नई दिल्ली. साल 2019 के अंत में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद शिवसेना-बीजेपी की पुरानी दोस्ती में रार साफ दिखने लगी. बीजेपी भले ही राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी लेकिन शिवसेना की तरफ से सीएम पद का ढाई-ढाई साल का बंटवारा मांगा जा रहा था. बात नहीं बनी. फिर नाटकीय रूप से देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार की शपथ हुई. लेकिन आखिरकार हुआ वही जो शिवसेना चाहती थी. 


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उद्धव ठाकरे की मर्जी पूरी हो चुकी थी. लेकिन फिर ठाकरे परिवार की तरफ से ऐसा कदम उठाया गया जो अब तक परिवार के 'अनकहे कानून' से इतर था. दरअसल आदित्य ठाकरे को सीएम या डिप्टी सीएम बनाए जाने को लेकर खूब चर्चाएं थीं. लेकिन इसके लिए शिवसेना के नए सहयोगी एनसीपी और कांग्रेस तैयार नहीं हुए. जब बात नहीं बनी तो उद्धव ठाकरे खुद गद्दी पर बैठे. उनके इस फैसले को लेकर देशभर के राजनीतिक जानकारों ने आश्चर्य जाहिर किया. क्योंकि अब तक ठाकरे परिवार की तरफ से राजनीतिक गद्दी पर न बैठने की प्रथा रही है. उद्धव ठाकरे उस प्रथा को तोड़ चुके थे. 


उद्धव ठाकरे का फैसला शिवसेना में कितना लोकप्रिय?
खैर, उद्धव ठाकरे सीएम बने और फिर एनसीपी-कांग्रेस के साथ आपसी समझौते के आधार पर सरकार चलने लगी. अब ऊपरी तौर पर भले ही यह समझौता हो गया हो लेकिन कहा जाता है कि बाल ठाकरे के प्रशंसक शिवसैनिकों में इस फैसले को कभी सही तरीके से नहीं देखा गया. जमीनी स्तर पर एनसीपी-शिवसेना और कांग्रेस के कार्यकर्ता एक नहीं हो सके.  


शिवसेना का आधार है हिंदुत्व, फिर इस मुद्दे पर कैसे घिरे उद्धव?
बीते 19 जून को शिवसेना के गठन की 56वीं वर्षगांठ थी. बीते 56 वर्षों के दौरान शायद ही शिवसेना कभी हिंदुत्व के मुद्दे पर घिरी हो. बल्कि हिंदुत्व पर आक्रामक तेवर ही शिवसेना की पहचान रहे. हाल ही अमरावती से निर्दलीय सांसद नवनीत रवि राणा द्वारा हनुमान चालीसा के पाठ को लेकर महाराष्ट्र में लंबा विवाद हो चुका है. अब एकनाथ शिंदे भी लगातार पार्टी की विचारधारा से समझौते की बातें कर रहे हैं. यानी उद्धव ठाकरे अपनी पार्टी के भीतर ही घिर चुके हैं. 


कांग्रेस के साथ गठबंधन के हिमायती नहीं थे बालासाहेब
इससे पहले भी महाराष्ट्र में यह चर्चाएं रही हैं कि शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस के साथ सरकार बनाकर अपनी विचारधारा के साथ समझौता किया है. बता दें कि खुद बाला साहेब ठाकरे भी कभी कांग्रेस के साथ गठबंधन हिमायती नहीं रहे थे. लेकिन उद्धव ठाकरे ने 2019 में एक जोखिमभरा फैसला लिया था. शायद इस फैसले की वजह से ही आज शिवसेना एक बड़ा विद्रोह देख रही है. 


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