बजट आने में दो दिन बचे हैं. बजट यानी वह सरकारी दस्तावेज़ जिसमें हिसाब होता है कि जनता के किस तबके से पैसे की उगाही करे और उस पैसे से जनता के किस तबके का दुख कम करे. देश की जैसी हालत है उसमें हर तबका राहत मांग रहा है. राहत मांगने वालों में वह वर्ग सबसे मुखर है जो सरकार की आमदनी का सबसे बड़ा जरिया है, मसलन उद्योग और व्यापार करने वाले, ऊंची तनख्वाह पाने वाले और वे लोग भी जिन्हें हम मध्यवर्ग कहते हैं. देश में औसत से ज्यादा आमदनी वाला यह वर्ग सरकार से हमेशा यही चाहता है कि देश को चलाने के खर्च का जुगाड़ करने के लिए उससे ज्यादा टैक्स न वसूला जाए. खासतौर पर उद्योग और व्यापार जगत के लोग इस बार जोरशोर से कह रहे हैं कि उनके उद्योग धंधे चैपट होते जा रहे हैं इसलिए इस बार उनके साथ उदारता बरती जाए.


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क्या मांग रहे हैं उद्योग व्यापार करने वाले
जो लोग पहले से उद्योग व्यापार कर रहे हैं, वे मांग रहे हैं कि टैक्स कम कर दिए जाएं, खासतौर पर कॉर्पोरेट टैक्स. यह तबका यह मांग भी कर रहा है कि वैश्वीकरण को बढ़ाने के दौर में विदेशी कारोबारियों से होड़ करना उनके सामने मुश्किलें पैदा कर रही है. विदेश के सस्ते सामान ने पहले से उनके उद्योग चौपट कर दिए हैं.


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नोटबंदी और जीएसटी के बाद विनिर्माण क्षेत्र में भारी गिरावट आई. असंगठित क्षेत्र को भारी नुकसान झेलना पड़ा. वैसे सरकार के सामने सबसे ज्यादा चिंता बेरोज़गारी ने पैदा कर दी है. ज़रूरत के मुताबिक नए रोज़गार पैदा करने में नाकामी तो है ही ऊपर से नोटबंदी ने कई क्षेत्रों में नौकरियों का जो खात्मा किया था उससे भी हम उबरे नहीं हैं. खासतौर पर निर्माण के क्षेत्र में. लिहाजा इस बजट से यह उम्मीद भी की जा रही है कि प्राथमिकता के आधार पर नौकरियां पैदा करने वाले उद्योगों पर सरकार ज्यादा ध्यान दे.


छोटे और मझोले उद्योगों की चिंता
बजट के पहले कई तबकों की मांग पर ग़ौर करें तो साफ नज़र आता है कि छोटे और मझोले उद्यमी ज्यादा मुखर हैं. देश में पंजीकृत एमएसएमई इकाइयों की संख्या लगभग तीन करोड़ 60 लाख है. इन्हीं छोटे मझोले उद्योगों में कोई 12 करोड़ लोग रोजगार पाए हुए हैं. ये ऐसा उद्यमी तबका है जो देश के कुल उत्पादन में एक तिहाई योगदान देता है. हमारे कुल निर्यात का 45 फीसद उत्पादन ये लोग ही करते हैं. और सबसे खास बात यह कि इन्हीं उद्योगों की बढ़ोतरी में अभी भी बेरोज़गारी की समस्या के आंशिक समाधान की संभावनाएं छुपी हुई हैं. यहां यह बात एक बार फिर दोहराई जा सकती है कि पिछले दो साल में देश में दो बड़े क्रांतिकारी सुधारों का सबसे घातक असर इसी क्षेत्र पर पड़ा पाया गया है.


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इस बार के बजट से इन उद्यमियों की मांग है कि उन्हें आसान कर्ज़ और कॉर्पोरेट टैक्स में राहत मिल जाए. अभी इनसे सेस और सरचार्ज मिलाकर कुल लगभग 35 फीसद टैक्स वसूला जा रहा है. वे चाहते हैं इसकी दर 25 फीसद हो जाए. इसके अलावा वे अपने काम में इस्तेमाल होने वाली विदशी मशीनों पर इम्पोर्ट डयूटी में कमी चाहते हैं. उनके लिए लाइसेंसिंग प्रकिया आसान करने की बात हो या जीएसटी लगने के बाद वैट को हर जगह से खत्म करने की मांग हो, बजट की समीक्षा करते समय इस क्षेत्र से नज़रें हट नहीं पाएंगी.


खुदरा व्यापारियों का डर
बेशक आज सबसे ज्यादा आशंकित तबका यही है. अब तक तो नहीं लेकिन जिस तरह की सूचनाओं से इन का सामना हो रहा है वे निकट भविष्य में अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं. देश की माली हालत सुधारने के लिए विदेशी निवेश का विकल्प अपनाए जाने से भयभीत यह तबका इस बजट से चाह रहा है कि विदेशी कारोबारियों का मुकाबला करने के लिए सरकार अपने खुदरा कारोबारियों के लिए भी कुछ करे. मसलन संबधित क्षेत्रों में पहले से जो भारतीय उद्यमी काम कर रहे है उन्हें प्रौद्योगिक उन्नयन के लिए वित्तीय मदद दे और देश और देश के बाहर के बाजारों में पहुंच के लिए अनुकूल नीतियां बनाए. देश के कुल उत्पाद को उपभोक्ता तक आसानी से पहुंचाने की व्यवस्था में इस तबके की भूमिका बेरोज़गारी की समस्या को हल्का करने में भी काम आ रही है. खैर इस बजट में देखना होगा कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की उम्मीद का जिक्र किस प्रकार होता है.


स्टार्टअप की उम्मीदें
मौजूदा सरकार युवाओं को अपना खुद का उद्यम शुरू करने के लिए प्रोत्साहित करने वाली स्कीमों का जोरशोर से प्रचार कर रही है. बहुत दिनों से किए जा रहे ऐसे प्रचार के बाद युवाओं ने नए कारोबार की योजनाएं भी बना ली हैं. लेकिन इस क्षेत्र में सबसे बड़ी दिक्कत लालफीताशाही की देखी जा रही है. दावोस में हम विदेशी निवेशकों से तो कह आए है कि भारत में उन्हें लालफीते की जगह लाल कालीन मिलेगा. लेकिन अपना काम शुरू करने वाले अपने नए उद्यमी लालफीताशाही की समस्या बता रहे हैं. बहरहाल, इस क्षेत्र की एक बड़ी मांग एकल खिड़की व्यवस्था की है. देखते हैं बजट में इन युवा उद्यमियों को क्या और कितना प्रोत्साहन मिलता है.


कृषि कल्याण क्यों नहीं जुड़ सकता उद्योग व्यापार से
कृषि उत्पाद को हम घरेलू खपत की चीज़ ही मान रहे हैं. खासतौर पर जब हम कृषि उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने का दावा दसियों साल पहले कर चुके हैं तो अब इसके निर्यात पर ज़ोर क्यों नहीं लगा सकते. प्रबंधन प्रौद्योगिकी के कुछ विशेषज्ञ भी सुझाव दे रहे हैं कि फल और फूल की बागवानी के क्षेत्र में हमारे पास जो क्षमता है वह निर्यात के क्षेत्र में चमत्कार पैदा कर सकती है. बस कमी इतनी दिखती है कि कृषि क्षेत्र की गिरी हुई विकास दर ने हमारे हाथ पैर इतने फुला दिए हैं कि हमारे योजनाकार और नीति आयोग जैसे सरकारी थिंक टैंक की तरफ से कोई सिफारिश आती नहीं दिख रही है. जबकि कृषि प्रधान देश के उद्योग और व्यापार को कृषि उन्मुखी बनाने की गुजाइश भी हमारे पास है. वैश्वीकरण के दौर और होड़ में हमें निर्यात के नए क्षेत्र की भी तलाश है. देखते हैं बजट इस बारे में क्या करता है.


(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)