आखिर किसने छीन लिया है घरेलू क्रिकेट का सुख-चैन
जिस देश का घरेलू क्रिकेट लोकप्रियता के मामले में बेहाल हो रहा हो, उस देश का क्रिकेट आगे जाकर नीचे जरूर गिरेगा.
नई दिल्ली: कुछ लोग भले ही क्रिकेट की कितनी ही आलोचना करें, पर यह बात निर्विवाद है कि यह खेल भारत के जनमानस में गइराई से बस गया है. क्रिकेट के प्रति जुनून थम ही नहीं रहा है. गांव-गांव, शहर-शहर, स्कूल-कॉलेज, खेत-खलिहानों में काम कर रहे पगड़ीधारी किसानों, चौके-चूल्हे के पास काम करती महिलाओं या फिर किसी भी तरह के काम कर रहे कामगारों में क्रिकेट नाम का ‘पागलपन’ बढ़ता ही जा रहा है. कई लोगों ने तो क्रिकेट खेल पर यह इल्जाम लगाना शुरू कर दिया है कि क्रिकेट की लोकप्रियता अन्य खेलों के अस्तित्व को ही निगल रही है. सामाजिक ताने-बाने में भी शोहरत, ग्लैमर व रुपयों की दृष्टि से क्रिकेट खेल अन्य खेलों से बहुत आगे है. यही कारण है कि भारत टेस्ट क्रिकेट व वनडे क्रिकेट में भी विश्व में टॉप पर बना हुआ है. इसका कारण यह भी है कि लोकप्रियता से उत्पन्न हुई अपार धनराशि को क्रिकेट खेल व खिलाड़ियों के हितों में ही निरंतरता के साथ खपाया जा रहा है. आईपीएल जैसे टूर्नामेंटों ने खिलाड़ियों को व्यावसायिक रूप से दौलतमंद बना ही दिया है, युवा पीढ़ी को भी कैरियर की तरह अपनाने के लिए प्रेरित किया है.
हर चीज की अति बुरी होती है. पहले क्रिकेट अन्य खेलों की लोकप्रियता को खा रहा था. अब क्रिकेट का एक प्रारूप इसके ही दूसरे प्रारूपों को लोकप्रियता व व्यावसायिक महत्व की दृष्टि से खा रहा है. अब टी20 खेल, एकदिवसीय क्रिकेट व टेस्ट क्रिकेट को नीचा दिखा रहा है. अब अगर खेल के लंबे प्रारूप की रक्षा करना है, तो घरेलू क्रिकेट की रणजी ट्रॉफी प्रतियोगिता को व्यवस्थित रूप से लोकप्रियता के पैमाने पर सफल बनाना होगा. इंग्लैंड व ऑस्ट्रेलिया में हम देखते हैं कि घरेलू क्रिकेट के प्रति दर्शकों का स्वाभिमान जुड़ा रहता है. इंग्लैंड में काउंटी क्रिकेट की प्रतियोगिता में उतने ही दर्शक जुटते हैं, जितने की अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में. इसके कारणों की खोज की जानी चाहिए. हमारे यहां रणजी ट्रॉफी क्रिकेट में खिलाड़ियों के परिवार वाले लोग भी दिखाई नहीं देते हैं. 50 हजार दर्शकों की क्षमता वाले स्टेडियम में अगर 50 लोग भी नहीं आ रहे हैं तो सोचना पड़ेगा कि गड़बड़ी कहां पर है?
मैंने अभी रणजी ट्रॉफी के अधिकांश मैचों की कमेंट्री की है. दर्शकों के निरंतर व समान रूप से पड़ते टोटे ने मुझे हतप्रभ कर दिया. एक जमाना था, जब रणजी ट्रॉफी मुकाबलों को देखने के लिए 30-35 हजार दर्शक आते थे. अपने प्रदेश की टीम के प्रदर्शन को देखना गौरव और स्वाभिमान की बात मानी जाती थी. आईसीसी प्रमुख शशांक मनोहर ने एक गंभीर वक्तव्य दिया है. उन्होंने स्पष्ट कहा कि टेस्ट क्रिकेट का प्रारूप खतरे में पड़ गया है. इंग्लैंड व ऑस्ट्रेलिया को छोड़कर किसी भी अन्य देश में टेस्ट क्रिकेट देखने के लिए दर्शक नहीं आ रहे हैं. जब टेस्ट क्रिकेट की यह हालत है तो रणजी ट्रॉफी के घरेलू क्रिकेट की क्या बिसात?
सोचने का विषय यह है कि ऐसे हालात क्यों बने? साफ बात है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के टी20 क्रिकेट व अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के अन्य प्रारूपों की अधिकता ने घरेलू क्रिकेट का सुख-चैन छीन लिया है. पहले साल में एक सीरीज होती थी और दर्शका उसका इंतजार करते थे. क्रिकेट देखने की चाहत में रणजी ट्रॉफी के सितारों के प्रदर्शन को देखने में भी मजा आता था. अब जब दुनिया के बड़े सितारों को साल के 9 महीने टीवी पर या रूबरू देख सकते हों, तो घरेलू क्रिकेट के सितारों को कौन देखेगा. इसीलिए सौराष्ट्र और विदर्भ के बीच रणजी ट्रॉफी फाइनल मुकाबले का रोमांच बहुत कम लोगों ने देखा. ऐसा लग ही नहीं रहा था कि घरेलू क्रिकेट की दो सबसे ताकतवर टीमों के बीच फाइनल मुकाबला हो रहा हो.
प्रश्न यह भी उठता है कि इंग्लैंड में घरेलू काउंटी क्रिकेट इतना लोकप्रिय क्यों है? इसका उत्तर यही है कि इंग्लैंड एंड वेल्स क्रिकेट बोर्ड (ईसीबी) को अपने घरेलू क्रिकेट से प्यार है. वे अपने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट का कार्यक्रम इस तरह तय करते हैं कि घरेलू क्रिकेट के महत्वपूर्ण मुकाबलों के वक्त अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैचों का घालमेल ना हो. यह नहीं भूलना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्तर की प्रतिभाएं घरेलू क्रिकेट से ही निकलकर आती हैं. अत: जिस देश का घरेलू क्रिकेट लोकप्रियता के मामले में बेहाल हो रहा हो, उस देश का क्रिकेट आगे जाकर नीचे जरूर गिरेगा.
आईसीसी प्रमुख शशांक मनोहर भी अगर यह मान रहे हैं कि असली क्रिकेट, यानी टेस्ट क्रिकेट खतरे में है, तो फिर कोई इसे बचाने के लिए कुछ क्यों नहीं कर रहा है? क्या रुपयों-पैसों की खनक असली क्रिकेट की अस्मिता पर भारी पड़ गई है.