UP में महागठबंधन की खिचड़ी: क्या BJP के खिलाफ हाथ, साइकिल और हाथी बनेंगे साथी?
यूपी में 2022 के लिए महागठबंधन को लेकर सियासी खिचड़ी पक रही है. सवाल यही है कि क्या भाजपा को हराने के लिए समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस एक साथ आएंगे?
नई दिल्ली: कहते हैं राजनीति में कुछ भी परमानेंट यानी स्थायी नहीं होता, वक्त के साथ कभी भी कुछ भी बदल सकता है. यहां कल का सहयोगी आज विरोधी सकता है और कल का विरोधी आज का सहयोगी और उत्तर प्रदेश की राजनीति भी इसकी गवाह रही है.
2022 के चुनाव को 2024 के आम चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है, इसके लिये देश के सबसे बड़े सूबे में अंदर ही अंदर बहुत हलचल चल रही है. क्या यहां चुनाव पूर्व या चुनाव बाद किसी महागठबंधन की सूरत बन रही है/
BJP के खिलाफ अखिलेश महागठबंधन को तैयार?
सपा मुखिया अखिलेश यादव के एक बयान से यूपी की सियासत में चर्चाओं और अटकलों का बाजार गर्म हो गया है, अखिलेश ने कहा कि कांग्रेस और बसपा तय कर ले कि उसकी लड़ाई सपा से है या बीजेपी से.. अखिलेश के इस बयान से महागठबंधन के संकेत निकाले जा रहे हैं.
तो क्या अखिलेश कांग्रेस और बसपा को साथ आने का न्यौता दे रहे हैं, क्या वो चाहते हैं कि कांग्रेस और बसपा उनकी यानी सपा की अगुवाई में यूपी चुनाव में बीजेपी के खिलाफ मैदान में उतरे? हालांकि अखिलेश ने छोटे दलों से ही गठबंधन की बात फिर दोहराई है.
लेकिन क्या 2017 और 2019 का दोहराव यूपी में होने वाला है, जब 2017 में सपा- कांग्रेस साथ थे और 2019 में सपा -बसपा साथ थे. क्या 2022 में तीनों पार्टियां एक हो सकती हैं, होने को कुछ भी हो सकता है. क्योंकि किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि मुलायम और मायावती भी कभी एक साथ आ सकते हैं. लेकिन 2019 में ऐसा हुआ ये अलग बात है कि वो प्रयोग असफल रहा.
प्रियंका भी दे चुकी हैं गठबंधन के संकेत
अखिलेश यादव से पहले कांग्रेस की यूपी प्रभारी और राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी भी अपने बयान से महागठबंधन के संकेत दे चुकी है जब प्रियंका ने कहा था कि 'वी आर ओपन माइंडेड' हमारा मकसद बीजेपी को हराना है. इसलिए गठबंधन के लिए हमारे विकल्प खुले हैं. गठबंधन के लिए दूसरी पार्टियों को भी ओपन माइंडेड होकर चलना होगा.
यानी प्रियंका का संदेश अखिलेश से भी साफ है, कांग्रेस चाहती है यूपी में महागठबंधन बने. भले ही कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू अकेले दम पर लड़ने की बात कहते हों, लेकिन यूपी में 2017 फिर 2019 में मिली करारी हार के बाद कांग्रेस को उसकी जमीनी हकीकत पता है उसे पता है कि वो अकेले दम पर सरकार बना नहीं पाएगी और अगर बीजेपी से टक्कर लेनी है तो सपा बसपा को साथ लेकर जातीय समीकरण साधना होगा.
लेकिन 2017 के नतीजे देखने के बाद क्या अखिलेश इसके लिए तैयार होंगे. क्योंकि अखिलेश की पार्टी कांग्रेस का साथ पाकर भी 2017 में 47 सीटों पर सिमट गई थी.
ममता ने 2022 के लिए की साथ आने की अपील
मिशन 2024 में जुटी ममता बनर्जी कह चुकी हैं कि इसकी शुरुआत 2022 के चुनाव से होनी चाहिए. उन्होंने हाल ही में कहा था कि बीजेपी को हराने के लिए 2022 में यूपी के सभी दलों को एक साथ आना चाहिए. ममता जहां वाराणसी जाने की बात कह चुकी हैं, वहीं उन्होंने समाजवादी पार्टी के लिए प्रचार करने से भी इनकार नहीं किया.
ममता ने कहा कि अगर सपा बुलाती है तो वो प्रचार के लिए जरूर जाएंगी. दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन को भी ममता बनर्जी 2022 के चुनाव में बीजेपी के खिलाफ राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना चाहती है, किसान नेता राकेश टिकैत से उनकी कई मुलाकातें भी हो चुकी हैं लेकिन ममता को भी पता है कि बिना महागठबंधन के बीजेपी से टक्कर लेना मुश्किल है.
पवार और पीके कांग्रेस-बसपा-सपा को साथ ला पाएंगे?
बंगाल चुनाव के बाद एनसीपी चीफ शरद पवार और चुनावी रणनीतिकार पीके की कई बैठकें हो चुकी हैं, फिर पीके ने सोनिया प्रियंका और राहुल के साथ भी मुलाकात की. इन मुलाकातों और बैठकों के पीछे 2024 से पहले प्लान 2022 भी था. जहां विपक्ष को एकजुट करने के फॉर्मूले पर मंथन किया गया.
दरअसल, 2022 की यूपी की जंग में विपक्ष को एक करना इतना आसान भी नहीं है देखा जाए तो यूपी में कांग्रेस की जो हैसियत है, उसके मुताबिक उसे अखिलेश की अगुवाई से दिक्कत नहीं होगी. लेकिन क्या मायावती को ये मंजूर होगा ये सबसे बड़ा सवाल है.
2019 में सवाल यूपी की सत्ता का नहीं था, लेकिन 2022 में जंग लखनऊ की गद्दी की है जिसे मायावती छोड़ना नहीं चाहेंगी. मायावती के नेताओं का तेजी से पलायन सपा की तरफ हो रहा है. साथ ही अखिलेश की नजर दलित वोट बैंक पर है. एक साथ आने पर बसपा को अपना नुकसान नजर आता है, 2019 के नतीजों के बाद मायावती कह चुकी है कि सपा का वोट बैंक बसपा में ट्रांसफर नहीं हुआ था. हालांकि यही आरोप सपा ने भी बसपा पर लगाए थे.
2017 में एक साथ लड़ते बीजेपी से ज्यादा वोट पाते!
2017 के यूपी चुनाव पर नजर डालें तो बीजपी को 312 सीटों के साथ 39.7 % वोट मिले थे जबकि दूसरे नंबर पर रही थी. समाजवादी पार्टी जिसे 47 सीटों के साथ 21.8 % वोट हासिल हुए थे. जबकि मायावती की बीएसपी 19 सीट ही जीत पाई थी, लेकिन वोट प्रतिशत सपा से ज्यादा 22.2 % था. वहीं कांग्रेस को 6.3 % वोट के साथ 7 सीटें मिली थी.
2017 में कांग्रेस और सपा साथ मिल कर चुनाव लड़े थे, इस लिहाज से दोनों को मिले वोट प्रतिशत को जोड़े तो 28.1 फीसदी वोट होते हैं, जबकि इसमें अगर बीएसपी को मिले वोटों को भी जोड़ दें तो तो ये 50 फीसदी से ज्यादा हो जाता है. यानी बीजेपी को 39.7 फीसदी वोट से अधिक मिले.
कई जानकारों का मानना है कि अगर कांग्रेस सपा और बसपा साथ होते तो इनका वोट बैंक नहीं छिटकता, बल्कि एक दूसरे को ट्रांसफर भी होता और शायद तस्वीर बदल भी सकती थी. क्योंकि पिछड़े, दलित, मुस्लिम और ब्राह्मणों के वोट बंट जाने का बीजेपी को सबसे अधिक फायदा मिला.
2015 और 2019 में हिट रहा था महागठबंधन का फॉर्मूला
ऐसा नहीं है कि महागठबंधन का फार्मूला हिट नहीं रहा है 2015 के बिहार चुनाव को याद कीजिए जब आरजेडी, कांग्रेस और जेडीयू ने मिलकर चुनाव लड़ा था और बीजेपी के अरमानों पर पानी फेर दिया था. उस वक्त भी एक दूसरे के धूर विरोधी रहे लालू नीतीश के 20 साल बाद एक साथ आने से सभी चौक गए थे.
ये और बात है कि 18 महीने बाद ही नीतीश कुमार ने फिर से पाला बदल लिया और एनडीए की सरकार बन गई, लेकिन जेडीयू आरजेडी और कांग्रेस ने साथ आकर ये बात साबित कर दी थी कि वो बीजेपी को सत्ता तक पहुंचने में रोक सकती है. कुछ ऐसा ही 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिला जब जेएमएम, कांग्रेस और आरजेडी के महागठबंधन ने बीजेपी से सत्ता छीन ली.
महाराष्ट्र के फॉर्मूले पर होगा चुनाव बाद गठबंधन?
ऐसा नहीं है कि चुनाव जीतने के लिए चुनाव पूर्व गठबंधन ही बनाया जाए, रणनीति के तहत कई बार नतीजों का इंतजार कर चुनाव बाद भी गठबंधन किया जाता है जैसा महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला. जब बीजेपी और शिवसेना के रिश्ते में दरार आ गई और नतीजों के बाद शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी ने साथ मिलकर सरकार बनाई.
हालांकि इससे पहले एनसीपी में अजित पवार को साध कर बीजेपी ने देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री और अजित पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ जरूर दिलवा दी, लेकिन 3 दिन बाद ही फ्लोर टेस्ट से पहले उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. उसके बाद शिवसेना एनसीपी और कांग्रेस की सरकार बनी, जिसमें उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री की कमान संभाली.
सवाल है कि क्या उत्तर प्रदेश में भी अंदरखाने ऐसी कुछ सियासी खिचड़ी पक रही है, जिसमें चुनाव पूर्व गठबंधन की सूरत ना बनने पर नतीजों का इंतजार किया जाए और नतीजों के बाद पोस्ट पोल एलायंस शक्ल ले ले और गठबंधन की सरकार बन जाए. लेकिन ये तभी संभव है जब बीजेपी सरकार बनाने के जादुई आंकड़े से पिछड़ जाए और विपक्ष में सेंधमारी मुश्किल हो.
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