कौन थे एकनाथ शिंदे के गुरु आनंद दिघे, मौत पर शिवसैनिकों ने फूंक डाला था पूरा अस्पताल
साल 2001 में आकस्मिक मौत के पहले आनंद दिघे अपने शिष्य के तौर पर एकनाथ शिंदे को राजनीति की शुरुआती सफलता दिला चुके थे. दिघे की मौत को 20 साल से ज्यादा बीत चुके हैं लेकिन एकनाथ उनके नाम का जिक्र अक्सर करते रहते हैं. एकनाथ अपनी राजनीति की स्टाइल को भी दिघे के काफी करीब रखने की कोशिश करते हैं.
नई दिल्ली. शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे इस वक्त चर्चा के केंद्र में हैं. महाराष्ट्र की राजनीति में सक्रिय सभी पार्टियों की निगाह इस वक्त एकनाथ पर ही है. महाराष्ट्र में 'सबसे बड़े नेता' का दर्जा रखने वाले शरद पवार भी एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने की सलाह दे चुके हैं. तो आखिर एकनाथ शिंदे में ऐसा क्या है कि वो एकाएक पूरे महाराष्ट्र के राजनीतिक पटल की धुरि बन गए? उन्होंने राजनीति के गुर किससे सीखे? शिवसेना के मूल विचारों के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता एकनाथ में कैसे आई? इस सारे सवाल के जवाब एकनाथ शिंदे के राजनीतिक गुरु में छिपे हुए हैं.
दरअसल एकनाथ दिग्गज शिवसेना नेता रहे आनंद चिंतामणि दिघे के शिष्य हैं और उनसे बेहद प्रभावित हैं. ताजा विवाद में भी एकनाथ लगातार आनंद दिघे का जिक्र कर रहे हैं. आनंद दिघे मुंबई से सटे थाने जिले में शिवसेना के बाहुबली नेता थे. बालासाहेब ठाकरे के बेहद नजदीकियों में शुमार किए जाने वाले आनंद की जमीनी स्तर पर जबरदस्त पकड़ थी. रॉबिनहुड स्टाइल में जीने वाले दिघे के थाने जिले में डाई-हार्ड फैन्स अनगिनत संख्या में थे.
दरबार लगाकर समस्याओं का करते थे समाधान
आनंद दिघे थाने जिले में शिवसेना के लिए दरबार लगाते थे और आम लोगों की समस्याओं का समाधान करते थे. हालत यह थी कि दिघे की 'अदालत' में दिए गए निर्णय को अंतिम माना जाता था. दिघे के प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि खुद बालासाहेब ठाकरे भी थाने जिले के मामलों में बहुत ज्यादा हस्तक्षेप नहीं किया करते थे. यानी थाने में दिघे का फैसला पार्टी के लिए अंतिम फैसला होता था.
समर्पित शिवसैनिक थे दिघे
दूसरी तरफ आनंद भी बालासाहेब के समर्पित शिवसैनिक थे. 27 जनवरी 1952 को थाने में जन्में आनंद दिघे ने शिवसेना बालासाहेब के भाषणों से प्रभावित होकर ज्वाइन की थी. 1980 के दशक में दिघे ने राजनीति में कदम रखा और फिर उसके बाद सफलता की सीढ़ियां चढ़ते गए.
हालत यह थी कि थाने के इलाके में आनंद दिघे को लोग बालासाहेब के नाम से ही पुकारा करते थे. आज भले ही शिवसेना और कांग्रेस ने साथ मिलकर सरकार बना ली हो लेकिन 1990 के आस-पास यह संबंध बेहद उलट स्थिति में थे. तब हुए थाने नगर निगम के चुनाव में कुछ शिवसेना पार्षदों ने कांग्रेस को वोट किया था. इसके बाद दिघे साफ कहा था कि पार्टी के भीतर देशद्रोहियों के लिए कोई जगह नहीं हो सकती. वो उस वक्त थाने शिवसेना के प्रमुख थे.
हत्या का लगा था आरोप
इस उग्र बयान के कुछ ही दिन बाद पार्टी के काउंसलर श्रीधर खोपकर की हत्या हो गई थी. इस हत्या में आनंद दिघे को आरोपी बनाया गया था. दिघे लगातार बालासाहेब के और करीब आते जा रहे थे और मशहूर हो रहे थे. लेकिन साल 2001 में हुए एक एक्सीडेंट में दिघे घायल हो गए थे. इलाज के दौरान ही दिघे की मौत हो गई थी. दिघे की मौत के बाद उग्र शिवसैनिकों ने पूरे अस्पताल में आग लगा दी थी.
हालांकि मौत के पहले दिघे अपने शिष्य के तौर पर एकनाथ शिंदे को राजनीति की शुरुआती सफलता दिला चुके थे. दिघे की मौत को 20 साल से ज्यादा बीत चुके हैं लेकिन एकनाथ उनके नाम का जिक्र अक्सर करते रहते हैं. एकनाथ अपनी राजनीति की स्टाइल को भी दिघे के काफी करीब रखने की कोशिश करते हैं.
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