नई दिल्लीः इस्लाम के पैगंबर मुहम्मद साहब के कई संदेशों में तीन खास संदेश हैं. एक यह कि अगर तुम अल्लाह से प्रेम करते हो तो उसकी सृष्टि से प्रेम करो, जो भी कोई किसी व्यक्ति की एक बालिश्त भूमि भी लेगा वह कयामत के दिन सात तह तक जमीन में धंसा दिया जाएगा और भाईचारा न मानने वाला तो खुदा का बंदा है ही नहीं. अपने मूल रूप में इन शिक्षाओं की भाषा भले ही अलग हो, लेकिन उनमें कहा यही गया है.  


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देश की बड़ी विडंबना
ठीक ऐसी ही एक बात गायत्री परिवार के संस्थापक रहे पं. श्री राम शर्मा आचार्य कहा करते थे. वे कहते थे 'मनुष्य को जो आचरण खुद के लिए पसंद न आए वह दूसरों के लिए भी नहीं करना चाहिए'.



भारत देश की एक बड़ी विडंबना यह है कि यहां धर्म गुरुओं के नामलेवा को कई हैं, लेकिन उन्होंने जो कहा- उसे समझने वाले और जीवन में अपनाने वाले कोई नहीं. 


सहिष्णुता क्या एकतरफा जिम्मेदारी है?
इन दोनों ही धर्मों की धार्मिक शिक्षाएं अचानक ही याद दिलाने की एक खास वजह है. वजह है बीते दिनों मद्रास हाईकोर्ट की वह खास टिप्पणी जो धर्मों के खांचों में बंटे देश में दोनों ओर के लोगों को उनकी सीमाएं याद दिलाने के लिए जरूरी है.



बीते कुछ सालों में सहिष्णुता शब्द जिसका जिम्मा सिर्फ बहुसंख्यकों पर डाल दिया गया है, कोर्ट की टिप्पणी ने दो टूक शब्दों में इसे दोनों पक्षों के लिए जरूरी और बराबर बता दिया. 


तमिलनाडु के एक गांव का मामला
हुआ यूं कि तमिलनाडु के पेराम्बलुर जिले में एक गांव है कलाथुर. यहां के ग्रामीण एक स्थानीय मंदिर में धार्मिक उत्सव आयोजित करते आ रहे हैं जो तीन दिवसीय होता है.



इसमें श्रद्धालु जुलूस निकालते हैं और गांव में घुमाते हैं. स्थानीय मुस्लिम इस जुलूस को एक खास रास्ते से निकालने का विरोध कर रहे थे. श्रद्धालुओं ने इसके लिए याचिका दायर की थी साथ ही पुलिस से सुरक्षा की मांग की थी. 


धार्मिक जुलूस निकलने का हो रहा था विरोध
रिपोर्ट के मुताबिक अदालत में हुई कार्यवाही में मामले की सबसे बड़ी विडंबना सामने आई. दरअसल दूसरा पक्ष हिंदुओ के धार्मिक जुलूस को पाप बताकर रुकवाने की कोशिश में था. वह भी सिर्फ इसलिए क्योंकि उस क्षेत्र या गली में वह बहुसंख्यक हैं और वहां उस जुलूस के निकलने का कोई अर्थ नहीं.  


धार्मिक असहिष्णुता की अनुमति नहीं दे सकतेः अदालत
जस्टिस एन. किरुबाकरन और जस्टिस पी. वेलमुरुगन की पीठ ने इस पर कहा कि धार्मिक असहिष्णुता की अनुमति दिया जाना एक धर्मनिरपेक्ष देश के लिए अच्छा नहीं है और एक धार्मिक समूह द्वारा किया गया ‘विरोध’ दंगे एवं विवाद में तब्दील हो सकता है, यदि अन्य समूहों द्वारा भी पारस्परिक विरोधी रवैया अपनाया जाए.


2011 तक हुआ शांतिपूर्ण आयोजन
अदालत ने हाल ही में अपना फैसला सुनाया तो उन हलफनामों को भी पढ़ा जो सुनवाई के दौरान दायर किए गए थे. कोर्ट ने कहा कि पुलिस अधीक्षक के हलफनामे से जाहिर है कि 2011 तक इस मंदिर में यह आयोजन शांतिपूर्ण तरीके से होता रहा. 2012 के बाद से मुसलमानों ने कुछ हिंदू त्योहारों को पाप करार देते हुए आपत्ति दर्ज करानी शुरू की.


गांव की सभी गलियों से निकलता था जुलूस
2012 से पहले मंदिर का जुलूस गांव की सभी गलियों से गुजरता था और कहीं कोई दिक्कत नहीं थी. इस पर ही पीठ ने कहा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और केवल इसलिए कि एक विशेष इलाके में एक धार्मिक समूह बहुसंख्यक है, अन्य धर्म के लोगों को त्योहार मनाने या जुलूस निकालने से नहीं रोका जा सकता.


इस तरह की रोक लगाना अराजकता को बढ़ावा देना
अगर इसी दलील को मान लिया जाए तो ऐसे में तो भारत के अधिकतर इलाकों में यह अल्पसंख्यक समुदाय अपना कोई भी धार्मिक आयोजन नहीं कर पाएंगे. पीठ ने यह भी कहा कि यदि एक धार्मिक समुदाय द्वारा इस तरह की अड़चन पैदा की जाती है, तो इसके बदले में दूसरा समुदाय भी आगे चलकर इसी तरह का कदम उठाएगा.



नतीजन चारों तरफ अराजकता, दंगे, धार्मिक झगड़े होंगे, जिससे जान-माल का नुकसान होगा और संपत्तियों की बर्बादी. अदालत ने यह भी कहा कि जिला नगरपालिका अधिनियम 1920 की धारा 180-ए के अनुसार सभी धर्म, जाति या पंथ के लोगों को सड़कों या गलियों का उपयोग करने की इजाजत है.


हाईकोर्ट ने बढ़ाया न्याय व्यवस्था पर भरोसा
अपने इस फैसले के साथ मद्रास हाईकोर्ट ने वाकई पीठ थपथपाने वाली टिप्पणी की है. बीते दिनों उच्च न्यायालय ने कोरोना और अन्य कई मामलों में भी ऐसी ही सटीक और सख्त टिप्पणियां की हैं. भारत में सहिष्णुता एक बड़ा मसला होने के बावजूद अन्य घटनाओं के बीच यह मामला दब गया, लेकिन अदालत की टिप्पणी ने जहां एक ओर समाज को दो हिस्सों में बंटने से रोका है वहीं न्यायालयों का भरोसा भी बढ़ाया है.


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