New Farms Law: सिर्फ बातचीत से ही निकलेगा हल, कोर्ट-कचहरी से नहीं
कृषि कानूनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में केस किया गया है और अगर देश के संविधान के नज़रिए से देखेंगे तो 1953 में हुए तीसरे संविधान संशोधन से कृषि मसलों पर निर्णय लेने का अधिकार राज्य सरकार के साथ केंद्र सरकार के पास गया. ऐसे में संवैधानिक तौर पर केंद्र इस तरह के क़ानून बनाने का अधिकार रखती है.
नई दिल्लीः किसान बिल को लेकर रद्द करने की मांग चल रही है, कुछ किसान संगठन बिल के समर्थन में हैं. वहीं सुप्रीम कोर्ट में भी कृषि सुधार कानूनों को चुनौती दी गई है, तो आगे क्या संभावनाएं हो सकती हैं
सुप्रीम कोर्ट में केस किया गया है और अगर देश के संविधान के नज़रिए से देखेंगे तो 1953 में हुए तीसरे संविधान संशोधन से कृषि मसलों पर निर्णय लेने का अधिकार राज्य सरकार के साथ केंद्र सरकार के पास गया. ऐसे में संवैधानिक तौर पर केंद्र इस तरह के क़ानून बनाने का अधिकार रखती है.
संयु्क्त सभा में सरकार के पास है बहुमत
दूसरी बात आती है कि सरकार ने राज्य सभा में बिना चर्चा के बिल पास करा लिया. कोविड काल के चलते राज्य सभा में विपक्षी दलों के कई सांसद मौजूद नहीं थे और 20 सितम्बर 2020 को ये बिल ध्वनि मत से पास किया गया था, तब विपक्ष ने राज्य सभा में काफी हंगामा किया था.
लेकिन सरकार चाहती तो संयुक्त सभा बुला लेती और वहां पर बिल बड़ी आसानी से पास हो जाता क्योंकि संयुक्त सभा में सरकार के पास बहुमत है. इसका मतलब सरकार कैसे भी कर के ये तीनों कृषि सुधार बिल पास करा सकती थी.
संसद के दोनों सदन हैं संप्रभु
तीसरी बात आती है कि क्या राज्य सभा में चर्चा ना कराने के मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट में उठाया जा सकता है? तो जवाब है नहीं. संसद के दोनों सदन संप्रभु हैं और वहां होनेवाली किसी भी कार्यवाही की समीक्षा सुप्रीम कोर्ट नहीं कर सकता. संविधान में ये ताकत संसद के दोनों सदनों को मिली हुई है, ऐसे में यहां भी किसान सरकार को चुनौती नहीं दे सकते
यानी संवैधानिक और प्रक्रिया के मामले में इन तीन कानूनों को चैलेंज करने का कोई फायदा नहीं है और किसानों के वकील भी जानते हैं कि सिर्फ मिल बैठकर, बातचीत कर के ही मसले का हल निकाला जा सकता है.
अब बात ये है कि क्या ये बिल किसानों के लिए नुकसान लेकर आ रहा है या फिर किसानों को इससे फायदा होनेवाला है
क्या है पहला बिल, समझिए
पहला बिल जिसके तहत किसानों को आज़ादी दी गई कि वो कहीं भी अपनी फसल को बेच सकते हैं. दरअसल गांवों में साहूकारों का जाल तोड़ने के लिए सरकार कानून लाई कि किसान अपनी पहली फसल मंडी समिति में ही बेचेगा. ऐसा इसलिए किया गया ताकि देश में अनाज की कमी ना हो.
साथ में एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य शुरू किया गया ताकि किसानों को गारंटी मिल सके कि उनकी फसल सही कीमत पर बिक जाएगी. आज भारत न सिर्फ खाद्य मामलों में आत्मनिर्भर है.
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किसानों को दिए जा रहे हैं विकल्प
बल्कि दूसरे देशों की भूख मिटा रहा है. ऐसे में अब नए कानूनों से किसानों को आज़ादी दी जा रही है कि वो अपनी फसल कहीं भी बेच सकते हैं, इसका मतलब ये नहीं है कि मंडी समितियों को ख़त्म किया जा रहा है, बल्कि किसानों को विकल्प दिया जा रहा है कि वो अपने ज़िले में, या अपने राज्य के दूसरे ज़िलों में या फिर देश के किसी भी कोने में अपनी फसल को बेच सकते हैं और इसके साथ ही उन्हें ये भी आज़ादी दी जा रही है कि वो अपनी फसल को ऑनलाइन भी बेच सकते हैं.
मंडी में है आढ़तियों का ने़टवर्क
अब ऐसा करने से छोटे किसानों को बड़ी आज़ादी मिलती है जो पहले मंडी समिति तक पहुंच भी नहीं पाते थे और बड़े किसानों को अपनी फसल बेच दिया करते थे. मंडी में आड़तियों का नेटवर्क है और आड़ती के बिना वहां फसल नहीं बिकती, नई व्यवस्था से आड़तियों को डर सता रहा है कि उनका धंधा चौपट हो जाएगा और दिलचस्प बात ये है कि बड़े किसानों के घर परिवार के लोग ही आड़तिया का काम भी करते हैं. ऐसे में समझिए कि डर क्या है
सरकार को चाहिए कि तैयार करे ड्राफ्ट
दूसरा कानून कहता है कि किसान किसी भी व्यक्ति या संस्था या कंपनी से अनुबंध कर सकता है और पहले से रेट तय कर के अनुंबध की गई फसल का उत्पादन कर सकता है. यहां पर भी किसानों को आज़ादी मिल रही है कि वो किसी कम्पनी या किसी व्यक्ति से सौदा कर सकते हैं और गारंटी के तौर पर अपनी फसल की कीमत ले सकेंगे.
हालांकि इसमें एक पेच ये है कि अनुबंध के मसौदे में बड़ी कम्पनी बड़ा खेल कर सकती है ऐसे में यहां पर सरकार को चाहिए कि वो पहले से कॉन्ट्रैक्ट का एक ड्राफ़्ट तैयार कर दे और उसी के आधार पर किसान और कम्पनी के बीच में अनुबंध हो
कंपनियां बना सकती हैं कार्टल, एक पेच यह भी
तीसरा कानून कहता है कि कृषि से जुड़ी कम्पनियां अपने यहां जितना चाहें उतना आवश्यक वस्तु स्टोर कर सकती हैं. ऐसा इसलिए किया जा रहा है कि अनाज और दूसरी चीज़ें सड़ने से बच सकें और बाज़ार में पूरे साल बैलेंस बने रहने से महंगाई काबू में रहे, लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है कि इससे कम्पनियों का कार्टल बन सकता है और वो आपस में मिलीभगत कर के बाज़ार में फल सब्ज़ियों, अनाज और दूसरी खाद्य वस्तुओं की कीमत को जब चाहे महंगा कर सकते हैं.
ट्रिब्यूनल का गठन किया जाना चाहिए
इन सब में अगर किसी तरह का विवाद होता है तो उसके लिए कानून में एसडीएम को अधिकार प्राप्त हैं. डीएम एक बोर्ड बनाकर समस्या का निराकरण कर सकता है. कानून में साफ लिखा है कि इसमें सिविल कोर्ट में नहीं जा सकते और जूडिशियल पावर एसडीएम और डीएम के पास ही होंगे. किसान इस प्रावधान को लेकर भी गुस्से में हैं क्योंकि बड़ी कम्पनियां ऐसे में किसी भी वाद को तोड़ मरोड़ सकते हैं. ऐसे में सरकार को चाहिए कि वो एक ट्रिब्यूनल बना दे ताकि, डीएम के ऊपर भी अपील का अधिकार बचा रहे.
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