Independence Day 2021: आजादी के बाद हुए वे पांच आंदोलन, जिन्होंने देश की दिशा बदल दी

आजादी के बाद हुए कई आंदोलनों ने लोकतंत्र को आज की सूरत में ढाला है. जानते हैं आजादी के बाद के ऐसे ही बड़े आंदोलनों के बारे में, जिन्होंने देश की दिशा बदल दी.

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Aug 14, 2021, 11:16 AM IST
  • जेपी आंदोलन ने देश की राजनीति का भूगोल बदल दिया
  • अन्ना आंदोलन के कारण दिल्ली में बदल गई सरकार
Independence Day 2021: आजादी के बाद हुए वे पांच आंदोलन, जिन्होंने देश की दिशा बदल दी

नई दिल्लीः तारीखों के साए में हम 15 अगस्त 2021 से आजादी के 75वें साल में प्रवेश कर रहे हैं. लेकिन आज जो माहौल, लोकतंत्र का जो चेहरा हमें हासिल है, आजादी के बाद हुए कई आंदोलनों ने इसे ऐसी सूरत में ढाला है. जानते हैं आजादी के बाद के ऐसे ही बड़े आंदोलनों के बारे में, जिन्होंने देश की दिशा बदल दी.

चिपको आंदोलनः जिसकी वजह से जिंदा हैं हम
आंदोलनों की बात है तो पहले चलते हैं 70 के दशक में. साल था 1974. अखबारों में तस्वीरें छपनी लगीं कि अलकनंदा घाटी में एक महिला पेड़ से चिपक कर खड़ी हैं. धीरे-धीरे लोगों का हुजूम पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उनसे चिपक कर खड़ा होने लगा. बिना शोर-शराबे और बिना हंगामे के इस आंदोलन ने ऐसी सिहरन पैदा कर दी कि पेड़ काटने वाले ठेकेदारों को कुल्हाड़ियां छोड़ कर भागना पड़ा.

मंडल गांव की गौरा देवी इस चिपको आंदोलन के बाद चिपको वुमन नाम से मशहूर हो गईं. 1987 में चिपको आन्दोलन को सम्यक जीविका पुरस्कार (Right Livelihood Award) से सम्मानित किया गया था. इसी आंदोलन से सुंदरलाल बहुगुणा, उनकी पत्नी बिमला और चंडी प्रसाद भट्ट, गोबिंद सिंह रावत जैसे लोगों को भी बड़ी पहचान मिली. आंदोलन का असर रहा कि तब की इंदिरा गांधी सरकार ने हिमालयी क्षेत्रों से पेड़ काटे जाने को लेकर 15 साल के लिए तुरंत रोक लगाई और भारत में 1980 का वन संरक्षण अधिनियम इसी की बदौलत आया.

जेपी आंदोलनः सिंहासन खाली करो
आजादी के तुरंत बाद भारत कई तरह की राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा था. ऐसे में होता है एक बड़ा आंदोलन, जो देश की राजनीति का भूगोल बदल देता है. इसकी शुरुआत भी 1974 से होती है, जब बिहार के छात्रों ने बिहार सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया. बिहार से शुरू हुआ ये आंदोलन कब पीएम इंदिरा गांधी की ओर मुड़ गया, वह खुद भी नहीं समझ सकीं. जयप्रकाश नारायण इस आंदोलन के अगुआ थे और उन्हीं के नाम पर यह जेपी आंदोलन कहलाया.

'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' दिनकर की ये कविता आंदोलन का नारा बन गई. हुआ यूं कि आंदोलनकारी पहले बिहार के सीएम अब्दुल गफूर को हटाने की मांग कर रहे थे, लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ऐसा करने से मना कर दिया. तब यह आंदोलन सत्याग्रह में बदल गया. जेपी के इस आंदोलन का नतीजा था कि आजाद भारत में लंबे अंतराल के बाद गैर कांग्रेसी सरकार बनी.

नर्मदा बचाओ आंदोलनः आदिवासियों का खास आंदोलन
मानव इतिहास की बातें जल, जंगल और जमीन की जरूरतों के बिना अधूरी है. समय नदी की तरह आगे बढ़ रहा था और देश की नइया 1985 वाले साल के किनारे जा लगी थी. कहीं दूर से एक शोर आता है 'नर्मदा बचाओ'. देखते-देखते यह आवाज जनता की आवाज बन जाती है और इसे नाम मिलता है नर्मदा बचाओ आंदोलन.

नर्मदा नदी पर बन रहे कई बांधो के विरोध में साल 1985 से 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' शुरू हुआ था. यह आंदोलन इस लिए भी बड़ा था क्योंकि यह सामाजिक जागरूक लोगों का आंदोलन नहीं था, बल्कि आदिवासियों और किसानों और जरूरतमंद भूमिधरों का आंदोलन था. पर्यावरणविदों ने भी इसे लेकर भूख हड़ताल की. नतीजा. कोर्ट ने दखल देते हुए सरकार को आदेश दिया कि पहले प्रभावित लोगों का पुनर्वास किया जाए तभी काम आगे बढ़ाया जाए.

अन्ना आंदोलनः जनलोकपाल बिल की मांग
21वीं सदी में 2011 का साल आंदोलन के नाम रहा. यह नई सदी का ऐसा पहला साल था, जिसने पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक को एक साथ जोड़ दिया था. जिधर भी मुड़ो उधर से आवाज आती थी. मैं भी अन्ना. दरअसल, इस आंदोलन का केंद्र बना राजधानी दिल्ली का जंतर-मंतर और इसे शुरुआत मिली सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे की भूख हड़ताल से.

अप्रैल 2011 से शुरू हुई जनलोकपाल बिल के लिए उनकी भूख हड़ताल को देशभर से समर्थन मिला. इस आंदोलन का नतीजा लोकपाल बिल तो खैर अब भी अस्तित्व में नहीं है, लेकिन राजधानी की राजनीति को इसने भी बदल दिया. हालांकि इसी आंदोलन की बदौलत आज अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं.

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निर्भया आंदोलनः जिसने बदली महिलाओं की जिंदगी
2012 की वो सर्द रात आज भी नहीं भुलाई जा सकती है. जब दिल्ली की एक सुनसान सड़क पर मानवता ने दम तोड़ दिया. उस रात तो समाज न जाने किस आदिम दौर में सो गया था, लेकिन जब जाग उठा तो उसका जागना आंदोलन बन गया. 16 दिसंबर 2012 में दिल्ली में हुए एक गैंगरेप के बाद पूरे देश सड़कों पर उतर आया. पीड़िता को नाम दिया  गया निर्भया और आंदोलन को नाम मिला निर्भया आंदोलन.

अन्ना आंदोलन में सोशल मीडिया की भूमिका लिटमस टेस्ट जैसी थी, जिसका निर्भया आंदोलन में अच्छा खासा प्रभाव देखने को मिला. इसके बाद पूरे देश की विभिन्न राज्य सरकारों और केंद्र सरकार ने महिला सुरक्षा को लेकर कई कदम उठाए. सरकार ने निर्भया फंड भी बनाया. महिलाओं के लिए 1090 हेल्प लाइन जारी की गई. बीते साल ही निर्भया के गुनाहगारों को फांसी की सजा दी गई है.

कोई आंदोलन पहला नहीं है, कोई आंदोलन आखिरी नहीं है. जब-जब सत्ता खुद को समाज से ऊपर समझने की गलत कोशिश करेगी, उसे सही राह दिखाने के लिए कहीं न कहीं कोई आंदोलन जरूर पैदा होगा और बदलाव लाने की जिम्मेदारी निभाएगा. ये राजनीति और समाजशास्त्र का सबसे सच्चा पहलू है. 

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