नई दिल्लीः 29 मई 1972 की दोपहर थी. मुंबई (Mumbai) का उपनगर है माटुंगा (Matunga). कहने को तो यह छोटा से उपनगरीय रेलवे स्टेशन (Railway Station) और हॉल्ट है,
लेकिन जानने वाले जानते हैं कि एक जमाने में यह पॉश और खास एरिया हुआ करता था और यहीं था पृथ्वीराज कपूर(Prithviraj Kapoor) का घर. तारीख के इस साये वाले दिन में माटुंगा (Matunga) चहल-पहल से तो भरा था, लेकिन उसमें कोई शोर नहीं था, कोई आवाज नहीं थी. 


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माटुंगा का वह एक दिन
इसकी वजह भी कुछ देर में साफ हो गई. दोपहर बाद सफेद लंबी गाड़ी एक घर के आगे आकर रुकी और उससे जो भी उतरा उनकी आंखें तर थीं. सफेद कपड़े में लिपटी एक काया को जमीन पर रख दिया गया.



बड़ा बेटा, हिम्मत करके मां के पास गया. बोला- मां, पिताजी आ गए हैं, पर मां, शव के अंतिम दर्शन नहीं करना चाहती थीं. 


रह-रह कर उनके कानों में गूंज पड़ती थी कई आवाजें, कभी कोई बांका नौजवान कहता कि हमने आज तक किसी को सलाम नहीं किया लेकिन आप बहादुर हैं.


हम आपको सलाम करते हैं. तो कभी एक संजीदा बुजुर्ग शहंशाह कहता कि बाखुदा, हम मोहब्बत के दुश्मन नहीं, अपने उसूलों के गुलाम है. एक गुलाम की बेबसी पर गौर करोगी तो शायद तुम हमें माफ कर सको. 


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जब नहीं रहे पृथ्वीराज कपूर 
आप कहेंगे कि अरे यह तो 1941 कि मशहूर फिल्म सिकंदर का डॉयलॉग है, और दूसरा वाला तो मुगल-ए-आजम ने कहा है. तो जो शख्स सामने भूमि पर था वह भी कोई और नहीं हिंदी सिनेमा की धरती पर राज करने वाला पृथ्वीराज कपूर (Prithviraj Kapoor) था.


कैंसर से निधन होने के बाद उनकी पत्नी रामसरनी देवी ने उन्हें विदा नहीं किया, बल्कि महज 16 दिनों के बाद (14 जून) ही वह भी उसी राह पर चली गईं. 


जिनके सामने शो मैन राजकपूर नहीं ठहरते
पृथ्वीराज कपूर (Prithviraj Kapoor) का सिनेमा और थियेटर में योगदान देने वाली जितनी बातें की जाएं कम हैं. इतने सालों बाद वह बातें अब करनी भी बेमानी से लगेंगी, क्योंकि यह केवल बार-बार दोहराया किस्सा सा लगेगा.


लेकिन उनकी संजीदगी, उनकी खुशदिली, अभिनय को लेकर उनका जुनून और सिर्फ काम को बुलंदी पर रखने का आमादगी उन्हें ऐसा बनाती है कि दूसरों की तो क्या ही कहें, खुद उनके बड़े बेटे राजकपूर (Raj Kapoor) उनके सामने नहीं ठहरते थे. 


पिता-पुत्र का एक किस्सा
जिसे दुनिया शो मैन कहने लगी थी, वह पृथ्वीराज कपूर का बेटा था और बेटा ही रहा. एक किस्सा कहा जाता है कि फिल्म इंडस्ट्री में पृथ्वीराज कपूर (Prithviraj Kapoor) और राजकपूर (Raj Kapoor) आदर्श पिता-पुत्र रहे हैं. इसकी एक बानगी है. एक बार राजकपूर किसी फिल्म की सफलता के बाद देर रात पार्टी करके लौटे. शराब पी रखी थी.



रात के बज रहे थे 1 से आगे. दरवाजे पर खटका हुआ. बॉलकनी में निकलकर बड़े कपूर साहब ने निकलकर पूछा- कौन है? फिर नीचे देखा तो बोले, ओह-आता हूं... राजकपूर ने लड़खड़ाती जुबान में कहा- आप नीचे मत आइए. मैं ही आप तक पहुंचने की कोशिश करता हूं. वाकई राजकपूर ने यह कोशिश की थी, क्योंकि एक समय बाद लोग पृथ्वीराज कपूर को राज कपूर का पिता कहने लगे थे. 


इतिहास में यह सौभाग्य अकेला मौर्य वंश के शासक बिंदुसार को मिला है, जिसे इतिहास लिखने वालों ने महान पिता का पुत्र-और महान पुत्र का पिता कहा है. यकीनन फिल्मी दुनिया में यह रुतबा राजकपूर के हिस्से आया. वह महान पिता के पुत्र कहलाए. 


बात मुगल-ए-आजम की
एक किस्सा फिल्म मुगल-ए-आजम (Mughal-E-Azam) के दौर का भी याद करना चाहिए. सलीम बने थे दिलीप कुमार और अनारकली की अदाओं को निखार रही थीं मधुबाला. फिल्म बनते-बनते दोनों की झोली में स्टारडम भर चुका था.


फिल्म पूरी होने के बाद क्रेडिट्स लिखे जा रहे थे. फिल्म क्रिटिक्स की जुबानी बात यूं है कि दिलीप और मधु इस बात के लिए उखड़ गए कि अरे- हीरो-हीरोइन तो वह हैं, क्रेडिट्स में पृथ्वीराज कपूर का नाम पहले और उनसे ऊपर क्यों आए भला? 


के. आसिफ ने नहीं मानी बात
सेट पर नाराजगी वाली यह बात हवा में घुल गई और हर कान से रूबरू हुई. इसके झोंके जब पृथ्वी साहब (Prithviraj Kapoor) के पास पहुंचे तो उन्होंने निर्देशक से कहा- कोई बात नहीं आसिफ साहब, दे दो- पहले उनका ही नाम दे दो. के आसिफ एक तो यूं ही किसी की न सुनने वाले दूसरे इटावा की अक्खड़ता. बोले- नहीं कपूर साहब.


ऐसी कोई दलील नहीं चलेगी. ये दोनों भूल रहे हैं कि यह फिल्म मुगल-ए-आजम है, सलीम-अनारकली नहीं. हीरो तो आप ही हैं. आप मेरे लीड मैन हैं. बस.... दिलीप-मधुबाला को यह बात समझ में आ गई. क्रेडिट्स में पृथ्वीराज कपूर (Prithviraj Kapoor) का ही नाम ऊपर आया. 


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सिनेमा के शहंशाह का इकबाल बुलंद रहे
पृथ्वीराज कपूर (Prithviraj Kapoor) में स्टार वाले नखरे नहीं थे. मुगल-ए-आजम के सबसे शुरुआती रेत पर चलकर दरगाह जाने वाले सीन को उन्होंने असल में गर्म रेत पर चलकर पूरा किया था. 


3 नवंबर 1906 को तब के पंजाब के लयालपुर में जन्में पृथ्वीराज ने चुपचाप वाली फिल्मों से करियर शुरू किया और दुनिया-जहां में शोर मचा दिया. वह अब हैं नहीं लेकिन फिल्म जगत के शहंशाह का इकबाल बुलंद था, बुलंद है, बुलंद रहेगा. 


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