मुबंई: महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन यानी अनुच्छेद 356 का लगना कोई नई बात नहीं. यह तो चुनाव का हिस्सा ही बन गया है. सरकारें बनती कम बिगड़ती ज्यादा हैं. चुनाव के बाद तो यह मशक्कत और भी लंबी खींच जाती है. मामला कभी किसी की जिद की आहूति के साथ तो कभी राष्ट्रपति शासन के साथ ही खत्म होता है. इस बार भी तकरीबन 20 दिनों के दांवपेंच और खेल के साथ प्रदेश में चुनाव के बाद महाराष्ट्र केन्द्र के अधीन होगा. 



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क्या है राष्ट्रपति शासन ? 


दरअसल, किसी को बहुमत न मिल पाने की सूरत में राज्यपाल कोश्यारी ने एक-एक कर सभी दलों को तो सरकार बनाने का न्योता दिया, लेकिन किसी भी दल की ओर से निश्चित समय-सीमा में सरकार बना पाने का दावा न पेश करने की दशा में राष्ट्रपति शासन का ऐलान कर दिया. अब महाराष्ट्र में सरकार किसी विधानसभा में बैठे नुमांइदे नहीं बल्कि राजभवन में बैठे राज्यपाल चलाएंगे. सवाल यह जरूर उठ सकता है कि अगर राज्यपाल प्रदेश के सर्वेसर्वा होंगे तो ऐसी सूरत में इसे राष्ट्रपति शासन क्यों कहा जाता है. जवाब बड़ा आसान है. राष्ट्रपति शासन में प्रदेश के इंचार्ज गवर्नर होते हैं, राज्य में अध्यादेश, कानून और व्यवस्था को बनाए रखने की जिम्मेदारी इनकी ही होती है लेकिन असल में राज्यपाल अपने कार्यों की पूरी जवाबदेही राष्ट्रपति को देंगे, ऐसा नियम कहता है.


कितने समय तक लगा रहेगा प्रेसिडेंट रूल


हालांकि, महाराष्ट्र में अगर राष्ट्रपति शासन लग भी जाता है तो वह 6 महीने तक वैध होगा. इसके बाद राष्ट्रपति के आदेशानुसार और राज्यपाल के सलाह-मशवरे से अगर चुनाव कराने की स्थितियां रहती हैं तो चुनाव दोबारा कराए जाते हैं या अगर गवर्नर ने चुनाव न कराने का सुझाव दिया तो राष्ट्रपति उस पर विचार कर प्रेसिडेंट रूल की आयुसीमा और 6 महीने के लिए बढ़ा सकते हैं. कायदे से देखा जाए तो नियम यह भी है कि राष्ट्रपति शासन ज्यादा से ज्यादा दो साल तक ही रह सकता है. हर 6 महीने के बाद इसे बढ़ाया जाता है.  


राष्ट्रपति शासन का विरोध क्यों कर रही हैं पार्टियां



दरअसल, महाराष्ट्र में भाजपा को सबसे अधिक 105 सीटें मिली लेकिन शिवसेना के 50-50 फार्मूले की जिद के बाद एनडीए की सरकार बनते-बनते रह गई. इसके बाद न ही शिवसेना न ही एनसीपी और कांग्रेस मिलकर सरकार बना सकी. इसके बाद राष्ट्रपति शासन का रास्ता तय हुआ. तीनों ही दल सरकार और राज्यपाल पर यह आरोप लगाने लगे कि यह साजिश के तहत किया जा रहा है. बहरहाल बात यह भी है कि सरकार न बना पाना लोकतंत्र का अपमान होता है. हालांकि, यह नैतिक बातें हैं जिसकी कोई भी सरकार सत्ता पाने के लिए धज्जियां उड़ाते रहती है. राष्ट्रपति शासन का विरोध चुने हूए प्रतिनिधि ज्यादा करते हैं. जाहिर है करना भी चाहिए जनता ने वोट दे कर जिताया है और ऐसे में विधानसभा से मिल रहे भत्ते और वेतन से भी तो वंचित रह जाएंगे. इसके अलावा सत्ता या विपक्ष में रहकर न तो नए फैसले लिए जा सकते हैं, न नए नियम बनाए जा सकते हैं और न ही विपक्ष में रहकर उन नियमों और फैसलों की आलोचना की जा सकती है. 


महाराष्ट्र में चुनाव के बाद का खेल दिलचस्प



महाराष्ट्र में यह पहली बार नहीं जब राज्यपाल को ही कमान संभालनी पड़ रही हो. इससे पहले भी 2 बार राज्य ने राष्ट्रपति शासन को देखा और महसूस किया है. दिलचस्प बात तो यह है कि हर बार चुनाव के बाद स्थितियां यूं ही रहती हैं कि महाराष्ट्र में फिर प्रेसिडेंट रूल ही लगेगा. लेकिन राजनीतिक पंडित कहते हैं कि शायद महाराष्ट्र को माहौल बनाए रखने की आदत है या दलों के नखरे बड़ी ज्यादा हैं. हर पार्टी अपने दल से मुंबई को चलाने की चाबी रखना चाहती है. किसी भी राज्य के लिए इससे बुरा कुछ भी नहीं कि चुनाव के बाद राष्ट्रपति शासन लग जाए और हालिया राजनीतिक परिदृश्य में तो भाजपा चाहे महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन से खुश हो लेकिन शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस को यह कतई मंजूर नहीं.