नई दिल्ली: जम्मू कश्मीर पर देश की राजधानी दिल्ली में बेहद अहम बैठक होने वाली है, इस बैठक पर पूरे देश की निगाहें टिकी हुई हैं. लेकिन इस बीच परिसीमन को लेकर विवाद छिड़ा हुआ है.


जम्मू-कश्मीर, परिसीमन और पॉलिटिक्स


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आखिर परिसीमन वाली पॉलिटिक्स क्या है. इसे ऐसे समझ लीजिए कि मार्च 2020 से कमीशन की जो बैठक हुई उसमें तीनों कश्मीरी नेता पहुंचे ही नहीं. अब सवाल उठता है कि 'क्यों'?


क्योंकि इन्होंने जो बिसात बिछा रखी थी. जम्मू की अनदेखी करके कश्मीर में ज्यादा सीटें बना रखी थीं. वो हिसाब अब बराबर हो रहा है. जहां जितनी आबादी है, वहां उतनी सीटें बनाई जा रही हैं.


इस परिसीमन को लेकर चुनाव आयोग की भी वर्चुअल मीटिंग हुई है जिसमें जम्मू कश्मीर के सभी 20 जिलों की डिप्टी कमिशनर्स से जनसंख्या घनत्व और टोपोग्राफी जैसी जानकारी मांगी गई है. क्योंकि कई सीटें ऐसी हैं जो दो-दो ज़िलों में फैली हुई हैं, 2 लाख से ज्यादा वोटर्स हैं और कुछ सीटें ऐसी हैं जहां सिर्फ 20 हजार वोटर हैं और ये कैसे किया गया है.


आंकड़ों से समझिए गुणा-गणित


2019 से पहले के पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की 24 सीटें छोड़कर जम्मू कश्मीर में 87 विधानसभा सीटें थीं. इसमें जम्मू डिवीजन में 37 और कश्मीर डिवीजन में 46 सीटें थीं. 4 विधानसभा सीटें लद्दाख में थीं.


जम्मू डिवीजन में ये दस कठुआ, जम्मू, सांबा, उधमपुर, रियासी, राजौरी, पुंछ, डोडा, रामबन और किश्तवाड़ जिले हैं. और यहां सिर्फ 37 सीटें हैं. उधर कश्मीर डिवीजन में भी 10 ही ज़िले हैं. अनंतनाग, कुलगाम, पुलवामा, शोपियां, बडगाम, श्रीनगर, गांदरबल, बांदीपोरा, बारामूला और कुपवाड़ा.. लेकिन 46 सीटें हैं.


मतलब जम्मू डिवीजन में भी 10 जिले, कश्मीर डिवीजन में भी 10 जिले.. लेकिन एक डिवीजन में 37 सीटें, दूसरे में 46 आखिर ऐसा क्यों?


यही 9 सीटों की बढ़त लेकर कश्मीरी नेताओं और राजनीतिक दल जम्मू कश्मीर की सियासत में जम्मू डिवीजन की जनता के साथ अन्याय और राज्य की राजनीति में मनमानी करते आए हैं. अब इसी का इंसाफ हो रहा है. आबादी और टोपोग्राफी के हिसाब से सीटों की सीमाएं फिर से निर्धारित की जा रही हैं.


अब्दुल्ला की बैठकों का सिलसिला


जम्मू कश्मीर पर दिल्ली से बुलावा आया तो पाकिस्तान से गुफ्तगू की ख्वाहिश लिये महबूबा एक दिन पहले ही दिल्ली पहुंच गईं. उधर नेशनल कॉन्फ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला के घर तो बैठकें खत्म ही नहीं हो रही थी. दिल्ली रवानगी से पहले भी श्रीनगर में बैठकें होती रहीं.


फारूक अब्दुल्ला के घर पर नेताओं के आने का सिलसिला जारी रहा और बैठकों में दिल्ली दरबार में पेश किये जाने वाले दांव पेच पर चर्चा हुई. कहने को तो नेशनल पार्टी का हर नेता खो चुके स्पेशल स्टेटस लेने ही दिल्ली गया है. और कह रहे हैं कि वो जम्मू कश्मीर की जनता के हित की बात करने जा रहे हैं.


नेशनल कॉन्फ्रेंस से लेकर पीडीपी तक जितने भी कश्मीरी दल हैं वो 370 के टूट चुके सपने को जोड़ने की हसरत रख रहे हैं, लेकिन जम्मू कश्मीर की जनता पीएम की बुलाई बैठक को लेकर क्या उम्मीद रखती है. इसका जायजा ज़ी मीडिया के संवाददाताओं खालिद हुसैन और राजू केरनी ने ग्राउंड जीरो से लिया


क्या चाहती है जम्मू-कश्मीर की आवाम?


कोई कह रहा है कि लोकतंत्र बहाल हो, लोग खुश होंगे. तो किसी का मानना है कि पीएम बुलाई है तो अच्छा ही सोचेंगे. एक नागरिक ने ज़ी मीडिया से बात करते हुए कहा कि कश्मीर पर तवज्जो है तो अच्छा ही होगा.


एक शख्स ने कहा कि कश्मीर के लोग विरोध करते हैं तो हम विरोधी हैं ये पाक के हक में बोलना चाहते हैं, अगर ये ऐसी मीटिंग करते हैं तो हम उनके साथ है.


वहीं इस कदम को बहुत लोगों ने सराहा और कहा कि 'बहुत अच्छा स्टेप है, अगर पाक जैसा मुद्दा उठाते हैं तो नजरअंदाज किया जाए आतंक खत्म करने के लिए अलग स्टेट चाहिए ही चाहिए.'


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जम्मू कश्मीर की जनता का संदेश साफ है. राज्य के लोगों को लोकतांत्रिक हक चाहिए, तरक्की के मौके चाहिए, आतंकवाद से मुक्ति चाहिए. आम कश्मीरी को 370 के कवच की कोई दरकार नहीं है. ऐसे में परिसीमन पर ऐसे नेताओं की पॉलिटिक्स चौपट हो सकती है. हो सकता है कि यही विवाद की असल जड़ हो.


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