विश्व स्वास्थ्य दिवस पर हर देश अपने स्वास्थ्य की समीक्षा करता है. विश्व समुदाय के सदस्य होने के नाते हमें भी करना चाहिए. वैसे ये काम छोटा-मोटा काम नहीं है. फिर भी हम इतना तो कर ही सकते हैं कि समय-समय पर जो योजनाएं बनाते हैं. पलटकर उन पर नज़र डाल लिया करें. इस लिहाज़ से देखें तो सबसे पहले यह देखना पड़ेगा कि हर नागरिक को स्वस्थ्य रखने के लिए सरकार जो कर रही है उसकी मात्रा क्या है? हालांकि सरकार जो योजनाएं बनाती या बताती है उसका आकलन आसान नहीं होता. फिर भी इसका एक आसान तरीका यह उपलब्ध है कि कोई देश स्वास्थ्य के मद में कितना खर्च करता है.


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इस साल कितने खर्च का इरादा
इस साल के आम बजट में हमने अपने देशवासियों के स्वास्थ्य पर खर्च करने के लिए 52 हजार करोड़ रुपये तय किए हैं. पिछले साल लगभग 50 हजार करोड़ खर्च किए थे. यानी लगभग जहां की तहां. यानी यह उम्मीद करना बेकार की बात है कि स्वास्थ्य के मामले में कोई क्रांतिकारी बदलाव हो सकता है. स्वास्थ्य की समीक्षा करते हुए कहा जा सकता है कि देश की माली हालत के मददेनज़र अभी हम यथास्थिति बनाए रखने लायक ही है. जब हमारा लक्ष्य यथास्थिति ही तो यह देखना जरूरी हो जाता है कि हमारी मौजूदा स्थिति है क्या?


देश के मौजूदा हालात
स्वास्थ्य के मामले में अपने हालात को बार-बार दोहराने का कोई फायदा है नहीं. कुपोषण, महिलाओं में रक्त अल्पता, कुपोषित बच्चों की मौत का आंकड़ा, और देश के आखिरी व्यक्ति तक स्वास्थ्य सेवा की पहुंच को लेकर मीडिया कई साल से बताता आ रहा है. स्वास्थ्य के मामले में अपनी बदहाली को लेकर अंतिम निष्कर्ष यही निकलकर आता है कि विश्व की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के बावजूद हमारे पास अपना स्वास्थ्य बजट बढ़ाने की गुंजाइश नहीं बन पा रही है. इस समय हम अपने सकल घरेलू उत्पाद की रकम में से सिर्फ 1‐15 फीसद रकम ही स्वास्थ्य पर खर्च कर रहे हैं या कर पा रहे हैं. यानी एक रुपए में सिर्फ एक पैसा. जबकि स्वास्थ्य के मामले में दुनिया के बेहतर देश अपनी जीडीपी की औसतन दस फीसद रकम खर्च करते हैं. मसलन फ्रांस, इटली, स्पेन, फिनलैंड, अमेंरिका जैसे दसियों देश.


हमारा ऐलानिया लक्ष्य
यह अच्छी बात है कि अपनी सरकार ने मान लिया है कि स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च कम है. मसलन पिछले साल हमने कहा था कि जीडीपी की तुलना में हमारा खर्च लगभग एक फीसद है जिसे सन 2025 तक बढ़ाकर ढाई फीसद करने का लक्ष्य बनाया गया. इस लक्ष्य को हासिल करने की समयबद्धता सन 2025 तक की है. गौरतलब है कि इस समय हमारी जीडीपी लगभग पौने दो लाख करोड़ है. यानी अभी हम कुलमिलाकर कोई दो लाख करोड़ स्वास्थ्य पर खर्च कर रहे हैं. जिसे 2025 तक उस वक़्त की अनुमानित जीडीपी का ढाई फीसद करने का इरादा है. सरल अंकगणित के हिसाब से इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें हर साल स्वास्थ्य का बजट कमसे कम 20 फीसद की रफ़्तार से बढ़ाना पड़ेगा. यानी अगर पिछले साल स्वास्थ्य को 50 हजार करोड़ दिए थे इस साल 60 हजार करोड़ मिलने थे. लेकिन इस साल के बजट में मिले सिर्फ 52 हजार करोड़. सात फीसद की रफ्तार से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था वाले देश में स्वास्थ्य के सालाना बजट में सिर्फ चार फीसद बढ़ोतरी का मतलब है कि पहले से भी खराब स्थिति में आ जाने का अंदेशा.


स्वास्थ्य पर खर्च की हकीकत बताने का काम किसका?
बेशक यह काम नीति आयोग का है. यही आयोग भारत की तस्वीर बदलने के लिए बना है. वह अगर देश के स्वास्थ्य की हालत बदलने के लिए ‘थिंक‘ करेगा तो उसे सबसे पहले यह पता करना होगा कि स्वास्थ्य के मामले में जिन देशों की शोहरत है वह इस काम पर पैसा कितना खर्च करते हैं. नीति आयोग कोई भी अध्ययन करले, निकलकर यही आएगा कि शौहरतवाले वे देश स्वास्थ्य पर जीडीपी का औसतन दस फीसद खर्चा करते हैं. इस तरह नीति आयोग को सिफारिश करनी पड़ेगी कि अपनी जीडीपी के लिहाज से इस समय स्वास्थ्य क्षेत्र को 17 लाख 50 हजार करोड़ रुपए का आबंटन चाहिए. जब अपने देश के बजट का आकार ही 22 लाख करोड़ है तो यह सिफारिश करना उसके लिए हास्यास्पद होने की हद तक अव्यावहारिक है. लिहाजा सन 2025 तक ढाई फीसद खर्च करने का जो लक्ष्य बनाया गया है उससे निष्कर्ष यह निकलता है कि अपनी माली हालत के मद्देनजर हम अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर दूसरे देशों से रेस करना छोड़ दें. इंतजार करें कि हमारी माली हालत जब इस लायक हो जाएगी तब ही ये बातें करेंगे.


तो फिर करने को क्या है?
एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते हमारी जिम्मेदारी सब तक स्वास्थ्य सेवा की पहुंच बनाने की है. यही बात इस साल के विश्व स्वास्थ्य दिवस की थीम भी है. विश्व के आंकड़े बता रहे हैं कि अभी विश्व की आधी आबादी स्वास्थ्य सेवा की पहुंच से दूर हैं. दूसरा आंकड़ा यह है कि इस मामले में हम दुनिया के औसत देश से भी नीचे हैं. यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस साल की थीम ही अगर सब तक स्वास्थ्य सेवा की पहुंच को बनाया है तो ऐसा लगता है जैसे भारत को सामने रखकर ही यह थीम बनी है. लिहाज़ा आज के दिन अगर कोई सोच-विचार हो रहा हो तो हमें ऐलान कर देना चाहिए कि सबसे पहले हम सब तक न्यूनतम स्वास्थ्य सेवा पहुंचाने के काम पर लग जाएं. इसके अलावा सत्तर साल में स्वास्थ्य सेवाओं का जो आधा-अधूरा आधारभूत ढांचा हमने खड़ा कर पाया है उसका ढंग से रखरखाव का ही लक्ष्य बना लेंगे तो अपनी हैसियत के लिहाज से एक बड़ा काम समझा जाएगा. यानी आलीशान इलाज और न्यूनतम इलाज के लक्ष्यों के बीच प्राथमिकता को तय करना पड़ेगा. पूरा जोर अगर ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन पर लगा दे तो हो सकता है कि पांच दस साल में हम यह कहने लायक हो जाएं कि भले ही स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता तो नहीं बढ़ा पाए लेकिन देश के आखिरी आदमी तक स्वास्थ्य सेवा की पहुंच बनाने की हमने कोशिश की.


(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)