नई दिल्लीः राजनीति में अगर विरासत कोई चीज होती है तो नेताओं को ये बात शायद सबसे अच्छे से समझ आती होगी की इस 'जागीर' की वैलिडिटी की कोई गारंटी नहीं होती है. सियासत एक झटके में बदलने वाला खेल है.अनगिनत ऐसे उदाहरण हैं जब हमने देखा है कि हाथ लहराकर सियासी रुख बदलने वाले नेताओं का जलवा कुछ ही समय बाद ऐसा होता है कि उन्हें अपनी सीट बचा पाना भारी हो जाता है. 


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ऐसे ही नहीं कहते हैं कि राजनीति वक्त का खेल है और नेता वही बड़ा है जो हर वक्त को साध सके. ऐसी ही एक दिलचस्प कहानी है महाराष्ट्र की. इस किस्से की धुरी में हैं शिवसेना, कांग्रेस और राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले शरद पवार. बस कहानी आगे जानने से पहले ये जान लीजिए कि आज ये तीनों अपने सियासी वजूद को बचाने में जुटे हैं लेकिन कभी कहानी बिलकुल इसके उलट थी.


जब शरद पवार ने कांग्रेस का साथ छोड़ा और फिर जुड़े
स्कूल के दिनों से ही राजनीति का लोहा मनवाने वाले शरद पवार की सियासी समझ को आप इसी बात से आंक सकते हैं कि मात्र 27 साल की उम्र में पहली बार विधायक बनने के बाद 1978 में 38 साल की उम्र में शरद पवार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए थे. ऐसा करने के लिए उन्होंने तब कांग्रेस को झटका दिया था और जनता पार्टी से हाथ मिलाया था.लेकिन ये सरकार ज्यादा दिन नहीं चली और इंदिरा गांधी के सत्ता में फिर आते ही 1980 में इसे बर्खास्त कर दिया गया.


अब शुरू हुई नई कहानी...
पवार ने अब महाराष्ट्र की राजनीति के साथ ही दिल्ली की ओर रुख करना शुरू किया. 1983 में उन्होंने बारामती से लोकसभा का चुनाव जीता.लेकिन 1985 में हुए विधानसभा चुनाव में भी वो चुनाव जीते तो उन्होंने राज्य की राजनीति को महत्व देते हुए सांसदी से इस्तीफा दे दिया.वह महाराष्ट्र के नेता विपक्ष बन गए. 


'बगावत' का नहीं हुआ असर
1985 से 87 आते-आते एक ओर शरद पवार को जहां ये समझ आने लगा था कि कांग्रेस से बगावत का उनका कदम इतना प्रभावी नहीं रहा है वहीं दिल्ली में कांग्रेस को भी ये समझ आने लगा था कि महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना को मात देने के लिए शरद पवार का साथ जरूरी है. ऐसे में दो जरूरतमंदों ने फिर एक साथ आने का रास्ता चुना.


तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शरद पवार को दिल्ली बुलाया और 1987 में शरद की फिर कांग्रेस (आई) में वापसी हो गई. लेकिन  इस वापसी के बाद शरद पवार ने एक बयान दिया था जो आज 37 साल बाद यह समझाने के लिए काफी है कि राजनीति कितने करवट बदलती है.


वो बयान जो राजनीति का आईना है..
शरद पवार ने जब कांग्रेस के साथ वापसी की तो उन्होंने कहा कि वह महाराष्ट्र में कांग्रेस कल्चर को बचाना चाहते हैं और शिवसेना के बढ़ते प्रभाव को रोकना चाहते हैं. कांग्रेस को इसका फायदा भी मिला और 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस को महाराष्ट्र की 48 में से 28 सीटें मिलीं.


लेकिन आज कहानी कितनी अलग है तब बीजेपी और शिवसेना एक साथ थी. कांग्रेस और शरद पवार इन दोनों को रोकने की कोशिश में थे. आज कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव) और शरद पवार तीनों की कहानी अलग है. ठाकरे और शरद पवार की एनसीपी दोनों में टूट हो गई है. यानी जिस महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार चक्रव्यूह रचते थे आज उसी में वो घिरे नजर आ रहे हैं.   


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