दलों के लिए यह उनके अस्तित्व पर सवाल उठाने वाले नतीजे हैं. अगले कुछ महीनों में होने वाले कर्नाटक चुनाव और इस साल के अंत तक संभवत: तीन राज्यों के चुनावों में अब भाजपा नए उत्साह के साथ उतरेगी, जबकि कांग्रेस के लिए यह एक बार फिर हताशा और निराशा का समय है. राहुल गांधी के नेतृत्त्व और प्रचार को गुजरात के नतीजों में जिस तरह से प्रशंसा मिली थी, अब उस पर फिर सवाल उठेंगे.


(लेखक रतन मणि लाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार है)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)