kalyan Singh Obituary: नई दिल्लीः कल्याण सिंह (kalyan Singh Obituary) नहीं रहे, उनकी कहानी जानने के लिए बीते कुछ दशकों के सफर पर चलना होगा. शुरू करते हैं यहां से, जब साल था 1989. 1980 में अपने जन्म के ठीक 10 साल बाद भाजपा सियासी बालपन के दौर में थी. पनप रही थी, मुद्दों को समझ रही थी और अपना प्रभाव बढ़ा रही थी. उसके खाते में था मंदिर मुद्दा जिसे बीजेपी के लालकृष्ण आडवाणी ने बड़ी ही मजबूती से अपने हाथों में पकड़ा और जकड़ा हुआ था.


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ऐसे मिले कल्याण सिंह (kalyan Singh)
लेकिन, इसी साल कुछ ऐसा हुआ कि भाजपा को सियासत की जमीन पर रोड़े अटकने जैसा अहसास हुआ. हुआ यह कि इस साल आधिकारिक तौर पर पिछड़े वर्ग की जातियों को कैटिगरी में बांटा जाने लगा. मीडिया में एक नया शब्द युग्म आया था मंडल और कमंडल. नतीजा, दिल्ली स्थित पार्टी दफ्तर में कई चेहरे बैठे हुए थे, सबकी पेशानी पर बल थे और जेहनी फिकर थी कि अब इस शब्द जाल को कैसे काटा जाए? 



इसी चिंता के साथ उत्तर प्रदेश की जमीन पर निगाह डाली गई, कई जिलों-शहरों से होती हुई निगाह दिल्ली से लगभग 3 घंटे की दूरी पर बसे अलीगढ़ पर टिक गई.


अलीगढ़ पर पड़ी नजर
हरिश्चंद्र श्रीवास्तव, गोरखपुर से निकले हुए जनसंघ के बड़े नेता थे और भाजपा में भी कद्दावर कद रखते थे. बोले कि- एक लोध लड़का अलीगढ़ में बहुत अच्छा काम कर रहा है. 20 साल से लगातार विधायक बन रहा है. अपने दम पर क्षेत्र की राजनीति को मुट्ठे में किए हुए था. पार्टी नेतृत्व को बात जम गई. मंडल की कमंडल काट दिख गई.



वह लड़का पिछड़ा वर्ग वाली सियासत में सटीक बैठ रहा था और इस तरह भाजपा को नया चेहरा मिल गया. यह कोई और नहीं कल्याण सिंह (kalyan Singh) थे.  


रामभक्ति के लिए छोड़ दी सीएम कुर्सी
सिंह (kalyan Singh) बात होती है तो हमारे सामने तस्वीर आ जाती है 1992 वाले साल की.  6 दिसम्बर 1992 को जब अयोध्या में विवादित ढांचा गिराया गया, उस समय उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ही थे. उन पर इस विध्वंस के मौन समर्थन का आरोप लगा और इस सिलसिले में एक दिन के लिए वह जेल भी गए.


अयोध्या में सदियों तक राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन चला, इसमें हिस्सा लेने वाले तमाम नेता सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे, लेकिन कल्याण सिंह (kalyan Singh) को इसलिए याद किया जाता है कि क्योंकि उन्होंने राम भक्ति के आगे मुख्यमंत्री की कुर्सी तक छोड़ दी.


'मैं कारसेवकों पर गोली नहीं चलाऊंगा'
यहां मीडिया में ही दिया उनका एक बयान याद आता है. 6 दिसम्बर की घटना के बाद कल्याण सिंह (kalyan Singh) ने जब सीएम पद से इस्तीफा दे दिया था तब वह कहते हैं कि 'भगवान राम के मंदिर के लिए मैं एक मुख्यमंत्री की कुर्सी क्या हजार कुर्सियां छोड़ने के लिए तैयार हूं'.


कल्याण सिंह के मुताबिक "ये सरकार राम मंदिर के नाम पर बनी थी और उसका मकसद पूरा हुआ. ऐसे में सरकार राममंदिर के नाम पर कुर्बान. मुझे जब तत्कालीन गृहमंत्री एके चव्हाण का फोन आया तो मैंने कहा था कि मैं कारसेवकों पर गोली नहीं चलाऊंगा, गोली नहीं चलाऊंगा, गोली नहीं चलाऊंगा."


उत्तर प्रदेश के एटा में जन्मे थे कल्याण सिंह
5 जनवरी 1932 को उत्तरप्रदेश के एटा में जन्में कल्याण सिंह (kalyan Singh) का सियासी सफर भी बहुत ही दिलचस्प रहा है. यहां पर फिर से एक बार हरिश्चंद्र श्रीवास्तव का नाम लेते हैं, क्योंकि कल्याण सिंह (kalyan Singh) उन्हीं की खोज थे. दरअसल, 1962 से पहले के साल में जनसंघ यूपी में अपनी सियासी ताकत खोज रही थी. यहां ताकतवर बनने के लिए जरूरी था कि सवर्णों के अलावा कुछ पिछड़े चेहरे भी पार्टी की पहचान बनें.


1962 से शुरू हुआ सियासी सफर
इसी खोजबीन में कल्याण सिंह का नाम हरीश बाबू तक पहुंचा, UP में अलीगढ़, बुलंदशहर से लेकर गोरखपुर तक लोध जाति की तादाद अच्छी-खासी थी. कल्याण सिंह (kalyan Singh) को इसका खूब लाभ मिला. हरीश बाबू ने उन्हें और सक्रिय रहने के लिए कहा और मौका देखते ही 1962 में कल्याण सिंह अतरौली सीट से टिकट पा गए. यह पहली बार था कि जब वे विधानसभा चुनाव लड़ने जा रहे थे.


हालांकि तब नीयति को कुछ और ही मंजूर था. कल्याण सिंह की पहली चुनावी ताल बहुत शोर नहीं मचा पाई. वह हार गए. लेकिन यह हार सिर्फ सियासी थी, चुनावी थी. हीरो अपनी हीरोगिरी हारने के बाद ही साबित करता है. कल्याण सिंह के पास हीरोइज्म को जीने का मौका था. पांच साल उन्होंने खुद को खूब तपाया. तगड़ी तैयारी की.


कल्याण सिंह ने खूब की मेहनत
1962 से 1967 के बीच इस पांच साल कल्याण सिंह (kalyan Singh) ने खुद को तपाया, जलाया और गलाया. नतीजा, जब वह 1967 में जीते तो ऐसे जीते कि 1980 तक लगातार विधायक रहे. 1980 वाले साल को भाजपा का पैदायशी साल माना जाता है. कोई और माने न माने राजनीतिक पंडित मानते हैं कि भाजपा को सूबे की राजनीति से लेकर राष्ट्र की राजनीति तक ले जाने में जो मुकम्मल पायदान आते हैं, उनमें कई पायदान कल्याण सिंह के ही बिछाए हुए हैं. भाजपा के लिए कल्याण सिंह अपना नाम सार्थक कर जाते हैं और असली कल्याणकारी साबित होते हैं.


जब उत्तर प्रदेश में बदली शिक्षा की तस्वीर
लगातार कई बार विधायक चुने जाने के बाद उग्र हिंदुत्व की राजनीति पर आगे बढ़ते हुए कल्याण (kalyan Singh) राम मंदिर आंदोलन में शामिल हुए. 1991 में पहली बार उत्तरप्रदेश में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनवाई. उनके नाम रिकॉर्ड है कि यूपी में भाजपा की पहली सरकार के वे पहले मुख्यमंत्री बने. कल्याण सिंह (kalyan Singh) ने शिक्षा के क्षेत्र में कई क्रांतिकारी काम भी किए,



कल्याण सिंह का नाम सुनते ही बोर्ड परीक्षा वाले बच्चों को नानी याद आ जाती है. 1991 के साल में तकरीबन 32 प्रतिशत पास रिजल्ट बना था. तब के लड़के आज कहते मिल जाएंगे कि, कम मत समझो- हम कल्याण सिंह (kalyan Singh) के समय पास हुए लोग हैं. यूपी में नकल विहीन परीक्षा का अपना अलग रिकॉर्ड है, और यह भी कल्याण सिंह के नाम दर्ज है.


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फिर भाजपा से हुआ मनमुटाव
यह सब होने के बाद साल आता है 1992, क्या हुआ-कैसे हुआ सब खबर है. उसे छोड़ते हैं और चलते हैं 1997 की ओर. 1997 में कल्याण सिंह दोबारा यूपी के सीएम बने. 1999 में भाजपा से नाराजगी हुई, पार्टी छोड़ दी और 5 साल बाद फिर भाजपा में वापसी की. कल्याण सिंह 2004 में भाजपा के टिकट पर बुलंदशहर से लोकसभा चुनाव लड़े और जीते.


इसके बाद वे फिर भाजपा छोड़कर चले गए और 2009 के लोकसभा चुनाव में जब लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे, तब कल्याण (kalyan Singh) एटा से निर्दलीय सांसद चुने गए. 2014 लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी और भाजपा के तत्कालीन उत्तरप्रदेश प्रभारी अमित शाह तीसरी बार कल्याण सिंह को भाजपा में लेकर आए. कल्याण सिंह के हिस्से राज्यपाल रहना भी रहा है.


अब नहीं रहे कल्याण सिंह
कल्याण सिंह (kalyan Singh) अब नहीं रहे हैं. लखनऊ के अस्पताल उनका में निधन हो गया है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा समेत तमाम नेता उन्हें देखने के लिए कुछ दिन पहले अस्पताल पहुंचे थे. इस निधन से पहले कई बार उनके गुजर जाने की अफवाहें आती रही हैं. अस्पताल उसका खंडन करके बयान जारी करता था, लेकिन नियति का क्रूर सच यही है कि एक दिन तो जाना ही है. 


याद आती है अटल शंखनाद रैली
कई बार अस्पताल से जब उनकी बीमार तस्वीर जारी होती थी तो याद आ जाता था 21 जनवरी 2013 का वह दिन, जब राजधानी लखनऊ में अटल शंखनाद रैली को संबोधित कर रहे कल्याण सिंह (kalyan Singh) रो पड़े थे. तब उन्होंने कहा था- जीवन का जब अंत होने को हो, तो मेरा शव भी भारतीय जनता पार्टी के झंडे में लिपटकर जाए.



अस्पताल के बेड पर पड़ी उनकी निर्जीव काया राजनीति में हीरोइज्म की पूरी कहानी जैसी लगती है. हमेशा के लिए बंद हो चुकी उनकी आंखे देखकर लगता है जैसे वे अभी कह उठेंगीं - 'I feel no sorrow, no regret and no grief: कल्याण सिंह."


 



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