इमरान खान की सीमाएं
इमरान खान भारत से अच्छे रिश्तों की कामना भले ही प्रकट करते हों, लेकिन अपनी पहली ही टिप्पणी में उन्होंने पाकिस्तानी सेना के दृष्टिकोण को ही आगे बढ़ाया है, जो कश्मीर में जेहादी आतंकवाद को बढ़ावा दे रही है.
कहां देश को पूर्व क्रिकेटर और अब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की संभावित भारत नीति पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए था, लेकिन देश पूर्व क्रिकेटर और अब पंजाब में कांग्रेसी सरकार के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की पाकिस्तान यात्रा के कारण एक अनावश्यक विवाद में उलझ गया है. यह इमरान खान की भारत नीति की पहली झलक है, जिसमें भारतीय आपस में ही विभाजित हो गए हैं. इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में पीओके के राष्ट्रपति मसूद खान के बगल में सिद्धू को बैठाना, सिद्धू के पास मिलने के लिए पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा का आना एवं करतारपुर साहिब यात्रा के लिए पाक सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों के बारे में बताना और भारत में सिद्धू द्वारा सफाई पेश करने के बाद इमरान खान का उनके पक्ष में उतरना एक रणनीति का हिस्सा प्रतीत होता है.
इसके बावजूद अगर सिद्धू और कांग्रेस को ऐसा लगता है कि इमरान खान के नेतृत्व में पाकिस्तान शांति का अग्रदूत बन जाएगा, तो यह जमीनी यथार्थ को नकारना है. क्या इमरान खान के नेतृत्व में पाकिस्तान बदल जाएगा? क्या उसकी भारत नीति भी बदल जाएगी?
पाकिस्तान की राजनीति में इमरान खान का अभ्युदय उनकी किसी बहादुराना कृत्य का नतीजा नहीं है, इसकी पटकथा पाकिस्तानी सेना ने लिखी है. बेशक पाकिस्तान की जनता शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) और भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की जगह किसी नए नेतृत्व को लाना चाहती थी, लेकिन इन पारंपरिक दलों को हाशिये पर धकेलने के लिए सेना ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. नवाज शरीफ के वोट में सेंध लगाने के लिए सेना ने जमात-उद-दावा और सिपाह-ए-शहाबा जैसे जेहादी संगठनों को चुनावी मैदान में उतार दिया. यही नहीं, बरेलवी मुसलमानों को भी नवाज शरीफ के खिलाफ खड़ा करने का प्रयास किया गया. इस प्रक्रिया में पाकिस्तान के उच्चतम न्यायालय और चुनाव आयोग की भूमिका भी संदेह के दायरे में आ गई.
साफ है कि इमरान खान सत्ता में तभी तक रह पाएंगे, जब तक वे सेना की मर्जी के खिलाफ नहीं जाते. जिस दिन वे लक्ष्मण रेखा पार कर देंगे, उसी दिन सेना उनसे मुंह फेर लेगी. सेना की सत्ता को चुनौती देने वाले नवाज शरीफ का हश्र इमरान खान को अच्छी तरह पता है, जिन्हें दो बार सेना के कारण सत्ता से बाहर जाना पड़ा . इमरान खान ऐसा कोई खतरा जल्दी मोल लेना नहीं चाहेंगे, जिससे उनकी कुर्सी खतरे में पड़ जाए. ऐसे में कोई इमरान खान से यह उम्मीद लगाता है कि वे पाकिस्तान की राजनीति में नयापन ला देंगे, तो वह भ्रम में है. सत्ता का स्वाद चख चुकी पाकिस्तानी सेना इमरान खान को घरेलू मामलों में कुछ छूट दे सकती है, लेकिन विदेश नीति, खासकर भारत और अफगानिस्तान के बारे में ऐसा मानना कठिन है, क्योंकि यहां आतंकवाद और छद्म युद्ध भी उसका हिस्सा हैं.
इमरान खान भारत से अच्छे रिश्तों की कामना भले ही प्रकट करते हों, लेकिन अपनी पहली ही टिप्पणी में उन्होंने पाकिस्तानी सेना के दृष्टिकोण को ही आगे बढ़ाया है, जो कश्मीर में जेहादी आतंकवाद को बढ़ावा दे रही है. पाक प्रायोजित आतंकवाद को रोकने पर उन्होंने एक शब्द नहीं बोला, जिसकी भारत अपेक्षा करता रहा है. इस लिहाज से मुंबई और पठानकोट हमले के दोषियों को सजा दिलाने के लिए इमरान सरकार की पहल पर सबकी नजर होगी. इसके पहले ही इमरान के शपथ ग्रहण समारोह में जनरल बाजवा ने सिद्धू के जरिये यह संकेत दे दिया कि पाकिस्तान का असली बॉस वही है.
इतना ही नहीं, पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई खालिस्तानी तत्वों को हवा देने का काम कर रही है, ताकि एक बार फिर पंजाब को अशांत किया जा सके. इसलिए ‘तालिबान खान’ के नाम से जाने वाले इमरान खान की बातों पर विश्वास करना कठिन है. उनकी राजनीतिक अनुभवहीनता भी उन्हें पाकिस्तानी सेना के प्रभाव से बाहर निकलने में बाधक बनेगी. भ्रष्टाचार के नाम पर पीएमएल-एन और पीपीपी के खिलाफ उनके अभियान से सेना का ही हाथ मजबूत होगा. चूंकि उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ को पाकिस्तान की नेशनल एसेंबली में स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं है, इसलिए विपक्ष की उठती आवाज को दबाने के लिए वे भारत विरोधी बयानबाजी पर भी उतर सकते हैं. पाकिस्तान की सिविल सोसायटी इतनी मजबूत नहीं है कि वह सेना के नजरिये को प्रभावित कर भारत-पाक रिश्तों में सकारात्मक बदलाव की भूमिका तैयार कर सके.
पाकिस्तानी सत्ता और राजनीति की प्रकृति ऐसी है कि प्रधानमंत्री इमरान खान से भारत-पाक रिश्तों में रचनात्मक बदलाव की उम्मीद करना बेमानी है. दूसरी ओर भारत में अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर मोदी सरकार भारत-पाक वार्ता के लिए कोई गंभीर पहल करने का खतरा मोल लेना नहीं चाहेगी. लेकिन भारत की राजनीतिक परिस्थिति पाकिस्तान को राजनीति करने से नहीं रोक सकती. संभव है वह बहुत चालाकी से संबंध सुधार के कुछ प्रस्ताव करके पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका को यह दिखाने का प्रयास करे कि वाकई भारत इस दिशा में रुचि नहीं रखता.
भारत-पाक वार्ता तभी संभव है, जब पाकिस्तान की तरफ से सार्वजनिक रूप से सीमा पार आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई के लिए प्रतिबद्धता सामने आए. अगर दोनों देशों के बीच वार्ता होती है, तो अतीत के प्रयासों के मद्देजनर इससे ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती. कोई आश्चर्य नहीं कि पाकिस्तानी सेना कुछ ऐसा कदम उठा दे, जिससे दोनों देशों के रिश्ते और खराब हो जाएं. कश्मीर में जेहादी आतंकवाद के कारण समस्या पहले से काफी जटिल हो चुकी है. इसलिए पाकिस्तान से वार्ता से ज्यादा कश्मीर में जेहाद का उन्मूलन जरूरी है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)