Bangladesh Coup: क्या तख्तापलट के पीछे है सेना का हाथ? बांग्लादेश में 1975 से जारी एक कहानी
Bangladesh Political Crisis: बांग्लादेश में तख्तापलट कोई नई बात नहीं है और न ही सेना का देश की राजनीति में दखल. एक बार फिर ये सवाल उठ रहा है कि क्या शेख हसीना की सत्ता जाने में सेना का कोई हाथ है या नहीं.
Bangladesh News: हुए बांग्लादेश के सेना प्रमुख जनरल वकर-उज़-ज़मान ने सोमवार (5 अगस्त) को मीडिया को संबोधित करते कहा कि देश चलाने के लिए एक अंतरिम सरकार बनाई जाएगी. उन्होंने लोगों से शांति और व्यवस्था बनाए रखने की अपील की. इससे पहले प्रधानमंत्री शेख हसीना देश छोड़ कर भारत भाग गईं. सरकारी नौकरियों में स्वतंत्रता सेनानियों के परिजनों के लिए कोटा को लेकर चल रहे विरोध प्रदर्शनों के कारण उन्हें अपना पद छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा.
बांग्लादेश में तख्तापलट कोई नई बात नहीं है और न ही सेना का देश की राजनीति में दखल. 1975 में एक सैन्य तख्तापलट में हसीना के पिता मुजीब और उनके परिवार के अधिकांश सदस्यों की हत्या कर दी गई थी.
इसके बाद अगले 15 सालों तक सेना ने बांग्लादेश की राजनीति को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित किया. एक नजर बांग्लादेश में सेना की भूमिका पर: -
1971 का मुक्ति संग्राम
पाकिस्तान (तब पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान) के 1970 के आम चुनावों में, मुजीबुर रहमान की अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान में 162 में से 160 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत दर्ज किया - जुल्फिकार अली भुट्टो की पीपीपी ने पश्चिमी पाकिस्तान में 138 में से 81 सीटें जीतीं.
अवामी लीग की जीत के बावजूद, पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल याह्या खान, जो उस समय मार्शल लॉ के ज़रिए देश पर शासन कर रहे थे, ने मुजीबुर रहमान को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया. इससे पूर्वी पाकिस्तान में अशांति फैल गई, जहां बंगाली सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से प्रेरित और उर्दू थोपे जाने के खिलाफ़ आंदोलन पहले से ही चल रहा था.
7 मार्च, 1971 को मुजीब ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों से बांग्लादेश की आजादी के लिए एक व्यापक संघर्ष के लिए खुद को तैयार करने का आह्वान किया. जवाब में, पाकिस्तानी सेना ने अपना कुख्यात ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया - विरोध प्रदर्शनों को कुचलने के लिए एक ऐसा सैन्य अभियान जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर हत्याएं, अवैध गिरफ्तारियां, बलात्कार और आगजनी का क्रूर अभियान चला.
इसके तुरंत बाद, पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली सैनिकों ने विद्रोह कर दिया, जिसके कारण बांग्लादेश मुक्ति युद्ध छिड़ गया जिसमें भारत ने हस्तक्षेप किया. इन सैनिकों ने नागरिकों के साथ मिलकर मुक्ति वाहिनी का गठन किया और पाकिस्तानी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध किया.
बांग्लादेश सेना का गठन
बांग्लादेश को स्वतंत्रता मिलने के बाद मुक्ति वाहिनी के सदस्य बांग्लादेश सेना का हिस्सा बन गए. हालांकि, स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में, सेना के भीतर उन बंगाली सैनिकों के खिलाफ भेदभाव के कारण तनाव उभरने लगा, जिन्होंने मुक्ति युद्ध की अगुवाई में पाकिस्तान के खिलाफ विद्रोह नहीं किया था.
पहला सैन्य तख्तापलट
असंतोष 15 अगस्त, 1975 को उबल पड़ा, जब मुट्ठी भर युवा सैनिकों ने ढाका में मुजीब के निवास पर उनके और उनके पूरे परिवार की हत्या कर दी. उनकी दो बेटियां हसीना और रेहाना विदेश में होने की वजह से बच गईं.
इस हत्याकांड ने बांग्लादेश में पहले सैन्य तख्तापलट का मार्ग प्रशस्त किया, जिसका नेतृत्व मेजर सैयद फारुक रहमान, मेजर खांडेकर अब्दुर रशीद और राजनीतिज्ञ खोंडेकर मुस्ताक अहमद ने किया. एक नई सरकार स्थापित हुई - मुस्ताक अहमद राष्ट्रपति बने और मेजर जनरल जियाउर रहमान को नया सेना प्रमुख नियुक्त किया गया.
कुछ महीने बाद दूसरा तख्तापलट
हालांकि, नए शासक लंबे समय तक सत्ता में नहीं रहे. 3 नवंबर को ब्रिगेडियर खालिद मुशर्रफ, जिन्हें मुजीब का समर्थक माना जाता था, ने एक और तख्तापलट किया और खुद को नया सेना प्रमुख नियुक्त कर लिया. मुशर्रफ ने जियाउर रहमान को नजरबंद कर दिया, क्योंकि उनका मानना था कि बंगबंधु की हत्या के पीछे जियाउर रहमान का हाथ था.
तीसरा तख्तापलट
फिर 7 नवंबर को तीसरा तख्तापलट हुआ. यह वामपंथी सैन्यकर्मियों द्वारा जातीय समाजवादी दल के वामपंथी राजनेताओं के साथ मिलकर किया गया था. इस घटना को सिपाही-जनता बिप्लब (सैनिक और जनक्रांति) के नाम से जाना जाता है. मुशर्रफ की हत्या कर दी गई और जियाउर रहमान राष्ट्रपति बन गए.
बीएनपी का गठन
जियाउर रहमान ने 1978 में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) का गठन किया, जिसने उस वर्ष के आम चुनाव में जीत हासिल की. लेकिन 1981 में मेजर जनरल मंज़ूर के नेतृत्व वाली एक विद्रोही सेना इकाई ने उन्हें सत्ता से हटा दिया. विद्रोहियों ने राष्ट्रपति पर उन सैनिकों का पक्ष लेने का आरोप लगाया, जिन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ़ युद्ध में भाग नहीं लिया था - और जो आजादी के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से आए थे.
जनरल इरशाद का तख्तापलट
24 मार्च, 1982 को तत्कालीन सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद ने रक्तहीन तख्तापलट करके सत्ता संभाली. उन्होंने संविधान को निलंबित कर दिया और मार्शल लॉ लागू कर दिया.
इरशाद ने राष्ट्रपति अब्दुस सत्तार (बीएनपी) को अपदस्थ कर दिया, जिन्होंने जियाउर रहमान की जगह ली थी. इरशाद ने 1986 में जातीय पार्टी की स्थापना की और 1982 के तख्तापलट के बाद बांग्लादेश में पहले आम चुनाव की अनुमति दी. उनकी पार्टी ने बहुमत हासिल किया और वह 1990 तक राष्ट्रपति बने रहे. देश में लोकतंत्र समर्थक विरोध प्रदर्शनों के बाद उन्हें पद छोड़ना पड़ा.
2007 में फिर सैनिक तख्तापलट
हालांकि 1991 में बांग्लादेश में संसदीय लोकतंत्र की वापसी हुई, लेकिन सेना का हस्तक्षेप नहीं रुका. 2006 में बीएनपी-जमात सरकार का कार्यकाल समाप्त होने के बाद राजनीतिक उथल-पुथल शुरू हो गई. नए चुनाव होने से पहले जरूरी कार्यवाहक सरकार का नेतृत्व करने के लिए उम्मीदवार चुनने को लेकर बीएनपी और अवामी लीग में ठन गई.
उस वर्ष अक्टूबर में, राष्ट्रपति इयाजुद्दीन अहमद ने खुद को कार्यवाहक सरकार का नेता घोषित किया, और घोषणा की कि अगले वर्ष जनवरी में चुनाव होंगे.
11 जनवरी, 2007 को सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल मोइन अहमद ने सैन्य तख्तापलट का नेतृत्व किया, जिससे सैन्य समर्थित कार्यवाहक सरकार का गठन हुआ. अर्थशास्त्री फखरुद्दीन अहमद को सरकार का मुखिया नियुक्त किया गया, जबकि राष्ट्रपति इयाजुद्दीन अहमद को अपना राष्ट्रपति पद बनाए रखने के लिए मजबूर होना पड़ा.
मोईन ने सेना प्रमुख के रूप में अपना कार्यकाल एक साल और कार्यवाहक सरकार का शासन दो साल के लिए बढ़ा दिया. दिसंबर में राष्ट्रीय चुनाव होने के बाद 2008 में सैन्य शासन समाप्त हो गया और शेख हसीना सत्ता में आईं.
Photo courtesy- Reuters