2006 में जब एक ऐतिहासिक कानून सामने आया उस वक्त जेहन में यह बिलकुल भी नहीं आया था कि कुछ सालों बाद यही कानून देश के 17 राज्यों के दस लाख परिवारों की बेदखली का कारण भी बनेगा. सुप्रीम कोर्ट ने जिन दलीलों को स्वीकार करते हुए अगली सुनवाई तक बेदखली का फरमान जारी कर दिया क्या वह प्राकृतिक न्याय और सहजीवन के सिद्धांतों के विरूद्ध नहीं है. क्या इस निर्णय को सुनाने से पहले यह तय कर लिया गया कि इस कानून की मंशा का पूरी तरह से पूरा-पूरा पालन कर लिया गया है या प्रावधानों के पेंच में फंसकर यह कानून आधा-अधूरा ही लागू हो पाया है. क्या इस बात की समीक्षा की गई कि बड़े पैमाने पर आखिर क्यों वनाधिकार के दावे निरस्त किए गए.


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भारत में आदिवासियों और अन्य वन निवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अधिकारों की सुरक्षा के मद्देनज़र भारत की संसद ने अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम – 2006 लागू किया गया. यह क़ानून कहता है कि एक निश्चित तारीख के पहले वन भूमि पर कब्ज़ा करके खेती करने वाले आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों को मान्यता दी जाएगी. क़ानून कहता है कि ‘औपनिवेशिक काल के दौरान तथा स्वतंत्र भारत में राज्य वनों को समेकित करते समय उनकी पैतृक भूमि पर वन अधिकारों और उनके निवास को पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी गई थी, जिसके परिणाम स्वरुप वन में निवास करने वाली उन अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के प्रति ऐतिहासिक अन्याय हुआ है, जो वन पारिस्थितिकी प्रणाली को बचाने और बनाए रखने के लिए अभिन्न अंग हैं;” इस कानून में पूर्व में हुए ऐतिहासिक अन्याय को स्वीकार किया गया, लेकिन इसी कानून के संदर्भ में एक और ऐतिहासिक अन्याय देश के सामने आ खड़ा हुआ है.


13 फरवरी 2019 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय की तीन जजों की पीठ ने वन अधिकार कानून 2006 को चुनौती देने 2008 में दायर की गयी एक याचिका (याचिका क्रमांक 109) और विभिन्न उच्च न्यायालयों में दायर की गयी याचिकाओं में एकतरफा आदेश जारी किया है. यह याचिकाएं मुख्य रूप से वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया मार्फत प्रवीण भार्गव (बैंगलुरु, कर्नाटक) नेचर कंजर्वेशन सोसायटी मार्फत किशोर रीठे (अमरावती, महाराष्ट्र), टाईगर रिसर्च कंजर्वेशन ट्रस्ट कंसर्वेशन मार्फत हर्षवर्धन धानवाटे, नागपुर (महाराष्ट्र) ने लगाईं थीं.


इसमें सबसे बड़ा अन्याय यह हुआ है कि देशभर में मार्च 2018 तक की स्थिति में तकरीबन 41, 96, 880 दावों में से 19,34,137 दावों को निरस्त कर दिया गया है. अकेले मध्यप्रदेश राज्य में तकरीबन 59 प्रतिशत दावों को अमान्य किया जा चुका है. इनमें से ज्यादा दावे गैरआदिवासी परंपरागत रूप से जंगलों में रहने वाले लोगों के थे, जिन्हें तीन पीढ़ी का प्रमाणपत्र अपने अधिकारों के लिए प्रस्तुत करना था. बड़ी बात यह रही कि इन दावों को निरस्त करने के बाद ऐसे लोगों को अपील का भी कोई अधिकार नहीं दिया गया. उन्हें अतिक्रमणकारी माना गया और अब उन्हें एक झटके में जंगलों केा खाली करवाने का आदेश भी हो गया.


पर इस आदेश की पृष्ठभूमि में क्या यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि जिन लोगों को अतिक्रमणकारी ठहराकर अपने परंपरागत निवासों से बेदखल किया जा रहा है उनके बाप-दादे तब से इन जंगलों में रह-रहे हैं जबकि वन विभाग और वन कानून नाम की कोई चीज भी नहीं थी. उन्होंने सदियों से इन जंगलों को बचाए रखा है. और यदि वह वन और वन्यजीवों के सबसे बड़े शत्रु होते तो यह जंगल तो अब तक खत्म ही हो गए होते. कुछ वक्त इस बात के लिए भी निकाला जाना चाहिए कि दरअसल जंगलों की संपदा को खाली किसने किया, क्या आदिवासियों को जंगलों से बाहर करके वहां पर टूरिज्म और ऐसी ही गतिविधियों को बढ़ावा देना जंगलों के साथ न्याय है. जंगलों के असली गुनहगार कौन हैं.


मामला छोटा-मोटा नहीं है. दस लाख परिवारों का है. अतिक्रमणकारी बताए गए इन परिवारों को जंगलों से बेदखल करके, कहां व्यवस्था की जाएगी, क्योंकि वह केवल उनके लिए रहवास ही नहीं, आजीविका और खाद्य सुरक्षा का भी जरिया है. जंगल के आश्रित लोग जंगलों से प्राप्त वनोपज पर निर्भर हैं. इतनी बड़ी संख्या में जंगल के लोग वहां से निकलकर शहरों में आएंगे तो उनका भी क्या होगा और शहरों का भी क्या होगा. यह दोनों ही तबके एकदूसरे से भिन्न स्वभाव वाले हैं, लेकिन इस पर कोई चर्चा नहीं है.


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)