बताइए किसान नेताओ ! क्यों न आपको एक आंदोलन की हत्या का गुनहगार माना जाए?
सही-गलत की बहस के बीच भी देश की जनता 2 महीने तक आपके साथ रही. वह इसलिए साथ नहीं रही कि उसे आपको हीरो बनाना था, न ही वह आपके तौर पर अपना कोई रहनुमा देख रही थी, वह बस इसलिए साथ थी क्योंकि अब तक आपके आंदोलन में लोकतंत्र की विरासत की झलक थी.
नई दिल्लीः Physics में हमने दोलन गति के बारे में पढ़ा है. डोर से बंधे किसी स्वतंत्र गोले को जब उसके सेंटर से कुछ दूरी पर ले जाकर छोड़ दिया जाता है तो वह पहले पूरी दूरी तक आगे जाता है, फिर उतनी ही दूरी तक पीछे की ओर लौटता है, फिर आगे जाता है, और पीछे लौटता है. धागे से बंधा गोला इस क्रिया को एक तय किए गए काल्पनिक पथ पर तब तक दोहराता है जब तक कि वह पूरी तरह रुक नहीं जाता है.
पूरी तरह रुकना ही गोले की मंजिल है, उसका उद्देश्य है. इस मंजिल तक पहुंचने के लिए वह अपने पथ से भटकता नहीं है. उसमें एक अनुशासन होता है. गोले की यही अनुशासन वाली गति दोलन कहलाती है. भाषाओं की प्रगति का इतिहास कहता है कि इसी दोलन गति से आंदोलन बना है. जाहिर है कि आंदोलन ऐसे ही अनुशासन की मांग करते हैं.
2 महीने की बात रही बेनतीजा
आप जैसे ही अनुशासन से भटके आंदोलन खत्म... फिर वह हिंसा, उपद्रव, बलवा चाहे जो बन जाएगा, लेकिन उस मंशा का प्रतीक तो नहीं रह पाएगा जिसमें आप लोकहित की बात कर सकें. पिछले 62 दिनों से दिल्ली की सीमा पर किसान डटे हुए थे. वह अपनी चुनी हुई सरकार से मांग कर रहे थे कि उन तीन कानूनों को वापस ले लिया जाए, जिसके लिए सरकार का दावा है कि वह उनके लिए लाभदायक होगी.
अच्छी बात है कि किसानों को कानून अपने लाभ के लायक नहीं लगे तो वे सरकार से बात करने दिल्ली तक आए. दल-बल के साथ आए. सरकार ने लगातार उनसे बात की, उनकी बात सुनी. इन दो महीनों में 11 दौर की लंबी बातचीत हुई, नतीजा सिफर रहा. कुछ हल नहीं निकला.
आखिर में सरकार ने इन कानूनों को 2 सालों तक होल्ड पर लेने की बात कहकर गेंद किसानों के पाले में डाली. बस यही आखिरी ओवर की आखिरी बॉल थी, इस आखिरी बॉल को बड़ी समझदारी से खेलना था. बिल्कुल हल्के से, बिना तनाव और दबाव के. आपको सबसे ऊंचा छक्का या बेहतरीन चौका नहीं मारना था. आपको बस इस बॉल को टक्क से छूकर एक सिंगल रन लेना था.
जनता अब तक आपके साथ थी
लेकिन आप भूल गए कि यह वक्त हीरो बनने का नहीं, जीत के लिए कदम आगे बढ़ाने का है, फिर तो आप हीरो हो जाते. सही-गलत की बहस के बीच भी देश की जनता 2 महीने तक साथ रही. वह इसलिए साथ नहीं रही कि उसे आपको हीरो बनाना था, न ही वह आपके तौर पर अपना कोई रहनुमा देख रही थी, वह बस इसलिए साथ थी क्योंकि अब तक आपके आंदोलन में लोकतंत्र की विरासत की झलक थी.
वह आपके साथ संविधान के उस अधिकार को देख पा रही थी, जो यह कहता है कि हर भारतीय अपनी चुनी हुई सरकार से उसके निर्णयों में अपनी असहमति जता सकता है.
...लेकिन आप आंदोलन भूल गए
लेकिन 26 जनवरी 2021 की इस सुबह आपने क्या किया, आप सबसे पहले अनुशासन भूल गए. आप भूल गए कि आंदोलनों की सबसे खूबसूरत बातें क्या रही हैं. आपको नहीं याद रहा है कि यह सुबह कोई आम सुबह नहीं बल्कि गणतंत्र की 72वीं वर्षगांठ की सुबह है. आप इस सुबह का मोल भूल गए जो हमें 200 सालों की गुलामी की जकड़ से रिहा होने के बाद नसीब हुई थी. आप यह भी भूल गए कि इस सुबह की नींव भी कई आंदोलनों से बनी हुई हैं. आप दोलन गति का नियम भूल गए. असल में आप आंदोलन भूल गए.
क्या आपको अपनी गलतियां याद हैं?
सुकून है कि अब सब शांत है, लेकिन सन्नाटे की इस लहर में कल के हुए शोर को याद कीजिए. याद कीजिए कि आपसे कहां गलती हुई. क्या आपको नहीं लगता कि सरकार ने जब कानून को होल्ड पर रखने की बात कर ली थी तो गणतंत्र को चुनौती देने वाली ट्रैक्टर परेड की क्या जरूरत थी?
माना कि इसके जरिए आप अपना जनसमर्थन देखना चाहते थे, तो फिर आपने तय समय का ही ध्यान क्यों नहीं रखा? चलिए, समय की बात को भी छोड़ देते हैं, तो फिर आप पुलिस के तय किए गए रूट पर ही क्यों नहीं रहे? आप कम से कम यही कर लेते कि जितना चलना था उतना ही चलते, आपकी बात भी रह जाती, जनता का समर्थन भी दिख जाता और सरकार को चुनौती भी कायम रहती कि बिना कानून वापसी के आप नहीं मानेंगे.
अब आपसे ये सवाल है, जवाब देंगे?
आप भूल गए कि मजबूत दावे वाली बातों को जोर से बोलने की जरूरत नहीं होती. आपने शांति से बात का रास्ता छोड़ हिंसा की राह पर कदम रख लिया. सोशल मीडिया के जमाने में आपकी यह हरकत छिपी नहीं रह सकी कि आपने किस तरह सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया, पुलिस पर लाठियां और पत्थर बरसाए. उन्हें ट्रैक्टर तले कुचलने की साजिश की. देश की शान लालकिला में आपकी अराजकता के कई सबूत बिखरे पड़े हैं.
वह महज सबूत नहीं हैं, वे चटके हुए आइने हैं जिनमें आप खुद देख पाएंगे कि कैसे आपने अपने ही हाथों से अपने आंदोलन पर लाठियां बरसाईं, उन पर तलवारें चलाईं, उसे पत्थरों से कूचकर चकनाचूर कर दिया. असल में आप हत्यारे हैं. आपने अपने आंदोलन की हत्या की है. अब लोकतंत्र आपसे पूछ रहा है कि क्यों न आपको एक आंदोलन की सरेआम हत्या का गुनहगार माना जाए.... क्या जवाब देंगे अन्नदाता?
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