ईवीएम हैकिंग का हॉरर शो और लाचार चुनाव आयोग
ईवीएम, सोशल मीडिया और इंटरनेट का भारत में व्यापक इस्तेमाल होने लगा है, पर इनकी लगाम तो अमेरिका और यूरोप के हाथ में ही है.
ब्रिटेन और अमेरिका से भारत ने वर्तमान संसदीय लोकतंत्र की पद्धति को अपनाया और अब वहीं से अपने लोकतंत्र को सबसे बड़ी चुनौती मिल रही है. इंडियन जर्नलिस्ट एसोशियेशन नाम की संस्था द्वारा लन्दन में आयोजित प्रेस कांफ्रेस को सैयद शुजा नाम के शख्स ने स्काइप के माध्यम से अमेरिका से सम्बोधित करके भारत में राजनीतिक भूचाल ला दिया. राजनीतिक दलों के खेल में सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट और अब चुनाव आयोग की संस्था पर सवाल खड़े होने से लोकतंत्र की पूरी व्यवस्था ही अब कठघरे में आ गयी है.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा वीवीपैट के आदेश के बावजूद संशय क्यों
2009 के चुनावों में यूपीए की जीत के बाद जीवीएल नरसिम्हा राव ने अपनी पुस्तक में ईवीएम पर गम्भीर सवाल उठाये, जिन्हें भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी अनुमोदित किया था. जीवीएल अब सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के प्रवक्ता हैं. भाजपा सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी की पीआईएल पर सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में ईवीएम के साथ पर्ची यानि वीवीपैट के सिस्टम को जरूरी बनाने का आदेश दिया था. 2014 के पिछले आम चुनावों में वीवीपैट का सैम्पल इस्तेमाल हुआ और आगामी 2019 के चुनावों में सभी ईवीएम मशीनों में वीवीपैट सिस्टम लगाने की योजना है. उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने जून 2017 के फैसले से ईवीएम की आलोचना पर रोक लगा दी थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने दिसम्बर 2018 में खारिज कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट द्वारा ईवीएम पर अनेक विरोधाभासी आदेश पारित किये गये हैं, जिसकी वजह से ऐसे हॉरर शो सनसनी फैलाने में कामयाब हो जाते हैं.
ईवीएम हैकिंग पर कांग्रेस जवाब दे
शुजा के अनुसार 2014 के आम चुनावों में भाजपा के आईटी सेल ने एक ऐसे माडूलर के जरिये ईवीएम को हैक किया था जो मिलिट्री ग्रेड फ्रिक्वेंसी को ट्रांसमिट करता है. सनसनीखेज अनेक आरोपों को पुष्ट करने के लिए शुजा ने कोई प्रमाण नहीं दिये. शुजा ने रिलायंस जियो द्वारा 2014 में ईवीएम हैकिंग के आरोप लगाये हैं जबकि इस कम्पनी का गठन ही सितम्बर 2016 में हुआ था. शुजा के आरोपों के बाद भाजपा, कांग्रेस, आप, सपा, बसपा समेत सभी राजनीतिक दल संदेह के दायरे में आ गये हैं.
मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस सम्पत को कांग्रेस की यूपीए सरकार ने नियुक्त किया था, जिनके दौर में ईवीएम हैंकिंग की बात हो रही है. ईवीएम मशीनों के निर्माण करने वाले सरकारी संस्थान इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया लिमिटेड (ईसीआईएल) में काम करने का दावा करने वाला शुजा के दौर में कांग्रेस और यूपीए की सरकार थी. लन्दन में हैकथॉन में उपस्थित कपिल सिब्बल 2014 के आम चुनावों के दौर में आईटी मंत्री थे. ईवीएम में इतने बड़े पैमाने पर हैकिंग के लिए चुनाव आयोग के साथ सरकार की भी मिलीभगत जरुरी है. लेकिन 2009 और 2014 के आम चुनावों में यदि कोई गड़बड़ी हुई है तो उसकी जवाबदेही कांग्रेस और यूपीए के नेताओं को ही लेनी होगी.
चुनाव आयोग लाचार क्यों
जेएनयू में नारे लगाने के आरोपी छात्र नेता कन्हैया कुमार के ऊपर राजद्रोह की लम्बी चौड़ी चार्जशीट ठोंक दी गई. पर इस मामले में चुनाव आयोग आईपीसी की धारा 505 (1-बी) के तहत एफआईआर की खानापूर्ति करके मामले को रफा-दफा करना चाह रही है. लन्दन की प्रेस कांफ्रेंस में केन्द्रीय मंत्री मुंडे और एनआईए अधिकारी तंजीम की हत्या समेत लोकतंत्र को हैक करने के गम्भीर आरोपियों पर भी टाडा और राजद्रोह के तहत कार्रवाई क्यों नहीं होती? चोकसी ने भारत की नागरिकता छोड़ दी, माल्या ने भारतीय न्यायिक व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिये और शुजा खुद को राजनीतिक शरणार्थी बताता है. ऐसे ही कानूनी सिस्टम के दौर में शेषन ने चुनाव आयोग को लोकतंत्र के संरक्षक के तौर पर स्थापित कर दिया था. ऐसे वाकयों पर लचर प्रतिक्रिया से, चुनाव आयोग लोकतंत्र के संरक्षक की भूमिका निभाने में विफल रहा है.
भारतीय चुनावों में बढ़ता विदेशी हस्तक्षेप
भारतीय चुनावों को सोशल मीडिया के माध्यम से प्रभावित करने के लिए दोषी फेसबुक- कैम्ब्रिज एनालिटिका के गंभीर मामले को सीबीआई के हवाले करके सरकार शान्त हो गई. चुनावी वोटबैंक के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव करके विदेशों में रह रहे भारतीयों को पावर ऑफ अटार्नी के माध्यम से मतदान करने का अधिकार तो सरकार ने दे दिया. परन्तु उसके दुरुपयोग को रोकने के लिए जरूरी प्रावधान क्यों नहीं किये? चुनाव आयोग और सरकार भविष्य में इंटरनेट के माध्यम से ऑनलाइन वोटिंग पर विचार कर रही हैं. ईवीएम, सोशल मीडिया और इंटरनेट का भारत में व्यापक इस्तेमाल होने लगा है, पर इनकी लगाम तो अमेरिका और यूरोप के हाथ में ही है. सरकार और चुनाव आयोग द्वारा शुजा के आरोपों पर पारदर्शी तरीके से ठोस कार्रवाई यदि नहीं हुई, तो भारतीय लोकतंत्र, हॉरर शो ही बन जायेगा.
(लेखक विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)