नई दिल्लीः भंग का रंग जमा हो चकाचक, फिर लो पान चबाय.... डॉन फिल्म के फेमस गीत की शुरुआत जब इन दो पंक्तियों से हुई तो इसने अपने आप ही यूपी-बिहार की बड़ी भीड़ को सिनेमा हॉल में खींच लिया. होली का माहौल चल रहा है और आने वाले दो दिनों में जब लोग ऊपर ही ऊपर रंग से सराबोर हो रहे होंगे तो अंदर ही अंदर भांग (Bhang) उन्हें सराबोर कर रही होगी.


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एक समय ऐसा भी आता है कि पता ही नहीं चलता कि रंग क्या है और भंग क्या है? पीने वाला भंग के रंग में रहता है और वह बस इतना चाहता है कि इस रंग में भंग न पड़े. 


राग दरबारी में भांग वर्णन


भांग (Bhang) के बारे में हिंदी के हाथोंहाथ लिए गए उपन्यास राग दरबारी ने सबसे खूबसूरत वर्णन किया है. 1970 के दशक में श्रीलाल शुक्ल ने उत्तर प्रदेश के एक गांव की पृष्ठभूमि को पन्ने पर उतारा और इसमें भांग (Bhang) की महत्ता को खास जगह दी. इसमें भांग (Bhang) ऐसी रमी है कि गांव का कोई गरीब बच्चा जिसे गाय-भैंस के दूध का स्वाद भी न पता हो लेकिन वह भांग (Bhang) का स्वाद न जाने ऐसा नहीं हो सकता है. 



लेखक के ही शब्दों में चलें ‘भंग पीनेवालों में भंग पीसना एक कला है, कविता है, कार्रवाई है, करतब है, रस्म है. वैसे टके की पत्ती को चबाकर ऊपर से पानी पी लिया जाए, तो अच्छा-खासा नशा आ जाएगा पर यहां नशेबाजी सस्ती है. पत्ती के साथ बादाम, पिस्ता, गुलकन्द, दूध-मलाई आदि का प्रयोग किया जाए. भंग को इतना पीसा जाए कि लोढ़ा और सिल चिपककर एक हो जाएं, पीने के पहले भगवान शंकर की तारीफ में छंद सुनाए जाएं और पूरी कार्रवाई को व्यक्तिगत न बनाकर उसे सामूहिक रूप दिया जाए.’


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भारतीय समाज में भांग


भारतीय समाज जितने अलग-अलग खांचों और वर्गों में बंटा हुआ है भांग (Bhang) उसी वर्गीकरण के अलग-अलग हिस्से में आती है. 1970 के दशक में लिखा राग दरबारी सच ही कहता है. उस दौर में भांग (Bhang) लोक शैली में ठीक वैसी ही रची हुई थी जैसी लिखी गई है. तब ठाकुरों में भले ही शराब पीने की परंपरा रही हो, लेकिन ब्राह्मण और बनिया वर्ग में इसका निषेध रहा.



लेकिन नशा नहीं करना है पुराणों में इसकी मनाही होते हुए भी यह कभी निषेधाज्ञा में नहीं आया. नशे के लिए भांग (Bhang) एक बड़े तबके लिए सामाजिक रूप से सबसे अधिक स्वीकारा हुआ नशा बन गया. या ऐसे समझिए कि भांग (Bhang) का नशा कभी नशा माना ही नहीं गया. 


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पौराणिक और वैदिक इतिहास 


फिर आया विकास का दौर और बढ़ा शहरीकरण. इसी दौर में खुले जगह-जगह देसी-विदेशी शराब के ठेके और लोगों के शौक बड़े होने लगे. (भांग छोड़कर लोग शराब की ओर बढ़ने लगे) भांग (Bhang) किनारे जा लगी. बात होली की हो या महाशिवरात्रि की. भांग (Bhang) भले ही हमारी चेतना कुंद कर देती है, लेकिन सामाजिक चेतना में अब भी गहराई तक बैठी हुई है. इसके पीछे की वजह सिर्फ पौराणिक नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक भी है. यह वैदिक इतिहास से चला आ रहा है और बड़ी बात यह कि इसे नशा नहीं बल्कि पवित्र पत्तियों का रस माना गया था. 



चार वेदों में आखिरी वेद है अथर्ववेद. इसी के एक हिस्से में आयुर्वेद को जगह मिली है जो कि दुनिया भर की वनस्पतियों में कुछ न कुछ औषधि खोज ही लाता है. भांग (Bhang) भी इससे अछूती नहीं रही. स्क्रॉल की एक रिपोर्ट के मुताबिक वेदों में जिन पांच पौधों को सबसे पवित्र माना गया है उनमें भांग (Bhang) भी अपनी जगह बनाए हुए है. इसके मुताबिक भांग (Bhang) की पत्तियों में देवता निवास करते हैं.



अथर्ववेद कहता है कि यह ‘प्रसन्नता देनी वाली’ और ‘मुक्तिदायी’ वनस्पति है. आयुर्वेद में दर्ज है कि भांग (Bhang) की पौध औषधीय गुणों से भरपूर है. 


छठवीं ईसा पूर्व में रची गई सुश्रुत संहिता भी बताती है कि पाचन क्रिया को दुरुस्त रखने और भूख बढ़ाने में भांग (Bhang) सबसे अहम औषधि है. आयुर्वेद में इसका इस्तेमाल इतना आम है कि 1894 में गठित भारतीय भांग (Bhang) औषधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इसे ‘आयुर्वेदिक दवाओं में पेनिसिलीन’ कहा था. 


हुमायूं खाता था भांग से बनी मिठाई


मध्यकाल के मुगलिया दौर में जब वैद्यों की जगह हकीम शब्द ने ले ली तो उस समय यूनानी चिकित्सा पद्धति भी प्रचलित हुई. लेकिन इस पद्धति को भी भांग (Bhang) ने अपनी ओर खींच लिया. यूनानी चिकित्सा में भी तंत्रिका-तंत्र से जुड़े रोगों जैसे मिर्गी आदि बीमारियों के इलाज में भांग (Bhang) का इस्तेमाल किया जाता था.



रूढ़ियों को मानने वाले मुसलमान भले ही नशे को हराम बताते रहे हों, लेकिन भारतीय मुसलमान इसके शौकीन रहे. मुगल बादशाह हुमायूं भी ‘माजूम’ का शौकीन था. इसे भांग (Bhang) में दूध, घी, आटा और कुछ मीठा मिलाकर बनाया जाता था. कभी-कभी हुमायूं की मौत की वजह वाले हादसे की बात उठती है तो बहुत हद तक आशंका जताई जाती है कि पुस्तकालय की सीढ़ियां उतरते हुए वह शायद माजूम के नशे में रहा हो और संभल न पाया हो.


भांग है दिव्य औषधि


भांग (Bhang) एक बहुत बेहतरीन पेनकिलर भी रही है. सिख योद्धा भी रणभूमि में जाने से पहले भांग (Bhang) का सेवन करते थे ताकि वे पूरी क्षमता से लड़ सकें और घायल होने पर उन्हें दर्द का एहसास न हो. सिखों के निहंग पंथ में आज भी यह परंपरा दिख जाती है. इस पंथ में नशीली दवाओं का सेवन उनके धार्मिक क्रियाओं का ही हिस्सा है.



वीर सावरकर ने जिसे भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहा उस 1857 की क्रांति का इतिहास भी अपने साथ भांग (Bhang) का नशा लिए चलता है. माना जाता है कि मंगल पांडे ने बैरकपुर छावनी में विद्रोह का जो बिगुल फूंका था, उसके पीछे भी भांग (Bhang) की भूमिका थी. जब उनके ऊपर विद्रोह का मुकदमा चल रहा था तब उन्होंने ‘भांग (Bhang) का सेवन और उसके बाद अफीम खाने’ की बात स्वीकार की थी. उनका यह भी दावा था कि विद्रोह के समय उन्हें होश नहीं था कि वे क्या कर रहे हैं.


जब अंग्रेज रह गए थे हैरान


ब्रिटिश (British) राज के समय भी भारत में भांग (Bhang) का सेवन बड़े पैमाने पर चलन में था. अंग्रेज जब भारत आए तो यह देखकर हैरान रह गए कि यहां भांग (Bhang) खाना या पीना कितनी आम बात है. पश्चिमी देश यह मानते थे कि भांग (Bhang) या उसके उत्पाद जैसे गांजा आदि के सेवन से इंसान पागल हो सकता है. इसके बाद ही अंग्रजों ने भारतीय भांग (Bhang) औषधि आयोग का गठन किया था.



आयोग को भांग (Bhang) की खेती, इससे नशीली दवाएं तैयार करने की प्रक्रियाएं, इनका कारोबार, इनके इस्तेमाल से पैदा हुए सामाजिक-आर्थिक प्रभाव और इसकी रोकथाम के तौर-तरीकों पर एक रिपोर्ट तैयार करनी थी. इस काम के लिए चिकित्सा विशेषज्ञों में पूरे भारत में एक हजार से ज्यादा साक्षात्कार किए थे. आयोग ने पूरे वैज्ञानिक तरीके से एक बड़े सैंपल साइज को आधार बनाकर अपनी रिपोर्ट तैयार की थी.


जब यह रिपोर्ट तैयार हुई तो आश्चर्यजनकरूप से इसके निष्कर्ष भांग (Bhang) के इस्तेमाल को लेकर बड़े सकारात्मक थे : पागलपन तो बहुत दूर की बात, इसका संयमित सेवन हानिरहित है; शराब भांग (Bhang) से ज्यादा हानिकारक है; और इसलिए भांग (Bhang) पर प्रतिबंध लगाने की कोई वजह नहीं हैं. इस रिपोर्ट का आखिरी निष्कर्ष यह था कि भांग (Bhang) पर किसी भी तरह की पाबंदी पूरे देश में एक परेशानी और व्यापक असंतोष की वजह बन सकती है.


सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व


आयोग की रिपोर्ट में भांग (Bhang) के सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व के बारे में भी विस्तार से लिखा गया था. रिपोर्ट में सामने आया कि हिंदू धर्म के त्रिदेवों में से एक शिव का संबंध भांग (Bhang) या गांजे से है. मान्यता है कि शिव महादेव को यह अतिप्रिय है. आयोग ने यह भी माना था कि इसके साक्ष्य हैं कि शिव की पूजा-पद्धति में भांग (Bhang) और उसके दूसरे उत्पादों का प्रयोग बहुत व्यापक है.



यह रिपोर्ट यह बताती है कि भांग (Bhang) का सबसे ज्यादा सेवन होली के समय होता है, ‘इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि होली के दौरान तकरीबन सभी लोग भांग (Bhang) का सेवन करते हैं’. आयोग कहता है कि वसंत ऋतु का यह त्योहार आज भी भांग (Bhang) से जोड़ा जाता है और लोगों में इसी तरह प्रसिद्ध भी है. 


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