नई दिल्लीः Lingayat Community: Corona और तमाम चिंताओं-मामलों के बीच चारों ओर नजर उठा कर देखें तो दक्षिण में चल रही हलचल अपनी ओर खींच ले जाती है. यहां से जो शोर सुनाई दे रहा है, उसमें एक शब्द ''लिंगायत'' बहुत ही साफ-साफ सुनाई दे रहा है.


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क्या है लिंगायत? और कर्नाटक की राजनीति में यह शब्द इतना अहम क्यों हो जाता है. यह सवाल एक बार फिर मौजूं बन जाता है.


मठों का देश कहलाता है कर्नाटक


दरअसल, लिंगायत को समझने के लिए कर्नाटक को धार्मिक नजरिए से देखना होगा. भारत के दक्षिण का यह राज्य मठों और मंदिरों का देश कहलाता है. यहां के 30 जिलों में छोटे-बड़े मिलाकर कुल 900 तक की संख्या में मठ हैं.



इनमें से अधिकांश मठ लिंगायत समुदाय के हैं. राज्य के लिंगायत समुदाय को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है. सुविधा-साधन संपन्न और धनी-मानी कम्युनिटी के तौर पर पहचान रखने वाले लिंगायत राजनीति में भी अहम जगह रखते हैं.


12वीं सदी का है इतिहास


लिंगायत कहां से आए, कब आए, कैसे आए? इन सारे सवालों की दौड़ हमें इतिहास में बहुत पीछे ले जाती है. लिंगायतों की उत्पति का आरंभ 12वीं सदी से माना जाता है. इस इतिहास के पन्ने बारीकी से पढ़े जाएं तो उस दौर की तारीखों के साथ एक नाम बहुत ही सुनहरे अक्षरों में लिखाई देता है, वह बसव.



जिन्हें बसवन्ना और यहां तक संत बसवेश्वर के नाम से जाना जाता है. लिंगायत समुदाय इन्हीं बसवेश्वर संत की पूजा (सांकेतिक) तौर पर करता है.


1131 ईसवी में हुआ बसवेश्वर का जन्म


संत बसवेश्वर का जन्म 1131 ईसवी में कर्नाटक के संयुक्त बीजापुर जिले में स्थित बागेवाडी में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. माता-पिता अनन्य शिव भक्त थे और विवाह के साल बाद जब पुत्र हुआ तो उसे महादेव शिव का ही प्रसाद माना गया. शैव ब्राह्मण परिवार ने पुत्र का नाम रखा बसव और बचपन से ही उसे शैव मत के अनुसार जीवन जीना सिखाने लगे.


8 साल की उम्र में उतार दिया जनेऊ


12वीं सदी का वह दौर तब का था जब ऊंच-नीच और भेदभाव समाज में बहुत फैला हुआ था. बसव शायद बचपन से ही इसे पहचानने लगे थे और इसके खिलाफ मन में एक तूफान पनपना शुरू हो चुका था. बसव का आठवां साल था.


माता-पिता ने तय किया कि अब इसका उपनयन संस्कार करके गुरुकुल भेजना चाहिए, जहां यह धर्म-कर्म दोनों को समझ सके. लेकिन, हुआ कुछ और ही. बालक बसवेश्वर ने उपनयन के बाद जनेऊ उतार दिया.


कर्म आधारित समाज की नींव डाली


यहां से शुरू हुई जाति आधारित समाज की जगह कर्म आधारित समाज की व्यवस्था लाने की लड़ाई और इस लड़ाई का अगुआ बने बसवन्ना. उन्होंने मठों, मंदिरों में फैली कुरीतियों, अंधविश्वासों को चुनौती दी. उन्होंने लिंग, जाति, सामाजिक स्थिति की परवाह किए बिना सभी लोगों को बराबर अवसर देने की बात लोगों को समझाई और कहा कि लोग निराकार भगवान की अवधारणा के समर्थक बनें.


शरीर पर लिंग धारण करते हैं लिंगायत


संत के रूप में सुधारक बासवन्ना ने हिंदुओं में जाति व्यवस्था में दमन के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था. उन्होंने मूर्ति पूजा को नहीं माना और कहा कि यह शरीर ही मंदिर ही. तुम्हारे जो भी ईष्ट हैं वह इसी शरीर में रहते हैं और इसी प्रतीक स्वरूप में लिंगायत समुदाय के लोग एक तरह से शैव मत से होने के बाद भी शिव पूजा नहीं करते हैं,



बल्कि अपने ही शरीर पर ईष्टलिंग को धारण करते हैं. लिंगाकृति धारण करने के कारण ही यह समुदाय लिंगायत कहलाता है.


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वेदों में हैं पांच संप्रदाय


देश में प्राचीन काल से हिंदुओं के पांच संप्रदाय माने जाते रहे हैं. इस बात की गवाही वेद और पुराण भी देते हैं. जहां शैव और वैष्णव तो प्रमुख और प्रचलित संप्रदाय हैं हीं. इसके अलावा तीन संप्रदाय शाक्त, वैदिक और स्मार्त संप्रदाय हैं. देशभर के अन्य हिस्सों में भले ही यह संप्रदाय ठीक तौर पर न दिखें, लेकिन कर्नाटक इस मामले में अकेला-अनोखा राज्य है जहां आज भी प्राचीन समुदायिक विकास का इतिहास जीवित है.


कर्नाटक में आज भी मौजूद हैं प्राचीन संप्रदाय


यहां शिव को ईष्ट मानने वाले शैव, विष्णु को ईष्ट मानने वाले वैष्णव, काली-दुर्गा को आराध्य मानने वाले शाक्त, सिर्फ वेदों का ही अनुसरण करने वाले वैदिक और सभी में आस्था रखने वाले गृहस्थ स्मार्त अपनी परंपरा को जीवित बचाए हुए हैं.


देश में कश्मीर शैव संप्रदाय का गढ़ है, तो आसाम-पं. बंगाल को शाक्त संप्रदाय का प्रमुख केंद्र माना जाता है. लेकिन कर्नाटक में पांचों संप्रदाय के लोग मौजूद हैं.


वामन पुराण में है लिंगायत का वर्णन


इन्हीं पांच संप्रदायों के कई उप संप्रदाय भी हैं. जैसे शैव के उपसंप्रदाय में शाक्त (शक्ति के शिव का केंद्र मानने वाले), नाथ, दसनामी, माहेश्वर, पाशुपत, कालदमन, कश्मीरी शैव, कापालिक और वीरशैव आते हैं. लिंगायत संप्रदाय इसी वीरशैव संप्रदाय से जुड़ा माना जाता है.



हालांकि यही एक विवाद भी है. 18 पुराणों में से एक वामन पुराण के हवाले से कहा जाता है कि लिंगायत एक प्राचीन और प्रमुख संप्रदाय है.


इस आधार पर बताए गए हैं चार संप्रदाय


विष्णु के वामन अवतार से संबंधित वामन पुराण दस हजार श्लोकों में लिखा गया है. इसी पुराण में शिवलिंग पूजा, गणेश-स्कन्द आख्यान, शिवपार्वती विवाह, ब्रह्मा जी के शिरच्छेद की कथा, दक्ष यज्ञ विध्वंस और इसके ही आखिरी में प्रहलाद के पौत्र बलि की कथा है. इसी दौरान यह पुराण बताता है कि शैव संप्रदाय के उपसंप्रदाय की संख्या चार है. जिनमें पाशुपत, कापालिक, कालमुख और लिंगायत आते हैं.


लिंगायत समुदाय का एक नाम है जंगम


वर्तमान में प्रचलित लिंगायत संप्रदाय, प्राचीन लिंगायत संप्रदाय का ही नया रूप है. लिंगायत समुदाय को दक्षिण में जंगम भी कहा जाता है. वैदिक क्रियाकांड से दूर यह समुदाय सिर्फ शिव को ईष्ट मानता है.



बसव पुराण में लिंगायत समुदाय के प्रवर्तक उल्लभ प्रभु और उनके शिष्य बासव को बताया गया है, इस संप्रदाय को वीरशैव संप्रदाय भी कहा जाता है.


लिंगायतों में भी हैं कई जातियां


आज वर्तमान में लिंगायतों में ही कई उपजातियां हैं. इनकी संख्या 100 के आस-पास की हैं. जानकारी के मुताबिक, इनमें दलित या पिछड़ी जातिके लोग भी आते हैं, लेकिन लिंगायत समाज को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है. आज कर्नाटक की आबादी का 18 फीसदी लिंगायत हैं. पास-पड़ोस के राज्यों महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भी लिंगायतों की तादाद अधिक है.


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