Cultural Economy: भारतीय संस्कृति की ताकत पहचानिए, ये बन सकती है अर्थव्यवस्था की रीढ़
कोरोना संकट काल(corona pandemic) में अर्थव्यवस्था में 23.9 फीसदी की बड़ी गिरावट देखी गई. जिसपर हायतौबा मची हुई है. इसका समाधान है भारतीय संस्कृति, जो कि आपकी अर्थव्यवस्था को भी मजबूती देगी. इस बात का अनुमोदन यूनेस्को(UNESCO) भी करता है.
नई दिल्ली: किसी भी देश की समृद्धि में उसकी विरासत का बड़ा योगदान होता है. यह बात हम भारतीय भले ही ना समझें. लेकिन विदेशी संस्थाएं इस तथ्य से भली भांति वाकिफ हैं.
अर्थव्यवस्था की नींव बन सकती है संस्कृति
पूरी दुनिया में सांस्कृतिक विरासत को रचनात्मक उद्योग में बदलने की कोशिश जारी है. इसके लिए लगातार कोशिश की जा रही है. इसे CCI (Cultural Cretive Industry) का नाम दिया गया है.
संयुक्त राष्ट्र की संस्था UNESCO के एक शोध के मुताबिक दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद(GDP) में CCI का योगदान 4 फीसदी है. इसमें दुनिया की एक फीसदी आबादी को रोजगार हासिल होता है. लेकिन भारत में अभी संस्कृति के आर्थिक महत्व का मूल्यांकन शुरु नहीं हो पाया है. क्योंकि भारत में संस्कृति को आर्थिक नजरिए से देखा ही नहीं जाता है.
संस्कृति बढ़ाएगी रोजगार
भारतीय विरासत और संस्कृति हजारों साल पुरानी है. भारतीय नृत्य-संगीत, पर्व-त्योहार, कलाकृतियां, मूर्तिकला, पेंन्टिंग आदि हमारी सांस्कृतिक विरासत हैं. हमें ये समझना होगा कि यह हमें आर्थिक रूप से मजबूत भी बना सकती हैं. जिसपर योजनाबद्ध तरीके से काम करने की जरुरत है.
उदाहरण के तौर पर हमारा देश त्योहारों का देश है. हर महीने में कोई ना कोई बड़ा त्योहार दस्तक जरुर देता है. अगर हम इसकी ढंग से मार्केटिंग करें तो त्योहारों के इस उल्लास में विदेशी पर्यटक भी शरीक हो सकते हैं. इसके अलावा देश के अंदर भी पर्यटन(tourism) का जबरदस्त स्कोप है. एक राज्य के उत्सव में दूसरे राज्य के लोगों को शामिल किया जा सकता है. इससे पर्यटन बढ़ेगा, आर्थिक गतिविधियां बढ़ेंगी और रोजगार के अवसर पैदा होंगे. क्योंकि इससे होटल उद्योग, वाहन उद्योग, इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूती मिलेगी.
जैसे दक्षिण भारत में मनाए जाने वाले ओणम के त्योहार में शामिल होने के लिए अगर यूपी, बिहार या पंजाब के लोगों को बुलाया जाए, तो इससे देश में सांस्कृतिक एकता बढ़ने के साथ साथ अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलेगी.
विदेशियों ने समझ लिया है CCI का महत्व
दुनिया के कई देशों में संस्कृति और अर्थव्यवस्था के संबंधों पर तेजी के काम हो रहा है. जैसे ब्राजील का रियो कार्निवल पूरी दुनिया में मशहूर है. ब्राजील ने इस कार्निवल की इतनी जबरदस्त मार्केटिंग की है कि पूरी दुनिया से लोग इसमें शामिल होने के लिए पहुंचते हैं.
दूसरी तरफ अमेरिका के फ्लॉरेन्स ओरेगन को पहले कोई नहीं जानता था. लेकिन वहां के कलाकारों और नागरिकों ने लोकल कॉमर्स चैंबर की मदद से इसकी मार्केटिंग की. जिसके बाद वहां की पेंटिंग से आकर्षित होकर इस शहर में घूमने आने वालों की संख्या बढ़ गई है. इससे ओरेगन शहर की अर्थव्यवस्था को गति मिली है.
इस तरह के प्रयोग भारत में भी दोहराए जा सकते हैं. हमारे गणेश उत्सव, ओणम, दुर्गा पूजा, दीपावली एवं होली जैसे त्योहार विदेशी सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र बन सकते हैं. इसके लिए रणनीति बनाकर काम किए जाने की जरुरत है.
छोटे छोटे कदमों से बन जाएगी बात
ऐसा नहीं है कि हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री का ध्यान इस बात पर नहीं है. उन्होंने 21 जून को योग दिवस के रुप में संयुक्त राष्ट्र से मान्यता दिला दी. जिसके बाद वैश्विक स्तर पर योग की महिमा बढ़ी है. दुनिया भर में योग प्रशिक्षकों की मांग बढ़ी है. लेकिन अब माइक्रो स्तर पर ऐसे कई कदम उठाए जाने की जरुरत है. इसमें हमारे और आपके जैसे नागरिकों की पहल ज्यादा अहम है.
अमेरिका एवं ब्राज़ील जैसे देशों के सकल घरेलू उत्पाद(GDP) में सांस्कृतिक एवं रचनात्मक उद्योगों का बड़ा योगदान है. लेकिन भारत में अभी संस्कृति को अर्थव्यवस्था से जोड़ने की दिशा में बेहद काम किए जाने की जरुरत है.
सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था का है दोहरा फायदा
भारत की विरासत और संस्कृति को यदि अर्थव्यवस्था से जोड़ दिया जाए तो इससे देश को दोहरा फायदा हो सकता है. पहला फायदा तो यही है कि इससे रोजगार के अवसर पैदा होंगे और अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी. दूसरा फायदा ये है कि जिन सांस्कृतिक परंपराओं को हम भूलते जा रहे हैं, उन्हें नवजीवन प्राप्त होगा.
उदाहरण के तौर पर बिहार की मधुबनी पेंटिंग को लीजिए. मधुबनी बिहार और नेपाल की सीमा पर एक छोटा सा शहर है. जहां दीवारों पर चित्र बनाने की एक कला का नाम है मधुबनी पेटिंग.
एक समय था जब मधुबनी पेंटिंग बनाने वाले कलाकार बहुत सीमित संख्या में बच गए थे. लेकिन एक प्राकृतिक आपदा की वजह से मधुबनी पेंटिंग पर पूरी दुनिया का ध्यान चला गया. साल 1934 से पहले यह स्थानीय लोककला हुआ करती थी. लेकिन उसी साल एक बड़ा भूकंप आया जिसमें भारी तबाही हुई. जिसका सर्वे करने गए अंग्रेज अधिकारी विलियम आर्चर का ध्यान वहां की मधुबनी पेंटिंग पर गया. फिर पूरी दुनिया का ध्यान इस पर गया. समय के साथ इसके कलाकारों को पहचान मिली. उनकी कलाकृतियां विदेशों में महंगी कीमत पर बिकने लगी. यह कला गांव की दीवारों से निकल अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहुंच गई.
ये महज एक बानगी है. भारत में इस तरह की हजारों कला विरासत हैं, जो उपेक्षा की शिकार हो रही हैं. आज सूचना क्रांति के जमाने में हमें इसे मात्र प्रचलित बनाना है.
संस्कृति को औद्योगिक स्वरुप देने की जरुरत
संस्कृति को अर्थव्यवस्था से जो़ड़ने के लिए उसे औद्योगिक नजरिए से देखा जाना चाहिए. इसमें निवेश की जरुरत है. जिसके लिए सरकारों के साथ निजी कंपनियों और जनता का भी योगदान अहम है.
हाल के दिनों दुनिया भर के देशों के सांस्कृतिक और रचनात्मक उद्योगों के अर्थव्यवस्था में योगदान पर तेजी से रिसर्च किया जा रहा है. ये जानने की कोशिश की जा रही है कि विभिन्न देशों के निर्यात में वहां के सांस्कृतिक उत्पादों का कितना योगदान है. इसमें क्राफ्ट, म्यूजिक, सिनेमा, फैशन, ऑडियो-वीडियो, घरेलू उत्पाद, खाद्य पदार्थ जैसी तमाम वस्तुएं हैं.
इस तरह का कार्य भारत में भी शुरु किया जाना चाहिए. यहां भी एक सूची तैयार की जानी चाहिए कि देश में किस तरह के सांस्कृतिक उत्पाद हैं, जिनमें विदेशियों की रुचि हो सकती है. जिसके बाद औद्योगिक स्तर पर उनका उत्पादन करके निर्यात किया जा सकता है. इसके लिए एकीकृत व्यवस्था(Centralized System) तैयार किेए जाने की जरुरत है.
जब इससे मुनाफा होने लगेगा तो निजी कंपनियां खुद ही आगे बढ़कर इसमें निवेश करेंगी. यही एक जरिया है जिसके द्वारा भारत अपनी सांस्कृतिक विविधता को आर्थिक संपन्नता में बदल सकता है. हमारी सांस्कृतिक विरासत में स्वयं ही इतनी ताकत है कि वह अपना रास्ता स्वयं ही तय कर सकती हैं.
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