Anand Bakshi Special: संगीत की दुनिया में एक से एक धुरंधर हमने देखे हैं, लेकिन आनंद बख्शी के शब्दों के लिखे गीत अक्सर ही कोई न कोई हमारे आसपास गुनगुनाता दिख जाता है. उन्होंने अपने 1962 से 2002 तक के करियर में 3300 से भी ज्यादा गीतों को अपने शब्दों से सजाया है. आज का कोई भी लिरिस्ट या शायर उनके आस-पास तक भी नहीं पहुंच पाता. आनंद बख्शी के लिखे गानों में जिंदगी का हर पहलू दिख जाता था. वह जितनी खूबसूरती और सरलता से जिंदगी का फलसफा अपने गानों में उतारते थे, उतने ही सरल व्यक्ति वह असल जिंदगी में भी थे.


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बहुत शरारती में थे आनंद बख्शी


21 जुलाई 1930 को आनंद बख्शी का जन्म अविभाजित भारत में रावलपिंडी में हुआ था. मां प्यार से नंद पुकारा करती थीं. सिर्फ 6 साल की उम्र में आनंद ने अपनी मां को खो दिया था. आनंद के बारे कहा जाता है कि बचपन में वह बहुत शरारती हुआ करते थे. रावलपिंडी में वह अपने दोस्तों के साथ खूब गाना बजाना किया करते थे. ऐसे में बचपन से ही उनके मन में संगीत की दुनिया में आकर्षित करने लगी थी. अपने इसी सपने को पूरा करने के लिए एक दिन आनंद ने सभी दोस्तों के साथ एक प्लान बनाया.


आनंद बख्शी ने बेच दी थीं स्कूल की किताबें


आनंद और उनके दोस्तों ने तय किया कि वह अपने स्कूल की किताबें बेचकर ट्रेन लेकर बम्बई पहुंच जाएंगे. योजना के मुताबिक वह किताबें बेचकर रावलपिंडी स्टेशन पर पहुंच गए. हालांकि, आनंद के दोस्त स्टेशन पर आए ही नहीं और उनमें उतनी हिम्मत नहीं थी कि वह अकेले किसी अंजान शहर में चले जाते. वहीं, जब घरवालों को उनकी इस हरकत के बारे में पता चला तो जाहिर तौर पर खूब पिटाई भी हुई.


मुक्केबाजी क्लास में हो गए शामिल


परिवार ने आनंद बख्शी को सुधारने के लिए उन्हें जम्मू बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया. यहीं पर आनंद की जिंदगी और दिलचस्प हो गई. बोर्डिंग स्कूल आते ही आनंद ने मुक्केबाजी में दाखिला ले लिया और इसका कारण था रोज एक ग्लास दूध. दरअसल, मुक्केबाजों को हर दिन स्कूल की तरफ से एक ग्लास दूध दिया जाता था. हालांकि, मुक्केबाज कोच इतना जालिम था कि वह एक मुक्केबाज को चुनता और उसे तब तक पीटता था जब तक वह बेहोश न हो जाए.


चालाकी पड़ गई भारी


बख्शी साहब ने एक बार खुद जिक्र करते हुए बताया था, 'मैं हर बार किसी तरह कोच की नजरों से बच जाता करता था और बहुत चालाकी से दस्ताने पहनने के बदले एक गिलास दूध पीता रहा. कई महीनों तक यही सब चलता रहा. फिर एक दिन कोच की नजर मुझ पर पड़ ही गई. मुझे देखते ही उन्होंने कहा, 'तुम्हें पहले तो कभी नहीं देखा. चलो मैं तुम्हें बताता हूं कि एक मर्द की तरह कैसे अपना बचाव करते हैं.' इसके बाद उन्होंने इतना मारा कि मैं बेहोश हो गया और यह मेरा मुफ्त का दूध पीने का आखिरी दिन बन गया.'


नेवी और आर्मी में रहे आनंद बख्शी


गौरतलब है कि जब आनंद बख्शी 14 साल के हुए तब उन्हें रॉयल इंडियन नेवी में शामिल कर दिया गया था, लेकिन आनंद बख्शी को कुछ ही समय से यहां बाहर भी निकाल दिया. इसके बाद उन्होंने आर्मी ज्वॉइन कर ली. हालांकि, भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के दौरान आनंद बख्शी अपने परिवार के साथ दिल्ली आ गए. आनंद बख्शी ने 1947 से 1950 तक आर्मी में रहकर देश की सेवा की. इस दौरान उन्होंने पहली बार कविताएं लिखनी शुरू की.


60 कविताएं लेकर मुंबई आए थे आनंद बख्शी


वहीं, आनंद के दिल के किसी कोने में एक सपना जागने लगा था और सपना था फिल्मों में गायक बनने का. कहते हैं कि 1950 में वह फौज की नौकरी छोड़ अपने इसी सपने को साकार करने के लिए मायानगरी मुंबई पहुंच गए. भूतपूर्व फौजी होने के कारण आनंद बख्शी के पास कैप्टन वर्मा की लगाई सिफारिश का खत था. इसके अलावा वह अपने साथ लाए थे 60 खूबसूरत कविताओं का खजाना.


ऐसे खुली किस्मत


हालांकि, इतना सब काफी नहीं थी, लेकिन आनंद ने तय कर लिया था कि वह यहां रहकर कुछ भी करेंगे, लेकिन इज्जत रोटी कमाए बिना यहां से वापस नहीं जाएंगे. इसके बाद उन्होंने पेट पालने के लिए छोटे-मोटे जो भी काम मिले सब करने शुरू दिए. वहीं, वह फिल्मों में काम पाने के लिए भी संघर्ष करते रहे. इस दौरान वह सिर्फ गाने लिखते रहते हैं. संघर्ष के दिनों में वो दिन आ गया जिसका आनंद बख्शी को इंतजार था. भगवान दादा ने अपनी फिल्म 'भला आदमी' में 4 गाने लिखने का मौका आनंद को दे दिया.


आखिरी दिनों में भी किया काम


भगवान दादा की फिल्म में आनंद बख्शी के दिए चारों ही गाने फिट हो गए. इसी के साथ उनके करियर की गाड़ी भी निकल पड़ी. देखते ही देखते आनंदी बख्शी को कई प्रोजेक्ट्स मिलते गए. आनंद को अपने काम से इतना प्यार था कि वह चाहते थे कि अपनी जिंदगी के आखिर दिन भी गाने लिखते-लिखते ही चले जाए. हुआ भी कुछ ऐसा ही अपने आखिरी दिनों में निधन से 2 महीने पहले तक आनंद बख्शी ने 9 गाने लिखे थे, जो सुभाष घई और अनिल शर्मा जैसे डायरेक्टर्स के लिए लिखे गए थे. इसके बाद उन्होंने 30 मार्ची, 2002 को हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं.


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