नई दिल्लीः सर्द रातों में ठिठुरते अन्नदाता का आंदोलन भला किसे नहीं झकझोर कर रख देगा. एक तरफ़ इनका शांतिप्रिय विरोध, देश में लोकतंत्र और आंदोलनों के जीवित रहने के उद्घोष के तौर पर भरोसा देता है, दूसरी तरफ़ उनकी मांगों को लेकर सरकार के साथ चल रहा गतिरोध आम लोगों को हैरान कर रहा है.


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आखिर मसला क्यों नहीं सुलझ रहा? ये राष्ट्रीय चिंता और चर्चा का विषय बना हुआ है. किसान आंदोलन और सरकार के बीच के गतिरोध को आप कई तरीक़ों से समझ सकते हैं.


सरकार और किसानों में क्यों ठनी?


कृषि सुधार ----- बनाम ---- सुरक्षित परकोटे में जैसे-तैसे पड़े रहना
कृषि विस्तार ---- बनाम ---- सीमित (दयनीय) दायरे को सुरक्षित समझना
इन्वेंशन से लाभ उठाना --- बनाम ---सब्सिडी,कर्जमाफी की आकांक्षा
प्रतिस्पर्धा का लाभ उठाना ---बनाम ---- प्रतिस्पर्धा से नुकसान की आशंका
आधुनिकता लाने की कोशिश--- बनाम ---- परंपरागत खांचे का आदी


बदलाव का 'अनजाना डर' है विरोध की वजह !


भारतीय खेती-किसानी के पिछड़ने की सबसे बड़ी वजहों में रहा है बदलाव का प्रतिरोध, जो किसी की भी ज़िंदगी में दिख सकता है. किसान आंदोलन में शामिल 95 प्रतिशत से ज्यादा किसान, कृषि क़ानूनों की समझ नहीं रखते. हक़ीक़त है कि ये आंदोलन, कृषि क़ानूनों की खूबियों- ख़ामियों पर केन्द्रित भी नहीं लगता. बल्कि इस आंदोलन की जड़ में दिखती है एक आशंका, एक बदलाव का ज़रिया बनने वाले क़ानून से अनजाना डर. बदलाव को बुरा मानने की प्रवृति, जो हर क्षेत्र में पाई जाती है.



किसी भी बदलाव को लेकर अनजान स्थिति की आशंका में घिर जाना, व्यक्तिगत, सांस्थानिक,नौकरी, कंपनी स्तर पर और यहां तक कि देश के स्तर पर भी स्वाभाविक तौर पर देखा गया है. बदलाव सभी चाहते हैं, पर बदलते वक्त एक अनजाने डर में घिर जाते हैं. डर अभी से भी बुरी स्तिथि की आशंका से उपजता है. और अगर उस डर को हवा देने वाले आपके आस-पास मौजूद हों, तो इस डर के खौफ़ बनते देर नहीं लगती.


किसानों के बीच जिन वजहों से डर घर कर बैठा है आप एक-एक कर उसकी हक़ीक़त भी देखिए...


किसानों के 'अनजाने डर' का आधार...निराधार


किसान और सरकार के बीच बने इस गतिरोध के बारे में अब तक जो बातें सामने आई हैं,...उनका आधार किसानों के बीच भविष्य की आशंका और डर है, यही समझ बनती है. इस डर और आशंका का जो आधार है उनमें नए कृषि क़ानूनों के लागू होने से कृषि मंडियां और MSP के खत्म होने का अंदेशा मुख्य है. वो मंडियां और MSP(न्यूनतम समर्थन मूल्य) जो पंजाब-हरियाणा के किसानों के लिए एक


सुरक्षा देते हैं.


जिसके तहत हरित क्रांति के जमाने से ही उनकी मेहनत का प्रतिफल मिला, और आर्थिक तौर पर सहारा मिला. एकबारगी उसके छिन जाने की आशंका किसी को भी परेशान कर देगी. यही हुआ पंजाब और हरियाणा के किसानों के साथ. लेकिन इस आशंका को हवा देकर उन्हें कैसे मोहरा बनाया गया आगे इसकी चर्चा


आप किसी को कैसे आंकते हैं, इसका सीधा सा फंडा है उसने अब तक कैसा परफॉर्म किया है. अगर खेती किसानी में सपोर्ट को लेकर मोदी सरकार का रिकॉर्ड देखें, तो जो सरकार MSP को डेढ़ गुना करती है, जो सरकार MSP के दायरे में कई दलहन तिलहन और व्यावसायिक पसलों को भी शामिल करती है.


उस सरकार से ये आशंका भला कैसे हो सकती है, कि वही सरकार MSP और मंडियों को ख़त्म कर देगी ! इससे भी दो क़दम आगे सरकार के मुखिया लगातार ये कह रहे हैं कि MSP और कृषि मंडियां किसी सूरत मे ख़त्म नहीं होंगी. फिर इस आशंका का आधार क्या है? ये अब कोई बड़ी पहेली नहीं रह गई।


निजी क्षेत्र के निवेश से आशंका...निराधार


अब आंदोलन करने वाले किसानों की दूसरी आशंका की बात करें, तो कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र के निवेश का द्वार खोलना, उनकी सबसे बड़ी आशंका है. आम किसानों को समझाया गया है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से उनकी ज़मीन पर कंपनियों का कब्जा हो जाएगा ! किसानों के लिए तो उनकी ज़मीन उनके खेत ही सबकुछ हैं. इस पर कब्जे की आशंका भला कौन बर्दाश्त करेगा?



लेकिन हक़ीक़त क्या है? क्या मदर डेयरी और अमूल जैसी संस्थाओं ने पशुपालकों की गाय भैंस बंधवा ली क्या? ऐसा कभी सुना है आपने? बल्कि छोटे स्तर पर ही सही लेकिन खेती बागवानी और पशुपालन में अब तक जो बदलाव हुए हैं, उन्होंने खेती में और किसानों की जिंदगी में कायाकल्प का काम किया है.


कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की हक़ीक़त...उम्मीदों वाली
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत ही बंजर रेगिस्तानी इलाक़ों में एलोवेरा उपजाए जाने लगे, तो मिंट की खेती ने भी जोर पकड़ा, रामदेव की कंपनी पतंजलि की बासमती चावल की खरीदारी ने वेस्टर्न यूपी के किसानों को अच्छे दाम दिए, कई कंपनियां चावल और आलू की पैदावार में किसानों के साथ मिलकर काम कर रही हैं. ITC के आशीर्वाद आटा प्रोडक्ट ने गेहूं उत्पादकों को अच्छे दाम दिलाए. पेप्सिको इंडिया देश के 9 राज्यों में 24 हज़ार से ज्यादा किसानों के साथ अनुबंध पर काम कर रहा है,


किसानों को नई क़िस्म, नई तकनीक और पद्धतियां सीखा रहा है जिससे किसानों की आय बढ़ी है. ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं. सीड फर्टीलाइज़र और एग्रो मशीनरी के क्षेत्र में प्राइवेट सेक्टर ही, खेती को आधुनिक रुप देने में लगा हुआ है. मत्स्य पालन हो, बकरी पालन या बटेर पालन जैसे कृषि आधारित व्यवसाय सबने खेतों पर परंपरागत बोझ को कम किया है. किसानों को बेहतर दाम दिलाए हैं. लेकिन क्वालिटी और क्वांटिटी दोनों स्तरों पर ये नाकाफी हैं. इससे काम चलने वाला नहीं है.


खेती मे संभव है कायाकल्प तो फिर शुरुआत क्यों नहीं?


नई टेक्नोलॉजी का लाभ छोटे और सीमांत किसान भी उठा पाएं,...इसके लिए बहुत बड़े पैमाने पर निवेश की ज़रूरत है जिसे पूरा करने के लिए ही नए कृषि क़ानूनों का ताना-बाना बुना गया. बड़े स्तर पर निजी क्षेत्र का निवेश क्रॉप क्लस्टर बनाने में अहम योगदान देगा. नए हब बनेंगे मार्केट डेवलप होगा तो नए रोज़गार भी बढ़ेंगे और किसानों की आय भी.


किसानों के डर को खौफ में बदलने वालों जवाब दो


मगर किसी भी आम आदमी की तरह बदलाव से डरे पंजाब हरियाण के किसानों का डर,..आज वो लोग बढ़ा रहे हैं, जो कभी प्राइवेट कंपनियों के सहयोग से खेती में बदलाव की ना सिर्फ़ वकालत करते थे,...बल्कि उस पर काम भी किया। एक वक्त में मोनसेंटों जैसी कंपनी की कपास की एक ख़ास किस्म बीटी कॉटन के हिमायती रहे पूर्व केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार आज नए कृषि क़ानूनों की मुखालफत कर रहे हैं. उदारीकरण और मुक्त बाज़ार के हिमायती पूर्व प्रधानमंत्री और प्रमुख अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह आज नए कृषि क़ानूनों पर चुप्पी साधे बैठे हैं. उनकी जगह आज कांग्रेस का प्रतिनिधि बयान ऐसे नेता देते हैं, जिनके कृषि और व्यापार ज्ञान पर लोग ठीक से हंस भी नहीं पाते.


एक हिस्से का अनजाना डर पूरे सिस्टम पर क्यों हो हावी?


बहरहाल अब सबसे अहम सवाल कि भाई इस ठंड में किसानों की जान जा सकती है, अगर वो ज़िद पर ही बैठे हैं तो सरकार क्यों नहीं ऐसे क़ानून को निरस्त कर देती? जो अभी लागू भी नहीं हुआ, उसे लेकर इतनी शंका भी है. आखिर सरकार क्यों ज़िद पर अड़ी है? उसे किसानों की सुधि नहीं? तो सवाल है सिर्फ़ पंजाब हरियाणा के किसानों की 'एक अनजान आशंका' के चलते, सरकार देश भर के किसानों के हक़ में लिए गए अपने महत्वाकांक्षी फैसले को क्यों वापस ले ले?


उन किसानों की ज़िद पर जो कृषि मंडी और MSP को अपना सुरक्षा घेरा मान बैठे हैं. जो सिर्फ़ गेहू धान को ही फ़सल मान बैठे हैं. जो किसी बदलाव किसी क्रांति में सिर्फ और सिर्फ डर और आशंका ही देखते हैं. आखिर सरकार की भूमिका होती क्या है? किसी पिछड़े क्षेत्र की बेहतरी के लिए सरकार क़दम क्यों ना उठाए? यही वजह है कि आज पीएम से लेकर मंत्री तक सभी आंदोलनकारी किसानों को समझाने और मनाने में लगे हैं.


डर के आगे जीत है...


किसानों मौजूदा दौर के सबसे अच्छे हालात की तुलना, नए बदलाव की सबसे बुरी स्तिथि से करना छोड़ो. मौजूदा में कृषि मंडी और MSP(सबसे बेहतर हालात) की तुलना, नए कृषि क़ानूनों से हो सकने वाले शोषण की आशंका ((सबसे बुरी स्तिथि)) से करना छोड़ो.



तुलना करनी ही है तो सबसे बेहतर हालात की तुलना, बदलाव से होने वाले सबसे बेहतर उम्मीदों से करो अन्नदाता. हो सकता है नए क़ानून बिल्कुल परफेक्ट ना हों,....तो संशोधन करो, मगर बेहतरी के लिए बदलाव से मत डरो. आंदोलन साक्षी है इस बात का, कि सरकार ही नहीं, पूरा देश तुम्हारे साथ है. खेती किसानी को आगे बढ़ाना है तो अनजाने डर को जीतो अन्नदाता डर के आगे जीत है.


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