नई दिल्ली. साल 2013 में जस्टिस बीएस चौहान और जस्टिस एस.ए. बोबडे की बेंच ने इसरत जहां फेक एनकाउंटर के आरोपी आईपीएस अधिकारी पीपी पांडे की अग्रिम जमानत याचिका को खारिज कर दिया. दोनों न्यायाधीशों ने जमानत पर अपना फैसला सुनाया और एक अहम टिप्पणी की. याचिका के खारिज होने से ज्यादा बड़ी वह टिप्पणी थी, क्योंकि देश के दो नामी जज जो कहने को मजबूर हुए वह मकसद से भटक चुकी कानूनी प्रक्रिया की कहानी की केवल हेडलाइन थी. उन्होंने कहा-'हमें अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि कोर्ट के टाइम का बहुत बड़ा हिस्सा सीनियर एडवोकेट और बड़े अपराधियों ने इस्तेमाल कर लिया. शपथ लेते वक्त हम कह सकते हैं कि कोर्ट का केवल 5 फीसदी टाइम ही आम लोगों के लिए है. वो आम लोग जिन्हें 20-30 साल न्याय के लिए इंतजार करना पड़ता है. ये कोर्ट अपराधियों के लिए एक सुरक्षित जगह बन गई है. आप यहां 6-8 बार अग्रिम जमानत के लिए आ सकते हैं. और हमे सुनना पड़ता है.'


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Stalled Wheels of Justice किताब के दूसरे चैप्टर में दर्ज हुई ये टिप्पणी देश के कानूनी सिस्टम की हू-ब-हू तस्वीर पेश करती है. किताब में ऐसी कई टिप्पणियां हैं, जो देश के नागरिक को बराबरी का हक देने वाले कानूनी सिस्टम के भीतर पैठ बना चुके गैरबराबरी के सिस्टम की परतें खोल देती हैं. किताब में कई ऐसे केस दर्ज हैं जहां दशकों तक न्याय के लिए एक व्यक्ति ने इतंजार किया पर जब वो मिला तो वो व्यक्ति नहीं था या था भी तो उस अवस्था में नहीं था कि उस जीत को महसूस कर सके. 


न्याय और आम आदमी के बीच खड़ी मोटी फीस की दीवार को भी इस किताब में लेखक ने थ्योरी के उबाऊ अंदाज में नहीं बल्कि सजीव कहानियों के किस्सों के जरिए बताया है. किताब में दर्ज दो किस्से जब अंत तक पहुंचते हैं तो दिल धक से होता है....और हाथ भगवान की तरफ जाकर जुड़ जाते हैं क्योंकि अगर हम कोर्ट के चक्करों से दूर हैं तो उसमें कृपा भगवान की ही है. क्योंकि कानूनी सिस्टम तो आम आदमी से कोसों दूर है. 


साल 2013 दो केस -3 दशक बाद आया फैसला
पहला केस-कानपुर का था. एक पोस्टमैन जिस पर 1984 के दौरान 57 रु. 60 पैसे की बेईमानी करने का आरोप लगा था. पोस्टमैन उमाकांत ने 29 साल तक लड़ाई की. जब कानपुर की मैट्रोपोलिटिन कोर्ट ने ये फैसला सुनाया तब मिश्रा जी 65 साल के हो चुके थे उन्होने ये लड़ाई 36 साल की उम्र में शुरू की थी. लेकिन क्या उन्हें न्याय मिला? पाठक खुद इस कहानी को किताब में पढ़ें और तय करें क्या न्याय का मकसद पूरा हुआ? चोरी के आरोप में सिर झुकाए मिश्रा जी ने 29 साल बिताए, 3 दशक तक उनके बच्चों के बचपन, पत्नी के सम्मान और खुद उनके आत्मसम्मान पर लगे जख्मों का हिसाब क्या पूरा हुआ? 


दूसरी कहानी है, 21 साल के एक लड़के की हत्या की. 4 लड़कों पर उसकी हत्या का आरोप लगा. सबसे छोटा आरोपी था 18 साल का. फैसला तब आया जब 18 साल का वो लड़का 30 साल बाद अधेड़ आदमी बन चुका था. पाठक खुद किताब के पन्ने पलटें और पूरी कहानियां पढ़ें क्या...न्याय का मकसद पूरा हुआ या अधूरा ही रहा। 


मोटी फीस से बनी दीवार...
2016 में फरवरी के पहले हफ्ते तक जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को लोग यूनिवर्सिटी की चहारदीवारी के अंदर ही जानते थे. लेकिन दूसरे हफ्ते में कन्हैया कुमार पब्लिक के बीच सबसे ज्यादा लिया जाने वाला नाम बन गया. देशद्रोह के मुकदमे में नाम आने के बाद कन्हैया कुमार देशभर में चर्चित हो गए. बिहार के  बेगुसराय में रहने वाले एक परिवार का बेटा जिसके पिता पैरालाइज्ड थे और मां आंगनवाड़ी वर्कर, बड़े बड़े राजनेताओं की जुबान पर उसका नाम आ गया.


बेहद सामान्य परिवार से ताल्लुक रखने वाले कन्हैया के बचाव में देश के पूर्व एटार्नी जनरल और मशहूर लॉयर सोली सोराबजी इस केस मे कुमार के डिफेंस में कूद पड़े. इंदिरा जयसिंह, वृंदा ग्रोवर, राजू रामचंद्रन ने कन्हैया को डिफेंड किया. लेकिन अगर कन्हैया कुमार खुद चाहते तो क्या वकीलों की इतनी बड़ी टीम में से एक भी वकील की फीस उठा पाते? अगर मामला जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष से न जुड़ा होता तो क्या वकीलों की ये टीम यूं आकर उसके साथ खड़ी हो जाती? पाठक खुद सोचें...और फैसला करें. 


इसके अलावा पूर्व केंद्रीय मंत्री और चंडीगढ़ से कांग्रेस के वर्तमान सांसद मनीष तिवारी के एक वक्तव्य की भी किताब में चर्चा है. तिवारी ने कहा था- 'वकीलों की मोटी और ऊंची फीस की वजह से केवल गरीब ही नहीं बल्कि अपर मिडिल क्लास भी न्याय से बहुत दूर है.' पत्रकार और रिसर्च स्कॉलर शिशिर त्रिपाठी की इस किताब में न्याय पाने के दौरान आम आदमी की मुश्किलों और दर्द के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है. 


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