नई दिल्ली: महाराष्ट्र के सियासी घमासान के बीच भले ही शिवसेना के नेता अभी भी बड़े बड़े दावे कर रहे हो, लेकिन एकनाथ शिंदे ने ऐसी सियासी चाल चली है कि सामने वाला चारो खाने चित हो गया है. अब ये सवाल है कि क्या शिवसेना के 38 विधायकों तोड़ने वाले शिंदे पार्टी को पूरी तरह तोड़ पाने में कामयाब हो पाएंगे?


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क्या शिंदे की होगी शिवसेना?


क्या ठाकरे परिवार से छिन जाएगा 'धनुष-बाण'? शिंदे के पास शिवसेना पर कब्जे के लिए क्या रास्ता है? आज की तारीख में महाराष्ट्र की सियासत में ये सबसे ज्यादा सुलगते सवाल हैं. बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना पर कब्जे के लिए उद्धव और बागी एकनाथ शिंदे के बीच जंग जारी है. इस जंग में शिंदे का कुनबा लगातार बढ़ता जा रहा है.


आपको बता दें, पहले बागी विधायकों के गुट को एकनाथ शिंदे ने पहले ही असली शिवसेना बता दिया है. अब ऐसा माना जा रहा है कि शिवसेना के पार्टी चिन्ह धनुष-बाण पर भी शिंदे जल्द दावा कर सकते हैं, लेकिन यहां आपको ये भी समझने की जरूरत है कि पार्टी पर दावा करने भर से शिवसेना शिंदे की नहीं हो जाएगी, इसके लिए नियम-कानून और संविधान बना है.


सबसे पहले कुछ पुराने किस्से याद दिलाते हैं, इनके जरिए समझाते आपको समझने में मदद मिलेगी कि सिर्फ करीबी ही नहीं, बल्कि अपने भाई और दामाद भी पार्टी पर कब्जा कर लेते हैं. बगावत और पार्टी पर कब्जे की कवायद वाली कहानी नयी नहीं है. इससे पहले भी अलग-अलग राज्यों में ऐसा कई बार हो चुका है. आपको ऐसे तीन किस्से जानने चाहिए.


1). जब एनटी रामाराव की पार्टी को उन्हीं के दामाद ने हथिया लिया


ये बात साल 1995 की है, एनटी रामाराव की तेलुगुदेशम पार्टी में उनके खिलाफ उन्हीं के दामाद चंद्रबाबू नायडू ने बगावत की और पार्टी हथिया ली. ये लड़ाई इतनी आसान नहीं थी. आपको पूरी कहानी तफसील से समझाते है. छात्र जीवन से ही सियासत में सक्रिय रहने वाले चंद्र बाबू नायडू ने वर्ष 1978 में वह पहली बार विधानसभा चुनाव में चंद्रागिरि सीट से जीत हासिल की, उनका वर्चस्व इतनी तेजी से बढ़ रहा था कि वर्ष 1981 में उन्होंने टीडीपी संस्थापक और मशहूर फिल्म अभिनेता एनटी रामाराव की बेटी भुवनेश्वरी से ही शादी कर ली.



देखते ही देखते वर्ष 1985 में चंद्रबाबू नायडू को पार्टी महासचिव की जिम्मेदारी दे दी गई. इसके पीछे भी एक कहानी है. वर्ष 1984 की बात है, भास्कर राव ने एनटीआर के खिलाफ विद्रोह कर दिया था, उसे नाजुक परिस्थिति में नायडू ने अपने ससुर की कुर्सी बचा ली थी. माना जाने लगा कि नायडू ही एनटीआर के राजनीतिक वारिस हैं. मगर 1994 में जब नायडू एक बार फिर विधायक बनकर सदन पहुंचे तो उन्होंने खेल करना शुरू कर दिया.


महज एक साल में 1 सितंबर 1995 को उन्होंने अपने ही ससुर को दगा दे दिया. नायडू ने सीएम की कुर्सी और पार्टी दोनों पर कब्जा कर लिया. इसकी वजह ये है कि एनटीआर चाहते थे कि उनकी दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती सियासत में आगे बढ़े, लेकिन नायडू ने ऐसा जोड़-तोड़ और गणित भिड़ाया कि सबकुछ धरा का धरा रह गया और अपने दामाद पर एनटीआर ने पीठ में छूरा घोंपने का इल्जाम मढ़ दिया.


2). जयललिता की मौत के बाद ओ पन्नीरसेल्वम ने AIADMK पर किया कब्जा


ये कहानी साल 2016 की है, अम्मा के नाम से पुकारी जाने वाली जयललिता की 5 दिसंबर, 2016 को मौत हो गई. लेकिन कुछ ही दिनों बात साल 2017 शुरू होते ही घमासान भी शुरू हो गया. ये जंग पार्टी पर कब्जे के लिए थी. जयललिता की मौत के बाद AIADMK का मालिक कौन होगा, इसे लेकर बगावत की आग भड़क गई. ओ पनीर सेल्वम ने बगावत की और पार्टी पर कब्जा कर लिया.



3). जब रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस ने बगावत की और कब्जा किया


इस किस्से को सिर्फ एक साल ही हुए होंगे. 2021 में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी में उनके भाई पशुपति पारस ने बगावत की और पार्टी पर कब्जा कर लिया. हालांकि इस कब्जे में ज्यादा चिराग के चाचा ज्यादा जद्दोजहद नहीं करनी पड़ी. एलजेपी के मुखिया चिराग पासवान को कैसे लगा झटका आपको बताते हैं.



LJP में घमासान जारी था, इसी बीच चिराग को सबसे बड़ा झटका उस वक्त लगा जब लोकसभा अध्यक्ष ने पशुपति पारस को LJP का नेता मान लिया. लोकसभा में पारस लोजपा संसदीय दल के नेता बन गए, क्योंकि 6 में से 5 सांसदों ने पारस को चुना. इसकी वजह आपको समझाते हैं. बिहार विधानसभा चुनावों में चिराग पासवान ने खुद को एनडीए से अलग कर लिया था, उनके सांसदों को इसी बात की नाराजगी थी. नतीजा जो हुआ वो आज सबके सामने है, रामविलास पासवान के भाई ने पार्टी पर कब्जा कर लिया.


किसे मिलेगा धनुष-बाण?


शिवसेना के चुनाव चिन्ह, झंडे और नाम पर दावा ठोंकने के लिए शिंदे को निर्वाचन आयोग से अपील करनी होगी. सिंबल्स ऑर्डर 1968 के तहत चुनाव आयोग फैसला करेगा. आयोग शिंदे और ठाकरे गुट के विधायकों, सासंदों, पार्टी पदाधिकारियों की संख्या और अन्य तथ्यों पर गौर करेगा. इसके बाद बहुमत वाले गुट को पार्टी का चुनाव चिन्ह और नाम आवंटित कर देगा. 


अगर शिवसेना दो फाड़ होती है तो इसकी लड़ाई चुनाव आयोग के पास जाएगी. जिसपर सुनवाई होगी फिर फैसला होगा वो लंबी लड़ाई की प्रक्रिया है. चुनाव आयोग में जो प्रोसीजर होता है वो फॉलो करना पड़ेगा. किसी पार्टी पर कब्जा के लिए ग्रामपंचायत से लेकर संसद सदस्य की मेजॉरिटी देखी जाती है, सिर्फ विधायकों की मेजॉरिटी मायने नहीं रखेगी.


सूत्रों के मुताबिक एकनाथ शिंदे ने अलग गुट बनाने के लिए विधानसभा उपाध्यक्ष से संपर्क किया है. प्रस्ताव के साथ बागी विधायकों के दस्तखत वाले लेटर भी भेजे हैं. 


दल-बदल कानून से कैसे बचेंगे?


एकनाथ शिंदे अलग पार्टी या गुट के रूप में विधानसभा में मान्यता चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले दल-बदल कानून से बचना होगा. इसके लिए शिंदे को शिवसेना के कुल विधायकों में से दो तिहाई यानी 37 विधायकों को अपने पाले में करना होगा. 
अगर किसी भी राजनीतिक दल के दो तिहाई से अधिक लोकसभा या विधानसभा सदस्य पार्टी से बगावत करके अलग गुट बना लेते हैं तो उनकी सदस्यता रद्द नहीं की जा सकती है.


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अगर वो शिवसेना के अंदर रहकर लड़ाई लड़ते हैं, विधायकों का नेता चुनने का जो अथॉरिटी है वो पार्टी अध्यक्ष के पास होता है, जिसपर विधान सभा अध्यक्ष का अधिकार होता है की उसे मान्यता देना है या नहीं.


शिंदे के लिए सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि विधानसभा अध्यक्ष महाविकास अघाड़ी का है. ऐसे में वो बीजेपी से मिलकर पहले स्पीकर का चुनाव करवा सकते हैं जिससे उनकी राह आसान हो जाए. 


लेकिन स्पीकर के चुनाव के लिए सभी को सदन में रहना पड़ेगा, बीजेपी अविश्वास प्रस्ताव की मांग कर सकती है ऐसे में सरकार को सदन में बहुमत साबित करना पड़ेगा. ये डिमांड उद्धव ठाकरे भी कर सकते हैं, अपनी ताकत दिखाने के लिए फ्लोर पर बहुमत साबित करना ही पड़ेगा ये बहुत महत्वपूर्ण है.


जो विधायक बागी होकर गए हैं अगर फ्लोर टेस्ट होता है तो उनके लिए पार्टी व्हिप जारी करेगी और उन्हें आना ही पड़ेगा या तो उन्हें डिसक्वालिफाई कर दिया जाएगा. ऐसे में शिंदे गुट के पास क्या रास्ता बचता है और शिंदे कौन सी बिसात बिछाकर उद्धव ठाकरे को मात दे सकते हैं.


सदन के अंदर अगर विधायक आने से डरते हैं तो वो राज्यपाल और विधानसभा स्पीकर से सुरक्षा मांगकर वोट करने आ सकते हैं. अलग गुट बनाने के लिए स्पीकर तय करेगा और नंबर जांच कर फैसला ले सकता है.


शिंदे के बयानों और कदमों से साफ है कि वो पीछे नहीं हटने वाले हैं. अब तक संख्या बल भी उनके साथ दिख रहा है. लेकिन शिवसेना पर कब्जे की लड़ाई इतनी आसान नहीं. आने वाले दिनों में बाला साहेब की शिवसेना किसकी होगी, इस पर कानूनी लड़ाई भी छिड़ सकती है.


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