हर साल 2 करोड़ की रफ्तार से बढ़ती आबादी वाले देश में रोजगार का मुद्दा बना रहना स्वाभाविक है. लेकिन बेरोजगारी से निपटने के लिए कोई पद्धतिबद्ध नीति अभी तक बनी नहीं दिखती. नीति तो बाद की चीज़ है बेरोज़गारी के आंकड़े तक हमारे पास नहीं हैं. कोई भी नीति या कार्यक्रम बनाने के लिए सबसे पहले संबधित आंकड़ो की जरूरत होती है. आलम यह है कि कुछ समय पहले ही बेरोजगारी के सही आंकड़े न होने की बात नीति आयोग उपाध्यक्ष कबूल कर चुके हैं. हालांकि इसी बीच वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम की इस साल की ‘फ्यूचर ऑफ जॉब्स’ रिपोर्ट आ गई है.


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वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम हर साल विश्व में रोजगार के भविष्य पर एक रिपोर्ट जारी करता है. इसमें आने वाले समय में रोजगार की संभावनाओं और चुनौतियों का लेखा जोखा दिया जाता है. अलग अलग देशों के संदर्भ में भी भविष्य में रोजगार की स्थितियों का अनुमान इस रिपोर्ट में शामिल है. यह अनुमान कई क्षेत्रों की कंपनियों के सर्वेक्षण से मिले तथ्यों पर आधारित होते हैं. सन 2018 की रिपोर्ट के लिए 20 विकसित और विकासशील देशों की करीब डेढ़ करोड़ कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करने वाली कंपनियों का सर्वेक्षण किया गया है.


इस रिपोर्ट का मुख्य बिंदु यह है कि 2025 तक बारह मुख्य औद्योगिक क्षेत्रों में मानव संचालित कार्यों की तुलना में मशीनों का वर्चस्व बढ़ जाएगा. मैन्युफैक्चरिंग, सर्विसेज और हाई टेक जैसे इन बारह क्षेत्रों में अभी तक 71 फीसद काम मानव संचालित हैं. रिपोर्ट के मुताबिक 2025 तक सिर्फ 48 फीसद कार्य मानव कर रहे होंगे और बाकी का 52 फीसद काम मशीनें कर रही होंगी. भयावह बेरोज़गारी से ग्रस्त भारत जैसे देश के लिए क्या इस अंदेशे पर गौर नहीं होना चाहिए.


मशीनीकरण से उपजने वाली चुनौतियां
एक अनुमान है की विश्व की करीब आधी कंपनियां अगले 4 साल में अपने कार्यबल में कटौती कर मशीनीकरण की तरफ कदम उठा चुकी होंगी. इन्टरनेट, आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस, रोबोट्स, क्लाउड टेक्नोलॉजी जैसी नई प्रौद्योगिकी से आने वाले समय में मशीनीकरण को ताबड़तोड़ बढ़ावा मिलेगा, हालांकि वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम की रिपोर्ट इस नए मशीनीकरण के दौर में नए रोजगार सृजन की संभावनाएं भी बता रही है. सवाल यह है कि मशीनीकरण से नए रोज़गार कैसे पैदा होंगे? मशीनें जितने रोज़गार घटाएंगी क्या उतने रोज़गार की भरपाई इन नए रोेज़गारों से संभव है? खासकर भारत जैसे देश में जहां दस फीसद से ज्यादा पूर्ण बेरोजगार और उससे दुगने आंशिक बेरोजगार पहले से हों, और उन्हें काम पर लगाने की दूर दूर तक कोई संभावना न दिखती हो वहां चलती हुई नौकरियां खत्म करके नए मौके पैदा करने की बात अटपटी लगती है.


नए प्रकार के कौशल की जरूरत पड़ेगी
वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम की रिपोर्ट में कहा गया है कि मशीनीकरण से नए रोजगार की संभावनाओं का फायदा तभी उठाना संभव हो पाएगा जब बड़े स्तर पर तकनीकी रूप से कार्यबल की रीस्किल्लिंग यानी उन्हें नया कौशल दिया जाए. भारत के सन्दर्भ में कहा गया है की 2022 तक करीब 54 फीसद भारतीय नौकरीपेशा कर्मचारियों को रीस्किलिंग की जरुरत है. इसका मतलब है कि इस समय जो लोग रोज़गार पाए हैं उन्हें नए प्रकार का कौशल देना होगा. रिपोर्ट के मुताबिक मशीनीकरण से जितनी नौकरियां खत्म होंगी उससे ज्यादा नौकरियों के सृजन की संभावनाएं भी बन सकती हैं, बशर्ते मानव संचालित कार्यों से मशीनीकरण में बदलाव की प्रक्रिया देखरेख और पहले से रणनीति बना कर पूरी की जाए. अभी से अपने मानव संसाधनों को नए मशीनीकरण के युग के लिए तैयार करना शुरू करना पड़ेगा. अगर ऐसा न हुआ तो मशीनीकरण के हानिकारक प्रभाव भी झेलने पड़ सकते हैं. लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. पुरानी नौकरियों के खत्म होने की भरपाई करने की योजना पहले बननी चाहिए. रिपोर्ट के अनुमान के अनुसार करीब साढ़े सात करोड़ नौकरियां मशीनीकरण से खत्म हो सकती हैं. जबकि करीब सवा तेरह करोड़ नयी नौकरियों के सृजन की संभावनाएं बन सकती हैं. लेकिन हमें यह पता नहीं है कि इस अनुमान में हम कहां हैं? यह आंकड़े जिस भी प्रक्रिया से निकाले गए हों लेकिन भारत के सन्दर्भ में इतने बड़े स्तर पर मशीनीकरण की बात कुछ विश्लेषण की मांग जरूर करती है.


अपने मूल लक्ष्य को याद करने का समय
भारतीय अर्थव्यवस्था आजादी के बाद से ही मिश्रित अर्थव्यवस्था रही है. आजादी के बाद हमने पूंजीवादी और समाजवादी व्यवस्थाओं का मध्य मार्ग चुना था. जिसमें आर्थिक वृद्धि के साथ मानव कल्याण भी सुनिश्चित रह सके. मशीनीकरण बेशक पूंजी के हित में मुनाफा तो सुनिश्चित कर सकता है लेकिन उसी अनुपात में रोज़गार सृजन जैसा कल्याणकारी कार्य कैसे होगा? विकास का लाभ उपर से बहकर नीचे आने का सिद्धांत सवालों के घेरे में है. लिहाज़ा ये बातें अभी से सोचकर रख लेना चाहिए.


भारत में 54 फीसद कार्यबल की रीस्किल्लिंग के मायने
कई सालों से देश में कई कौशल विकास योजनाएं चल रही हैं. इनका मकसद देश में हुनरमंद युवा तैयार करना है. ताकि वे आसानी से रोजगार पा सकें. लेकिन कई सर्वेक्षण रिपोर्ट से पता चलता है की इन योजनाओं का वांछित परिणाम अभी तक मिल नहीं पाया है. जहाँ देश में बेरोजगारों की फौज खड़ी है वहीँ दूसरी ओर उद्योग जगत और अनियमित क्षेत्र के कई नौकरीदाता अनुकूल कर्मचारी ना मिलने से परेशान हैं. डिग्री होल्डर और एंप्लाॅएबल उम्मीदवार के बीच का फर्क भी आड़े आ रहा है. जब हम बेरोज़गारों को ही पूरी तरह से नौकरी पाने लायक प्रशिक्षण नहीं दे पा रहे हैं तो इतनी बड़ी संक्ष्या में पहले से नौकरी कर रहे व्यकितयों को कैसे प्रशिक्षण दे सकेंगे?


अपने यहां मशीनीकरण के खर्च का हिसाब
अभी इसका कोई हिसाब है ही नहीं कि मशीनों का क्या खर्चा बैठता है और उसके बाद मशीनों को चलाने के लिए कुशल मानव संसाधनों के विकास पर होने वाले खर्च का क्या हिसाब है? हां इतना जरूर पता है कि कौशल विकास पर अच्छी खासी रकम खर्च करने के बाद अब दिक्कत यह आ रही है कि इन कुशल युवाओं को लगाएं कहां? काम पैदा करने के लिए विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में विकास की योजनाएं चाहिए. इसके लिए लाखों करोड़ रूपए का इंतजाम चााहिए.


बात विषय से ज़रा हटकर जरूर है लेकिन यह तथ्य भी सामने रख लेना चाहिए कि हम घरेलू खपत बढ़ाने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं और निर्यात बढ़ाने की गुंजाइश बिल्कुल भी नहीं बना पा रहे हैं. यह तथ्य हमें अपने व्यापार घाटे से मिल रहा है. तथ्यविहीनता यानी आंकड़ों के उपलब्ध नहीं होने के बावजूद अगर प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर मान लिया जाए कि बेरोज़गारी देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती है तो मशीनीकरण के नफे नुकसान पर बारीकी से सोच लेना जरूरी है.


(लेखिका, मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)