बिहार के पूर्णिया में 14 जून 1998 की शाम 4:30 बजे. सफ़ेद रंग की एम्बेसडर में सीपीआई नेता कॉमरेड अजीत सरकार हरदा गांव में पंचायती कर के वापस पूर्णिया लौट रहे थे, रास्ते में एक पेट्रोल पम्प के पास यामाहा मोटरसाइकल लेकर खड़े दो लोगों ने कार का नम्बर देखकर पहचान की. कार का नम्बर था BHK-1426. यामाहा के साथ वाले लोगों ने बुलेट पर सामने आ रहे दो लोगों को इशारा किया और फिर शुरू हुई कार पर दे दनादन फायरिंग. एक शख़्स ने एके-47 से फायरिंग की बाकी छोटे हथियारों से बारूद उगल रहे थे. इस हमले का मकसद था अजीत सरकार की हत्या और हमलावर इसमें कामयाब रहे. अजीत के साथ उनका ड्राइवर और उनके साथी नेता कॉमरेड असफ़ाक आलम की भी जान चली गई. इस हत्याकांड का आरोप आगे चलकर जिन लोगों पर लगा उनमें एक युवा नेता का नाम था. राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव.


कैसे बना पूर्णिया का रंगबाज़?


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कागज़ों में तो उसका नाम राजेश रंजन था लेकिन उसके दादा जी ने उसे नाम दिया पप्पू और यही नाम उसके साथ ताज़िंदगी कायम हो गया. वैसे तो पप्पू यादव ने एक जमींदार के घर में जन्म लिया था लेकिन जेपी के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से देश भर में उठे तूफान के बाद जब बिहार में नए-नए नेता उभरने लगे तो लालू प्रसाद यादव का हमसाया बनकर ये छात्र नेता घूमता था, और उत्तर बिहार में अपना वर्चस्व बनाने के लिए राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने अपनी ख़ुद की सेना खड़ी कर ली थी.



अगड़े और पिछड़े की जंग में पप्पू यादव ने कोसी बेल्ट में अपना वर्चस्व कायम किया और पिछड़ी जाति के युवा उसके साथ जुड़ते चले. 80 के दशक के अंत तक पूर्णिया, सहरसा, सुपौल, कटिहार ज़िलों में पप्पू का अच्छा ख़ासा दबदबा बन चुका था. 1990 में देश में आरक्षण की आग लगी और मंडल-कमंडल की जंग सड़क पर आ चुकी थी. इसको लेकर बिहार में समाज बंट चुका था. ठाकुर, भूमिहार, अहीर. सबने एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था. कोसी बेल्ट में आनंद मोहन ने अपनी प्राइवेट आर्मी बना ली थी और उसे चुनौती देने के लिए पप्पू यादव भी अपनी सेना लेकर तैयार था. आए दिन वारदातें होती रहती थीं. पप्पू यादव और आनंद मोहन को कोसी बेल्ट का टेरर ट्विन कहा जाने लगा.


आनंद मोहन Vs पप्पू यादव, कोसी के टेरर ट्विन


बिहार में गंगा के उत्तर में भूमिहारों के ख़िलाफ़ पप्पू यादव ने मोर्चा खोल रखा था, एक गांव में एक यादव की पिटाई हुई और पप्पू यादव 60 बसों में असलहों से लैस लड़कों को लेकर उस गांव तक पहुंच गया और वहां फायरिंग भी की. कहते हैं कि पप्पू और उसके समर्थकों ने गांव को लूटने की कोशिश की लेकिन गांव वालों ने उसकी कार को आग के हवाले कर दिया और साथ में उसके हथियारों को भी छीन लिया. ये सिर्फ भूमिहारों और यादवों की ही जंग नहीं थी, ये जंग दो बाहुबलियों की थी.


दोनों के बीच चल रही जंग ने वो रूप लिया कि सरकार को बीएसएफ को उतारना पड़ा. मोकामा से लेकर वैशाली तक 150 किलोमीटर के एरिया में जैसे गृह युद्ध छिड़ा हुआ था. वैशाली के कुछ गांवों ने तो अपनी सीमाएं सील कर दी थीं और हथियार उठा लिए थे. पप्पू यादव और आनंद मोहन के बीच की इस जंग ने जातीय हिंसा फ़ैला दी थी.


सियासी सफर की शुरूआत


भले ही पप्पू यादव लालू प्रसाद यादव के साथ साये की तरह घूमता था और एक समय लालू का उत्तराधिकारी भी कहलाने लगा था, लेकिन उसकी सियासी हसरतों को लालू ने नहीं बल्कि उसने खुद पूरा किया. साल 1990 में पप्पू यादव मधेपुरा के सिंघेश्वरस्थान से निर्दलीय चुनाव लड़ने के लिए उतरा. जनता दल के ख़िलाफ उतरकर पप्पू यादव ने जता दिया था कि वो किसी पार्टी का खिलौना नहीं है बल्कि ख़ुद का मालिक वो ख़ुद है. पप्पू ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर भारी अंतर से जीत दर्ज की.



1990, पुलिस वाले की मूंछ उखाड़ी


1 नवम्बर 1990 को रात करीब साढ़े आठ बजे पूर्णिया के चित्रवाणी रोड पर पप्पू यादव ने पुलिस की गाड़ी से ड्राइवर को नीचे उतारा, उसे पिस्टल की बट से मारा, मारपीट की और उसके बाद पुलिस जवान और ड्राइवर रामप्रवेश पासवान के मुताबिक उसकी मूंछ उखाड़ दी, जिससे ख़ून निकल गया. सिपाही ने आरोप लगाया कि पप्पू यादव ने उसकी पॉकेट में रखे 1500 रूपए और उसकी घड़ी छीन ली.


डीएसपी को चलती कार के सामने धकेला


जून 1991 में पप्पू यादव पर हत्या के 3 हत्या के मामले दर्ज हो चुके थे और कोसी बेल्ट में आतंक फैलाने को लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का मामला भी दर्ज हो गया था. उसका अंदाज़ था कि वो पहले लोगों को किडनैप करता फिर हत्या कर देता. एक डीएसपी रैंक के पुलिसवाले को चलती गाड़ी के सामने फेंकने का भी आरोप पप्पू यादव पर लगा था फिर भी वो पूर्णिया की सड़कों पर खुलेआम घूमता था. उसे पुलिसवाले भी छूने से डरते थे. बाद में आजिज़ आकर लालू यादव ने पप्पू को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया तब जाकर पप्पू यादव सलाखों के पीछे पहुंचा.


जेल में मिली मोहब्बत


राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ़्तार पप्पू यादव जेल पहुंच चुका था. बांकीपुर जेल में रहते हुए पप्पू यादव जेल अधीक्षक के लॉन में बच्चों को टेनिस खेलते देखता था. जहां उसकी दोस्ती कुछ बच्चों से हो गई. उन्हीं बच्चों में एक लड़का था जिसे विक्की के नाम से लोग बुलाते थे. धीरे धीरे पप्पू यादव की नजदीकियां विक्की के साथ बढ़ने लगी. बांकीपुर जेल में रहते हुए ही विक्की ने पप्पू को अपने घर का एलबम दिखाया. जिसमें पप्पू यादव ने विक्की की बहन रंजीत की टेनिस खेलती तस्वीर देखी फोटो देखकर वो रंजीत पर फिदा हो गया. अब तक जिसकी फ़िज़ा बारूद की गंध से पहचानी जाती थी, उसकी आबो हवा अब मोहब्बत के तरानों से गूंजने लगी थी. पप्पू यादव प्यार में क़ैद हो चुका था और उसकी हसरत थी कि वो अगर अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाएगा तो वो सिर्फ रंजीत ही होगी.


यादवों में अपना वर्चस्व कायम कर चुके पप्पू यादव की ज़िंदगी में नए पन्ने जुड़े रहे थे. मोहब्बत के साथ वो सियासत की भी ऊंचाइयां नाप रहा था और 1991 के लोकसभा चुनावों में  पूर्णिया सीट से लोकसभा चुनावों में बतौर निर्दलीय प्रत्याशी ताल ठोकी और पहली बार में ही संसद पहुंच गया. बांकीपुर जेल से रिहा होने के बाद पप्पू हर दिन उस टेनिस क्लब पर जाता जहां रंजीत खेला करती थी, रंजीत की तरफ से हमेशा ना ही कहा गया लेकिन कहते हैं कि जब पप्पू ने नींद की गोलियां खाकर खुदकुशी की कोशिश की तो रंजीत का दिल पिघल गया, बात थोड़ी आगे बढ़ी.


एक सिख परिवार को इस शादी के लिए राज़ी करना सबसे टेढ़ी खीर थी और पप्पू ने रंजीत का साथ पाने के लिए सालों कोशिश की और आखिर में एसएस अहलूवालिया के दखल के बाद फरवरी 1994 में दोनों शादी के बंधन में बंध गए. कभी कश्मीरी पंडित रहे और बाद में सिख धर्म अपनाने वाले जूतों के एक कारोबारी के घर रंजीत पैदा हुई थी. वैसे तो रंजीत रिवा में पैदा हुई, जम्मू में बड़ी हुई, पंजाब में पढ़ाई की और दिल्ली में बस गई. हालांकि कहते ये भी हैं कि पप्पू यादव ने रंजीत को अगवा कर लिया था और दोनों फरार होकर शादी कर लिए, ये भी कहा जाता है कि पप्पू यादव ने रंजीत से शादी करने के लिए अपना धर्म भी बदल लिया.


1996, साइकिल पर सवार हुआ पप्पू


भले ही लालू यादव की नज़दीकियां पप्पू यादव को सियासत में लेकर आईं, लेकिन पप्पू ने अपनी सियासी ज़मीन ख़ुद तैयार की. हालांकि किसी पार्टी की सरपरस्ती पप्पू ने अब तक नहीं ली थी लेकिन मुलायम सिंह के करीब आने पर समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया. पप्पू यादव चुनावी मैदान में उतरा और साल 1996 के लोकसभा चुनावों में पूर्णिया से रिकॉर्ड 3 लाख 16 हज़ार 155 वोटों से जीत दर्ज की, लेकिन यही पप्पू यादव साल 1998 में पूर्णिया से हार गया, पिछले 9 सालों में पप्पू यादव की पहली सियासी हार थी.


1998, अजीत सरकार की हत्या


अजीत सरकार को पूर्णिया के सुभाष चौक पर गोलियों से भून दिया गया. जांच में पप्पू यादव का भी नाम आया. आरोप लगा कि पप्पू यादव ने गोरखपुर के गैंगस्टर राजन तिवारी और अनिल यादव के साथ मिलकर 14 जून 1998 को इस घटना को अंजाम दिया. माकपा नेता अजीत सरकार के शरीर से 107 गोलियां निकली थीं.



सरकार एक लोकप्रिय नेता थे जो विधायक भी रह चुके थे और चुनाव लड़ने के लिए वो चौराहों पर लाल गमछा बिछा देते थे, जिसमें पब्लिक से एक रूपए का सिक्का देने की अपील की जाती और उसी से अजीत सरकार चुनाव लड़ते थे. 



अजीत सरकार की हत्या से उनके समर्थकों और उन्हें चाहने वालों में गुस्सा भर दिया और वो हिंसा करने पर उतारू हो गए. तब लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले के चलते सीएम की कुर्सी से उतर चुके थे और राबड़ी देवी सीएम बन चुकी थीं, अपनी पत्नी का कर्तव्य पालन करने के लिए लालू प्रसाद यादव हेलिकॉप्टर से पूर्णिया पहुंचे और लोगों को शांत कराया.


इंस्पेक्टर की हत्या का आरोप


12 फरवरी 1999 को दिल्ली पुलिस ने धौलपुर से भारतीय जनता पार्टी के सांसद गंगा राम कोली के घर से गोरखपुर के एक कुख्यात अपराधी और श्री प्रकाश शुक्ला गैंग से ताल्लुक रखनेवाले गैंगस्टर राजन तिवारी को गिरफ़्तार किया. उसने दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच को पूछताछ में बताया कि उसे 15 लाख रूपयों में समाजवादी पार्टी के नेता डी पी यादव और सांसद पप्पू यादव ने हायर किया था और गाज़ियाबाद में तैनात यूपी पुलिस के इंस्पेक्टर प्रीतम सिंह की सुपारी दी थी, जिन्हें नवम्बर 1998 में राजन तिवारी और उसकी गैंग में शामिल मुन्ना शुक्ला, रितेश तिवारी और लल्लन सिंह ने मार दिया.


राजन तिवारी ने ये भी बताया कि इसका प्लान पप्पू यादव के घर पर बना था और प्लान में डीपी यादव और पप्पू यादव के साथ एक राजपाल त्यागी भी शामिल था. दरअसल डीपी यादव को ख़बर मिली थी कि उसके भाई को मारने वाले अपराधी को इंस्पेक्टर प्रीतम सिंह ने ही जेल से बाहर निकाला था, इसीलिए डीपी यादव ने प्रीतम की हत्या कर अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश की थी. राजन तिवारी ने एक और खुलासा दिल्ली पुलिस के सामने किया कि पप्पू यादव, डीपी यादव और प्रताप मलिक ने नैनी जेल में बंद मुन्ना बजरंगी को भी मारने की सुपारी उसे दी थी लेकिन वो इसे पूरा नहीं कर सका.


हत्या के आरोप में गिरफ़्तार


मई 1999 में पप्पू यादव को अजीत सरकार की हत्या करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया और जेल भेज दिया गया. इससे पहले भी तीन मामलों में पप्पू यादव की गिरफ़्तारी का वारंट निकला लेकिन हर बार अग्रिम ज़मानत लेकर पप्पू यादव जेल की सलाखों से बचता रहा था, लेकिन इस बार सुप्रीम कोर्ट ने उसकी अग्रिम ज़मानत की याचिका को खारिज कर दिया था.


अटल बिहारी बाजपेयी की एनडीए सरकार इसी साल धराशायी हो गई और साल के अंत में फिर लोकसभा चुनाव हुए, पप्पू यादव फिर से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर उतरा और भारी अंतर से जीत दर्ज की. पप्पू यादव भले जेल में था लेकिन उसकी मनमानी जारी थी. बीमारी का बहाना बनाकर अक्सर वो जेल से बाहर सरकारी अस्पताल के क़ैदी वार्ड में रहता था जहां उसका दरबार भी लगता था.


पत्नी की सियासी कामयाबी


वैसे तो रंजीत रंजन ने पप्पू यादव से शादी के एक साल बाद ही राजनीतिक गलियारे में अपनी किस्मत आज़माई और 1995 में विधायकी का चुनाव लड़ा लेकिन कामयाबी हासिल नहीं हुई. हालांकि इसके बाद वो अपने पति के साथ चुनाव अभियान में शामिल रहती थीं और 1999 के लोकसभा चुनावों में काफी सक्रिय रहीं. रंजीत रंजन ने राम विलास पासवान की लोक जन शक्ति पार्टी से साल 2004 में बिहार के सहरसा सीट से लोकसभा चुनावों में ताल ठोकी और पहली बार जीतकर वो संसद पहुंची. इसी साल लोक जन शक्ति पार्टी के सिम्बल पर पप्पू यादव भी जेल से ही चुनावी मैदान में उतरा लेकिन पूर्णिया से कड़ी टक्कर के बाद बीजेपी से चुनाव हार गया.


इस चुनाव में मधेपुरा सीट पर कड़ा मुकाबला था. लालू प्रसाद यादव और शरद यादव के बीच और लालू प्रसाद यादव ने शरद यादव को हरा दिया. लालू प्रसाद यादव छपरा सीट से भी जीत चुके थे, लिहाज़ा उन्होंने मधेपुरा सीट छोड़ी और पप्पू यादव को टिकट देकर उप चुनाव में उतार दिया. आरजेडी के टिकट पर पप्पू यादव जीत गया. देश में ये पहली बार हुआ था कि पति पत्नी दोनों एक ही लोकसभा में चुनकर पहुंचे हों.


साल 2004, जेल में पार्टी


पप्पू यादव को भले ही सलाखों के पीछे रखा गया था लेकिन उसका रुतबा कम नहीं हुआ था. जेल से अपनी सरकार चला रहे पप्पू को साल 2004 में नियमित तौर पर ज़मानत मिल गई और वो जेल से बाहर आ गया लेकिन 26 सितम्बर 2004 को पप्पू यादव पार्टी मनाने के लिए जेल में घुसा और वहां अपने करीब 50 समर्थकों के साथ पार्टी मनाई. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सख़्ती दिखाई, दो संतरी और जेल वॉर्डन को सस्पेंड कर दिया गया.


18 जनवरी 2005 को सुप्रीम कोर्ट ने राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव को ज़मानत देने के पटना हाईकोर्ट के फ़ैसले को रद्द कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में साफ तौर पर कहा कि हाईकोर्ट का पप्पू यादव को ज़मानत देने का फ़ैसला गलत था क्योंकि अभी अजीत सरकार हत्याकांड में कई लोगों से पूछताछ होनी बाकी है और इस स्थिति में पप्पू यादव को ज़मानत देने से न्याय प्रक्रिया में बाधा आ सकती है. सुप्रीम कोर्ट में 7 बार हाईकोर्ट से पप्पू यादव की ज़मानत याचिका खारिज करने को भी आधार बनाया गया.


बेऊर जेल में बंद पप्पू यादव के व्यवहार को लेकर भी सवाल उठे. जेल में पप्पू के पास से मोबाइल फ़ोन मिला और ये भी पता चला कि पप्पू ने मोबाइल फ़ोन से कई अहम लोगों से बात की थी. सीबीआई को शक था कि पप्पू यादव केस को प्रभावित कर सकता है, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने उसकी असंवैधानिक गतिविधियों को देखते हुए सीबीआई को आदेश दिया कि पप्पू यादव को पटना के बेऊर जेल से किसी और जेल में शिफ़्ट करने को लेकर सुझाव दे.


एक महीने बाद ही पप्पू यादव को पटना के बेऊर जेल से दिल्ली के तिहाड़ जेल में शिफ़्ट कर दिया गया.


लेखक पप्पू यादव


तिहाड़ जेल में रहते हुए पप्पू यादव ने एक किताब लिखी जिसमें उसने भगत सिंह को अपना आदर्श बताया. “द्रोह काल का पथिक” नाम से लिखी इस किताब में पप्पू यादव ने सनसनीखेज़ दावा किया कि साल 2001 में नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस यानी एनडीए में तीन सांसदों को शामिल करने के लिए तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने पैसे बांटे थे. किताब में ये भी दावा किया गया कि सांसद अनवारुल हक को एक एसेंट कार और एक करोड़ रुपए दिए गए थे.


इसके अलावा पप्पू यादव ने ये भी आरोप लगाए कि साल 2008 में यूपीए सरकार के विश्वस मत परीक्षण को लेकर कांग्रेस और बीजेपी दोनों पार्टियों ने समर्थन हासिल करने के लिए सांसदों को 40-40 करोड़ रूपए देने की पेशकश की थी.


उम्र क़ैद की सज़ा


14 फरवरी 2008 को पटना की स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने अजीत सरकार मामले में फ़ैसला दिया और पप्पू यादव के साथ पूर्व विधायक राजन तिवारी को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई. हालांकि 11 महीने बाद 21 फरवरी 2009 को पप्पू यादव को लोकसभा चुनावों से ठीक पहले हाईकोर्ट से ज़मानत मिल गई और वो जेल से बाहर आ गया.



लोकसभा चुनावों में सज़ायाफ़्ता पप्पू यादव नहीं उतर सका क्योंकि हाईकोर्ट ने पप्पू यादव के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी. लेकिन उसकी पत्नी ने दूसरे टर्म के लिए 2008 में ही बनी सुपौल लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा लेकिन रंजीत रंजन को हार का सामना करना पड़ा. अगस्त 2010 में पप्पू यादव को फिर जेल भेज दिया गया. 


अजीत सरकार केस में बरी


उम्र क़ैद की सज़ा काट रहे पप्पू यादव को हाईकोर्ट से राहत मिली. हाईकोर्ट ने सबूतों के अभाव में 17 मई 2013 को हाईकोर्ट ने पप्पू यादव, अनिल यादव और राजन तिवारी को बरी कर दिया और 21 मई 2013 को पप्पू यादव जेल से बाहर आ गया. इसके बाद 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ने की आज़ादी मिल गई और साल 2014 में पति-पत्नी दोनों ने चुनावी ताल ठोकी और सुपौल से रंजीत रंजन कांग्रेस के टिकट पर और मधेपुरा सीट से आरजेडी के टिकट पर पप्पू यादव ने जीत दर्ज की. दिलचस्प बात ये है कि जिस शरद यादव के प्रचार अभियान में कभी पप्पू यादव उनकी खुली जीप चलाते थे, वही शरद यादव 2014 के लोकसभा चुनावों में पप्पू यादव से हार गए.



राजनीतिक पतन की शुरुआत


2014 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भगवा की बयार बही और भारी बहुमत से बीजेपी ने सरकार बनाई. इसके बाद पूरे देश में सियासी समीकरण बदल गए, बिहार में भी इसका असर दिखा और लालू प्रसाद यादव को कमज़ोर पड़ता देख पप्पू यादव उनकी राजनीतिक विरासत संभालने के आगे आए लेकिन लालू से विवाद हुआ और पप्पू ने यहां तक कह दिया कि लालू प्रसाद यादव उसकी हत्या करने की साज़िश कर रहे हैं. मई 2015 में पप्पू को पार्टी विरोधी गतिविधि करने के आरोप में पार्टी से निकाल दिया गया.


इसके बाद साल 2015 में विधानसभा चुनाव से पहले पप्पू यादव ने अपनी एक पार्टी बनाई जन अधिकार पार्टी. पप्पू यादव ने सभी 243 में से 109 सीटों पर कैंडिडेट उतारे लेकिन 108 उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गई. एक भी कैंडिडेट जीत नहीं सका. 2019 के लोकसभा चुनावों में अपनी ही पार्टी के कैंडिडेट के तौर पर पप्पू यादव मधेपुरा सीट से उतरे, लेकिन जो पप्पू यादव कभी 3 लाख से ज़्यादा वोटों से जीतकर संसद पहुंचे थे उन्हें महज़ 97 हज़ार वोट ही मिले, शरद यादव से करीब 2.5 लाख वोट कम और जीतने वाले जेडीयू प्रत्याशी दिनेश चंद्र यादव से करीब 5 लाख वोट कम मिले. वहीं पप्पू यादव की पत्नी रंजीत रंजन को भी सुपौल सीट से हार का सामना करना पड़ा. कांग्रेस के टिकट पर रंजीत रंजन ने चुनाव लड़ा था और जेडीयू से मात मिली.


कोरोना संकट काल में हालांकि पप्पू यादव एक मिशन पर निकल चुके हैं. वो अपनी छवि सुधारने के लिए कभी घुटने पर पानी में लोगों तक राहत सामग्री पहुंचाते दिखते हैं तो कभी बाढ़ में फंसे लोगों को पैसे बांटते दिखते हैं. बिहार के प्रवासियों को बाहर से बिहार आने के लिए खुद की हेल्पलाइन भी पप्पू यादव ने चालू की थी और अब इस बार के विधानसभा चुनाव में पप्पू यादव ने अपनी पार्टी का गठबंधन चंद्रशेखर रावण की पार्टी आजाद समाज पार्टी से की है, हालांकि उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी से गठबंधन कर पाने में पप्पू यादव नाकाम रहे हैं.


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