K. D.Jadhav Google Doodle: गूगल समय समय पर अपने डूडल बनाता रहता है यह कभी त्योहार तो कभी किसी के जन्मदिन आदि पर ऐसा करता है. आज गूगल ने भारत के स्पोर्ट्समेट खशाबा दादासाहेब जाधव का डूडल बनाया है. भारत के ओलंपिक इतिहास में धैर्य, दृढ़ संकल्प और गौरव की कहानियां हैं, लेकिन इन सबमें एक कहानी कहीं गुम सी नजर आ रही है. खशाबा दादासाहेब की कहानी इतिहास की किताबों से लगभग फीकी पड़ चुकी है. वह कौन थे? खैर, इस आदमी ने भारत के लिए पहला इंडिविजुअल ओलंपिक मेडल जीता. 1952 के खेलों में यह उपलब्धि हासिल की थी जब उन्होंने कुश्ती में ब्रॉन्ज मेडल जीता था.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

हालांकि, उन्होंने स्पोर्ट्स में कैसे जगह बनाई, इसकी कहानी और भी नाटकीय थी. 1952 में, जाधव ने फ्लाइवेट चैंपियन निरंजन दास को तीन बार हराया, क्योंकि उन्होंने अंततः ओलंपिक बर्थ अर्जित करने के लिए राजनीति और नौकरशाही की लड़ाई लड़ी. उन्हें पटियाला के महाराजा का भी कम समर्थन नहीं था.


27 साल के खशाबा ने इतिहास रचा, इंडिविजुअल स्पोर्ट्स में ओलंपिक मेडल जीतने वाले पहले भारतीय बने. हालांकि बहुत से भारतीयों खिलाड़ियों ने ओलंपिक गौरव हासिल नहीं किया है, लेकिन जाधव की कहानी हमारी खेल चेतना से फीकी पड़ गई है.


हालांकि, कोल्हापुर के कुश्ती सेंटर्स में उनकी विरासत अभी भी मौजूद है और खेल में कई लोग उन्हें भगवान मानते हैं. उनके जन्मस्थान गोलेश्वर में, एक सार्वजनिक चौराहे पर एक संरचना में पांच अंगूठियां आपस में जुड़ी हुई हैं, जो आपको गांव के ओलंपिक के अधिकारों के बारे में बताती हैं. उनके घर को ओलंपिक निवास के रूप में जाना जाता है जहां आज उनके किसान पुत्र रंजीत और उनका परिवार रहता है.


उनके महान पराक्रम के बाद भले ही समय बीत गया हो, लेकिन यादें इसे जीवित रखती हैं. कम उम्र में स्पोर्ट्स से परिचित होने वाले जाधव ने यह सुनिश्चित किया कि भारत का झंडा ओलंपिक पोडियम पर हो. ओलंपिक पदक कोई छोटी उपलब्धि नहीं है. भारत का अगला इंडिविजुअल पदक 44 साल बाद आया, जब लिएंडर पेस 1996 के गेम्स में टेनिस में ब्रॉन्ज मेडल जीते.


लेकिन आखिर तक उनके लिए जीवन इतना रोजी नहीं था. 155 में वह एक सब-इंस्पेक्टर के रूप में पुलिस बल में शामिल हुए. उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कई प्रतियोगिताओं में जीत हासिल की और 1982 में सहायक आयुक्त के पद से रिटायर हुए, लेकिन उन्हें अपनी पेंशन के लिए संघर्ष करना पड़ा.


खेल महासंघ द्वारा उनकी उपेक्षा की गई और 1984 में एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई. उनकी पत्नी को कोई वित्तीय सहायता नहीं दी गई. वास्तव में एक गौरवशाली जीवन और करियर का अंत दुखद हुआ.


दुख की बात यह है कि हममें से कई लोग स्पोर्ट्स में उनके योगदान के बारे में भी नहीं जानते हैं और यह नाम लगभग गुमनामी में है. यदि हम जीवन में उनकी मदद नहीं कर सकते, तो कम से कम हम इतना कर सकते हैं कि उनके जाने के बाद उनकी विरासत को बनाए रखें. वह 35 साल पहले हमें छोड़कर चले गए, अब समय आ गया है कि हम उनका सम्मान करें.


नई नौकरी की तलाश में हैं तो तुरंत क्लिक करें


पाठकों की पहली पसंद Zeenews.com/Hindi - अब किसी और की जरूरत नहीं