Zee Analysis : बजट में महिलाओं के हिस्से को तौलेंगे कैसे?
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Zee Analysis : बजट में महिलाओं के हिस्से को तौलेंगे कैसे?

ये पहली बार दिख रहा है कि देश की दिशा तय करने वाले इस महत्वपूर्ण दस्तावेज़ के बारे में इस बार मीडिया का ध्यान सबसे कम है.

Zee Analysis : बजट में महिलाओं के हिस्से को तौलेंगे कैसे?

देश का बजट बन चुका है. उसकी छपाई चल रही है. एक फरवरी को पेश होगा. ये पहली बार दिख रहा है कि देश की दिशा तय करने वाले इस महत्वपूर्ण दस्तावेज़ के बारे में इस बार मीडिया का ध्यान सबसे कम है. वर्ना महीनेभर पहले से अटकलें शुरू हो जाती थीं कि अगले बजट में समाज के किस तबके पर गौर करने की तैयारी है. और किस तबके को सरकार की तरफ से राहत या सौगात मिल सकती है. खैर, कई कारणों से बजट की तैयारियों पर भले ही ज्यादा चर्चा न हो पाई हो लेकिन देश के माली हालात और इस दौरान राजनीतिक मिजाज को देखते हुए इतनी अटकल तो लगाई जा सकती है कि इस बजट के जरिए महिलाओं की चिंता करने का प्रचार ज्यादा हो सकता है. वैसे बजट बनाने की प्रक्रिया बहुत ही गोपनीय होती है. लिहाजा ऐसी अटकलें अच्छी बात नहीं मानी जाती. इसीलिए सिर्फ यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि इस समय महिलाओं के बारे में सोचे जाने की जरूरत ज्यादा क्यों है? और ऐसा सोचे जाने से बजट के अपने ऐलानिया मकसद किस तरह से पूरे हो सकते हैं.

क्या हैं बजट के मकसद
बजट सरकार का रोडमैप होता है. बजट बताता है कि आने वाले एक साल में सरकार कितना पैसा उगाहेगी और उस पैसे को वो किस किस मद में कितना कितना खर्च करेगी. इस रोडमैप बनाने के मकसद भी हमने पहले से तय कर रखे हैं. लिहाज़ा बजट पेश होने से पहले उम्मीदें और पेश होने के बाद उसकी समीक्षा करते समय इन्हीं मकसद तक सीमित रहना चाहिए. बजट के तीन मुख्य मकसद हैं मसलन देश के संसाधनों का अलग अलग मदों में तर्कपूर्ण बंटवारा, समाज में विषमता को कम करना, महंगाई को काबू में करना. इस आधार पर बजट का सिर्फ एक मकसद देखना चाहें तो वह संसाधन प्रबंधन तक सीमित हो जाता है. अगर तीन मुख्य मकसद को प्राथमिकता के आधार पर लगाना हो तो यह देखना पड़ता है कि देश में फौरी तौर पर ज्यादा जरूरी क्या है? यानी देश के मौजूदा हालत में किस मकसद को सबसे पहले रखें. यही चुनौती इस समय देश की मौजूदा सरकार के सामने है. इस बारे में अगर कोई सुझाव या प्रस्ताव बनाना हो तो इस बार सामाजिक रूप से आर्थिक विषमता को कम करना हमारा पहला मकसद हो सकता है. समानता को साधने के लिए यह देखना पड़ेगा कि इस समय हमारे सामने सबसे ज्यादा वंचित वर्ग है कौन सा?

देश के वंचित और संवेदनशील तबके की पहचान कैसे हो?
किसी भी सरकार के सामने यह मुश्किल हमेशा ही खड़ी नजर आती है कि वह देश में समानता का लक्ष्य साधने के लिए वंचित वर्गों की पहचान कैसे करे? इस मुश्किल से निपटने या छुटकारा पाने का आसान तरीका यह निकाला जाता रहा है कि सभी तबकों को कुछ न कुछ मुहैया करा दिया जाए. यानी सभी वर्गों को प्रसन्न करने के लिए कुछ न कुछ देने वाले बजट को 'लोकलुभावन बजट' कहा जाता है. अब तक का अनुभव है कि बजट लोकलुभावन न भी हो तो भी उसे लोकलुभावन कहकर प्रचारित किया जाता है. पारंपरिक रूप से हमारे बजट में बहुत सारी मदें हैं. और हर सरकार की कोशिश होती है कि सभी मदों में थोड़ी-थोड़ी बढ़ाकर रकम भर दी जाए. और किसी की भी नाराज़गी मोल न ली जाए. इस चक्कर में कभी भी उस तबके की पहचान नहीं हो पाती जो वाकई सबसे ज्यादा वंचित है. जबकि सबसे ज्यादा वंचित वर्ग को अतिरिक्त बल देने से हमारी लाकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे बड़ा मकसद यानी समानता साधने का मकसद सबसे ज्यादा सध सकता है. अगर वाकई कोई सरकार, खासतौर पर सीमित संसाधनों वाली लोकतांत्रिक सरकार, संविधानोचित समानता का लक्ष्य साधना चाहती है तो उसके पास वंचित वर्गों की पहचान करने के अलावा कोई विकल्प नहीं हो सकता. भले ही वह गांव और शहरी इलाके के आधार पर हो या सदियों से आर्थिक रूप से वंचित सामाजिक तबके हों या लिंग के आधार पर सदियों से वंचित वह कमजोर तबका यानी महिलाएं हों जो सांख्यिकीय आधार पर सबसे बड़ा तबका भी है. जाहिर है कि बजट के केंद्र में महिला का होना बजट के सबसे बड़े मकसद को पूरा करता हुआ पाया जाएगा. इतना ही नहीं महिला हर परिवार का अहम हिस्सा होती है. उसके बिना परिवार की कल्पना नहीं की जा सकती है. उस तक बजट के पहुंचने का अर्थ है कि कोई सरकार देश के हर परिवार तक अपने आप ही पहुंच गई. इस तरह समावेशी पहुंच के लिए इससे बेहतर आधार और क्या हो सकता है. बाल कल्याण, वृद्ध कल्याण जैसे भावुक मुददे क्या एक ही मुददे से नहीं सध जाएंगे.

महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर
महिला सशक्तिकरण के लिए सबसे मजबूत कदम है महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाना. शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में महिलाओं के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा करने की जरूरत तो है ही उससे भी बड़ी बात ये कि इसकी गुंजाइश भी खूब है. खासतौर पर ग्रामीण भारत में महिलाओं के लिए रोज़गार के मौके पैदा करके हम अपनी सबसे ज्यादा दुखती रग यानी बेरोज़गारी की समस्या को कम करने का एक बड़ा भारी काम कर रहे होंगे. वैसे चाहे शहरी क्षेत्र हो या ग्रामीण, महिलाओं को अपना काम शुरू करने के लिए सरकारी मदद पहुंचाना और स्वयं सहायता समूहों को प्रोत्साहित करने के लिए बड़ी योजनाएं लाना इस बजट का सबसे बड़ा और वाजिब आकर्षण हो सकता है. पिछले साल ग्रामीण महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर बनाने के लिए सरकार की तरफ से घोषणा की गई थी कि महिला शक्ति केद्रों और 14 लाख आंगनबाड़ी केंद्र स्थापित करने के लिए 500 करोड़ खर्च करेंगे. इतने भारी भरकम काम के लिए इतनी सी रकम से क्या हो पाया होगा? इसका आकलन या अंकेक्षण जरूरी है. इस साल के बजट की समीक्षा करते समय इस नुक़्ते पर भी चर्चा होनी चाहिए. मसलन कामकाजी महिलाओं के लिए मातृत्व लाभ कार्यक्रम का जिक्र सरकार जरूर करेगी. उसकी समीक्षा करते समय यह भी देखा जाना चाहिए कि इस कार्यक्रम को कारगर तरीके से लागू करने के लिए वाकई कितनी रकम की जरूरत है और दी कितनी गई है.

महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा
महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों के मद्देनजर सबसे पहले उनकी सुरक्षा के लिए पुख्ता इंतजाम की जरुरत से कोई इनकार नहीं कर सकता. हर साल महिला सशक्तिकरण और संरक्षण मिशन, निर्भया फंड आदि के अंतर्गत महिला सुरक्षा के लिए पैसा दिया जाता है. लेकिन अपराधों में घटौती न होना बताता है कि यह रकम पर्याप्त नहीं थी. पैसे की कमी के कारण ही प्रभावी योजनाएं नहीं बन पाईं. कारगर योजनाएं न बन पाने के कारण ही पिछले साल दी गई रकम पूरी खर्च नहीं हो पाई. गौरतलब है कि योजनाएं बनाने के लिए जो राय-मशविरा जैसे कई कार्यक्रम करने पड़ते हैं. उन पर ही अच्छा खासा पैसा खर्च करना पड़ता है. यानी ऐसी जटिल समस्याओं के समाधान के उपाय ढूंढने वाले शोध के लिए धन का अलग से प्रावधान करने की दरकार है.

महिलाओं के नाम पर क्या किया गया था पिछले साल
पिछले साल वित्तमंत्री ने दावा किया था कि महिलाओं और बच्चों के अनेकों कार्यक्रमों के लिए 2016 2017 में दिए गए एक लाख 56 हजार करोड़ को बढ़ाकर 2017-18 के बजट में एक लाख 86 हजार करोड़ दिए गए थे. यानी देश की आधी आबादी के लिए सिर्फ 30 हजार करोड़ रुपये बढ़ाए गए थे. यह रकम महिलाओं और बच्चों के कल्याण के पचासियों कार्यक्रमों पर खर्च किए जाने वाली कुल रकम थी. अगर अंदाजा लगाएं कि कुल बजट की तुलना में यह कितनी रकम थी तो यह सिर्फ आठ फीसद के आसपास बैठती है. इस रकम से महिला सशक्तिकरण की कितनी उम्मीद लगाई जा रही थी यह आज भी विचार का एक भरापूरा मुद्दा है. सोच विचार के बाद यही पाएंगे कि इस मद में एक बड़ी रकम की जरूरत है. ट्रेनों में अकेले सफर करने वाली महिलाओं की सुरक्षा के लिए कुछ नए बजट प्रावधानों की उम्मीद इस बार और जुड़ गई है. 

लड़कियों की शिक्षा
राष्ट्रीय बालिका माघ्यमिक शिक्षा प्रोत्साहन स्कीम और एकीकृत बाल विकास सेवाओं में किशोरियों के लिए स्कूल कार्यक्रम के तहत कुछ और बड़े एलानों की उम्मीद इस बार के बजट से लगाई जा रही है. हालांकि लड़कियों की पढ़ाई और कौशल विकास के लिए योजनाओं का ढेर पहले से ही मौजूद है सो अब देखना ये है कि उन कार्यक्रमों के लिए रकम का आकार कितना कितना बढ़ेगा.

क्या मिलेगी गृहणियों को राहत?
'गृहणी' एक ऐसा शब्द है जो बजट को आकर्षक दिखाने के काम आता है. दरअसल बजट के तीन मकसद में एक महंगाई पर नियंत्रण भी है. इस तरह महंगाई पर नियंत्रण के बजट में जितने भी उपाय किए जाते हैं उसे हम महिला के लिए किए काम की सूची में डाल देते हैं. इस बार के बजट की समीक्षा में जब हमें सरकार की तारीफ के लिए वाक्यों की रचना करनी पड़ेगी तो हम बता रहे होंगे कि इस बजट में सरकार ने गृहिणी को क्या-क्या दिया. हालांकि यह काम होता समग्र समाज के लिए ही है. बहरहाल महिलाओं को प्रसन्न करने के लिए रसोई के सामान को सस्ता करने का प्रचार इस बजट में दिखेगा जरूर. लेकिन बजट समीक्षकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि वे यह बताएं कि महिलाओं के नाम पर दी गई यह राहत है कितनी? इस बार इसे हम बजट की समीक्षाएं पढ़ते समय जरूर जांचेंगे.

(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)

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