नई दिल्ली: भारत को आजादी दिलाने की लड़ाई आसान नहीं थी. 15 अगस्त को हम ब्रिटिश हुकूमत से आजाद होकर 75वें बसंत में प्रवेश करने जा रहे हैं. ऐसे में एक बार फिर से उन स्वतंत्रता सेनानियों को यादकर आंखें नम हो गई हैं, जिनके त्याग ने इस देश को गुलामी की बेड़ियों से आजाद कराया. देश के लिए कुर्बान हुए सेनानियों की जब भी बात आती है तो हमारे जहन में भगत सिंह (Bhagat Singh), महात्मा गांधी (Mahatama Gandhi) और सुभाष चंद्र बोस की कहानियां ताजा हो जाती है. हालांकि, इन नामों में कुछ नाम ऐसे भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं, जिन्हें बेशक बहुत ज्यादा न सुना गया हो, लेकिन देश की आजादी में इनका योगदान अहम था. इनके दिलों में शायद उस पल यही पंक्तियां चल रही होंगी-


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"सुनो गुलामी की जंजीरों में हमें अब और नहीं बंधना है,
एक पल की आजादी की खातिर, हमें जीवनभर लड़ना है"


200 सालों से गुलाम भारत को अंग्रेजों से आजादी दिलाने के लिए जितना संघर्ष और कुर्बानियां पुरुषों ने दी, उतना ही योगदान महिलाओं का भी रहा है. आज स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर एक बार फिर से हम उन स्वतंत्रता सेनानी महिलाओं को याद कर रहे हैं, जिन्हें अपने देश के अलावा कुछ नहीं दिखा, जिन्होंने अपने तिरंगे को ऊंचा रखने के लिए सब कुछ न्यौछावर कर दिया.


मातंगिनी हाजरा


72 साल की उम्र में भी पूरी हिम्मत और जज्बे से जिस महिला ने अंग्रेजों का सामना किया वह मातंगिनी हाजरा थीं. सिर्फ 18 साल की उम्र में ही विधवा होने वाली हाजरा ने असहयोग आंदोलन और भारत छोड़ो आदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. इस दौरान उन्हें जेल भी जाना पड़ा. वह गांधी जी से बहुत प्रभावित थीं. सही रूप से वह उस समय सुर्खियों में आईं, जब वह 1933 में सर जॉन एंडर्सन तमलूक नाम के एक अंग्रेजी अफसर के सामने काला झंडा लेकर पहुंची थीं.



इसके बाद उन्होंने 1942 को अंग्रेजों के खिलाफी एक तमलूक के थाने पर जुलूस के साथ धावा बोल दिया. अंग्रेजी सरकार ने उन्हें रोकने की काफी कोशिश भी की, लेकिन वह अपने इरादों पर डटी रहीं. इसी दौरान पुलिस ने लगातार उन पर गोलियां दागना शुरू कर दिया, यहां सबसे गर्व की बात यह थी कि उन्होंने अपने हाथ में थामा हुआ तिरंगा जमीन पर नहीं गिरने दिया और वंदे मातरम का नारा लगाती रहीं.


तारा रानी श्रीवास्तव


तारा के मन में बचपन से ही देश-भक्ति की भावना थी. बिहार की राजधानी पटना में जन्मीं तारा की शादी कम उम्र में ही कर दी गई थी. खास बात तो यह थी कि जिस फुलेंद बाबू से उनकी शादी हुई वह स्वतंत्रता सेनानी थे. ऐसे में तारा के मन में देश-प्रेम और बढ़ गया. अब जिस समय में औरतें चार दीवारी और घूंघट से भी बाहर नहीं आ पाती थीं, उस समय तारा, पति फुलेंदू के साथ देश की आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर चल रही थीं. वह अलग-अलग गांवों में जाकर अन्य औरतों को भी आजादी की लड़ाई का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित किया करती थीं.



तारा और फुलेंदू भी महात्मा गांधी के साथ जुड़े थे. 8 अगस्त 1942 को हुए गांधी जी के 'भारत छोड़ो आंदोलन' का आगाज किया गया. इसी दौरान फुलेंदू सिवान थाने की ओर तिरंगा लहराने के लिए चल पड़े. उनके साथ पूरा जनसैलाब था और खुद तारा रानी इसका नेतृत्व कर रही थीं. पुलिस के विरोध के दौरान फुलेंदू पर गोलियां चलाई गईं, जिसमें वह पूरी तरह घायल हो गए. ऐसे में तारा रानी ने अपनी साड़ी का एक टुकड़ा फाड़कर उन्हें पट्टी बांधी और सभी स्त्रियों को प्रेरित करती हुईं आगे बढ़ गईं. क्योंकि अगर उस समय वह टूट जातीं, या रुक जाती तो सभी महिलाओं की हिम्मत भी जवाब दे देती. अब उन्होंने तिरंगा फहराने का संकल्प लिया, जिसे उन्होंने पूरा भी किया. लेकिन जब तक वह वापस पति के पास लौटीं उनकी मृत्यु हो चुकी थी. इसके बाद भी उन्होंने 15 अगस्त, 1947 तक, यानी भारत की आजादी तक महात्मा गांधी के सभी आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.


कमला देवी चट्टोपाध्याय


कमला देवी का नाम भारत के शुरुआती विद्रोहियों में शुमार है. वह 1857 में हुए आंदोलन का हिस्सा बनी थी. उस समय वह सिर्फ 27 साल की थीं, जब महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह शुरू किया. उस समय महिलाओं का आंदोलन का हिस्सा बनने की मनाही थी, लेकिन कमला देवी ने अपने तर्कों से आखिरकार महात्मा गांधी को इसके लिए राजी कर लिया.



इसके बाद गांधी जी ने इस आंदोलन में महिला और पुरुषों को बराबरी की जगह दे दी. उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बिताया. अपने जीवनकाल में उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा. उन्होंने 5 सालों कर जेल की यातनाएं झेली है.


"नतमस्तक है ये वतन आज भी इनकी शहादत पर,
जहां में हर शख्स इनसे छोटा ही नजर आता है!"


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