हम हार गए. घनघोर निराशा. क्रिकेट के लिए जीने वाले देश की निराशा का क्या कहना. मैं कहूंगा कि रवींद्र जडेजा अच्छा खेले, बूढ़े धोनी ने भी हाथ दिखाए. लेकिन दिल कहेगा, तसल्ली किसे देते हो. सच तो यह है कि हम हार गए. हारे ही नहीं बुरी तरह हारे. हम मैच शुरू होते ही हार गए थे. उसके बाद तो हम हारी हुई बाजी में रोमांच पैदा करने की कोशिश कर रहे थे. और वह जडेजा और धोनी ने वाकई किया.


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लेकिन इस मलाल के पार भी देखिए. यह वह मैदान नहीं था, यह उस तरह की पिच नहीं थी जिस पर रोहित शर्मा ने पांच शतक लगाए थे. यह उस तरह की बॉलिंग नहीं थी जिसे हम कूट कर रख देते थे. यह पाटा पिच नहीं थी. और रही भी हो, तो बारिश के बाद नहीं बची थी. यहां गेंद उठी, कटी और बल्लेबाज को छकाते हुए कभी विकेट के पीछे, कभी फील्डर के सुरक्षित हाथो में, तो कभी विकेट के भीतर ही घुस गई.


क्या यह नई बात है. मैं तो कहूंगा नहीं. मैंने पहला विश्वकप 1992 में देखा था, उसके बाद से हर विश्वकप में जब भी गेंद ने हमें छकाया, हम लड़खड़ा गए. गेंद जब भी कटती है, उछलती है या लहराती है, हम अटक जाते हैं. तो हमें क्या करना चाहिए था. हमें करना तो यही चाहिए था कि हम गेंद पर काबू पाने का हुनर सीखते. जैसा कि सुनील गावस्कर से लेकर राहुल द्रविड़ तक बल्लेबाजों ने किया. लेकिन हमने विशुद्ध क्रिकेटीय तरीका निकालने के बजाय एक शॉर्टकट खोजा.


हमने अपने बाजार और पैसे की ताकत पर क्रिकेट को बदलना शुरू कर दिया. भारत आगे बढ़ता रहे इसके लिए आईसीसी ने अपने टूर्नामेंट्स में भी उसी तरह के विकेट बनाने शुरू कर दिए जैसे विकेट भारत में बनते हैं. इन विकेट्स को हम पाटा विकेट कहते हैं. ऐसे विकेट जिन पर गेंद बिना भटकाव के बल्ले पर आती है. और फिर उस मासूम सी गेंद को हमारे बल्लेबाज रुई की तरह धुन देते हैं.


इस विश्वकप में भी यही हुआ. हम अंकतालिका में सबसे ऊपर रहे और हमारे बल्लेबाजों ने रनों के पहाड़ खड़े किए, उस दौरान गेंद ऐसे ही व्यवहार कर रही थी. कहने को वह इंग्लैंड था, लेकिन पिचों का मिजाज भारतीय था.


पिच इस मैच की भी बहुत घनघोर नहीं थी. उसमें भारतीय मिजाज था. लेकिन इंग्लैंड के मौसम ने जो पलटा मारा तो मरी हुई पिच जिंदा हो गई. वन-डे मैच टू-डे मैच में बदला, तो हमारी कठिनाई और बढ़ गई. नतीजा हमारे सामने आया कि दुनिया का सबसे ताकतवर बल्लेबाली लाइनअप बिखर गया. हमारा विश्वकप का सफर खत्म हो गया.


लेकिन जाते जाते हमें अपनी बल्लेबाजी में भी वही करना पड़ेगा, जो कुछ समय से हम अपनी गेंदबाजी में करते आए हैं. यह पहला विश्वकप रहा जिसमें भारत के पास इतने अच्छे गेंदबाज रहे. मोहम्मद शमी, जसप्रीत बुमराह और योगेंद्र चहल ने अच्छी गेंदबाजी की. हमने अपनी गेंदबाजी को अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट के स्तर तक ढाला. कपिल देव और मनोज प्रभाकर के जमाने में भारत में मध्यमगति के तेज गेंदबाज हुआ करते थे, लेकिन आज हमारे गेंदबाज वाकई तेज गेंदबाज हैं. उन्हें पूरी दुनिया गंभीरता से ले रही है.


इस विश्वकप में हमने अपनी एक और कमजोरी पर पार पाया. क्रिकेट देखने वाले जानते हैं कि भारत में विकेटकीपर बल्लेबाल कितनी बड़ी समस्या होती थी. धोनी युग के बाद यह चीज बदल गई. इस टूर्नामेंट में भारत की टीम में एक समय में चार विकेटकीपर बल्लेबाज तक रहे. आज के मैच में भी थे. लेकिन यही काम हमने बल्लेबाजी में नहीं किया. हमारे बल्लेबाजों को उनके मुताबिक पिचें चाहिए. इस टूर्नामेंट में जैसे ही पिच का मिजाज बदला हमारे हाथ की रेखाएं घूम गईं. बाजार के दबाव में हमने क्रिकेट को बल्लेबाजों का खेल बना दिया. मैदान छोटे कर दिए और गेंदबाजों पर अंकुश लगा दिए. यह कोई बात नहीं हुई. इससे पैदा होने वाला नकली मजा टीवी के दर्शकों को तो रिझा सकता है, लेकिन कठिन विकट पर मैच नहीं जिता सकता.


अगला विश्वकप भारत में होना है. हमारी पिचें होंगी. बल्लेबाजों की धूम होगी. ऊंचे ऊंचे स्कोर बनेंगे. बहुत संभव है हम वानखेड़े स्टेडियम में फाइनल खेल रहे हों. लेकिन क्रिकेट को उसके बाद भी चलना है. इसलिए जरूरत इस बात की है कि हम क्रिकेट को अपने हिसाब से ढालने के बाद क्रिकेट के हिसाब से खुद को भी ढालना शुरू करें.


बेटर लक नेक्स्ट टाइम!


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)