नई दिल्लीः भारतीय परंपरा में रंग के महत्व को प्राचीन काल से जाना और समझा गया है. आड़ी-तिरछी रेखाओं के संयोग का होना रंगों की रंगीनियत में चार चांद लगाता है. पर्वों और त्योहारों को छोड़ भी दें तो भी रंग और संगीत कहीं न कहीं हमारे जीवन में घुले-मिले नजर आएंगें. सुबह की आरती और घंटी की आवाज या फिर हल्दी-कुमकुम का तिलक, इससे और आगे बढ़ें तो खाने-पीने में रंगीन मसाले, सौंदर्य प्रसाधन के रंग ये सभी मिलकर जीवन को रंगीन बनाते हैं. 


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क्या है रागमाला चित्रकारी
बसंत का पर्व जीवन की इसी रंगीनियत को उभार कर बाहर लाता है. इसी रंगत को सदियों से रागमाला चित्रकारी (Rag Mala Painting) कैनवस पर उतारती आ रही है. यह Painting एक स्त्री के मन के कोमल भावों को कूचियों के सहारे पन्ने पर फैला देती है.



फिर कभी वह बसंत की ऋतु बन जाती है, कभी गर्मी की तपिश, कभी बारिश का बलखाना और कभी सर्द मौसम का इंतजार बन कर जमती सी लगती है. 


इतना पुराना है इनका इतिहास
रागमाला पेंटिंग चित्रकारी और संगीत का अद्भुत संगम है. संगीत के वेद सामवेद में रागों का वर्णन है. इन रागों को संकेत रूप में पुरुष माना गया है. रागिनियां इन्हीं रागों की कल्पना में की गईं प्रेमिकाएं हैं. हालांकि इनकी संख्या कितनी है इसे लेकर मतभेद है और ठीक-ठीक संख्या ज्ञात नहीं है.



17वीं शताब्दी का इतिहास देखें तो इस समय राग भैरव, मालकौस, हिंडोल, दीपक, राश्री व राग मेघ के गाए जाने का वर्णन मिलता है. इसमें भी मेघ राग के असल आलाप-तान आज वाकई हैं या नहीं इसके बारे में भी कहना मुश्किल है. लेकिन मल्हार राग को मेघ राग के आसपास समझा जाता है. 


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राग-रागिनियों के काल्पनिक परिवार
इन्हीं रागों में कुछ बदलाव किए गए और स्वरों के उतार-चढ़ाव के आधार एक जैसी प्रकृति रखने पर इन्हें पहले तो एक समूह का माना गया और बाद में वर्गीकरण के क्रम में युगल (Couple) मान लिया गया.



पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका की कल्पना हुई तो बाद में राग परिवार भी बना दिया गया और राग-रागिनियों में पुत्र और पुत्रवधुओं तक की कल्पना कर दी गई.


यह कल्पना इतनी सटीक थी कि रागों का गान ही असल जीवन की भावनाओं का बताने-समझाने का जरिया बन गया. इसमें हंसी-खुशी, प्रेम, तड़प, विरह, प्रतीक्षा सारे भाव शामिल हो गए. 


आइने अकबरी में वर्णन
हालांकि 17वीं सदी से पहले 16वीं सदी में कुछ कविताओं और पदों में राग-रागिनी नायक-नायिका की तरह वर्णन किए गए हैं. इसी के बाद इन्हें चित्रों के तौर पर उतारा जाने लगा. इस दौरान लिखी गई आइने अकबरी में भी राग- रागिनियों का वर्गीकरण मिलता है.



अकबर के जीवन के कई पक्षों को सामने रखने वाली इस किताब में संगीत का पक्ष भी है. लिखित शब्दों के रूप में भी और बने चित्रों के तौर पर भी. इसके अलावा रागिनी चित्रकारी के बारहमासा स्वरूप काफी विकसित हुआ है. इसमें हर रागिनि हिंदी के एक माह की प्रतिनिधि है. उसका स्वरूप उसी माह की विशेषता बताता है. 


कौन-कौन सी रागिनियां
बारहमासा रागिनियों में 12 रागिनियों की पेंटिंग होती है. इनमें रागिनी तोड़ी. रागिनी गूजरी, रागिनी वासंती, रागिनी असावरी, रानी धनाश्री, रागिनी मधु माधवी प्रमुख हैं. ये सभी रागिनियां अपने नायक के विरह में हैं या फिर उसके मिल जाने से प्रसन्न हैं. इसी के आधार पर मौसम के अनुकूल उनकी प्रतिक्रियाएं (Reaction) हैं.



इनमें रागिनी वासंती प्रमुख है. यह बसंत के मौसम के गुणों को सामने रखती है. हिरणों के पीछे भागती है. कभी एकतारा बजाती है. कभी मोरों को देखने लगती है. इसके अलावा अन्य रागिनियां वसंत के आने के समय और उसके बीतने के समय की तरह के गुण दिखाती हैं. 


चित्रकारी की प्रमुख शैलियां
रागमाला चित्रशैली के अलग अलग शैलियों की बात करें तो कुछ प्रमुख शैलियां हैं. मुगल दरबार और राजस्थान के विभिन्न अंचलों के अलावा दक्षिण भारत में दक्कन रागमाला का वर्णन 1725 ई. के आसपास का है. इन चित्रों पर भी राजस्थानी प्रभाव दिखते हैं. दक्षिण में इसके प्रमुख केंद्र बीजापुर, गोलकुंडा एवं अहमदनगर रहे.



आधुनिक युग में इसके शुरुआत की बात करें तो अहमदनगर में बुरहान द्वितीय को 1591 में इसका श्रेय दिया जाता है. दिल्ली के मुगल दरबार से अपनी वापसी के बाद बुरहान ने रागमाला श्रृंखला की इस शैली को प्रचलित बनाया था. 


हिम से सागर तक बसंत के रंग
इसके अलावा दूसरे और केंद्रों में बूंदी/कोटा शैली, मेवाड़ शैली, मारवाड़ शैली, सिरोही व जयपुर भी शामिल हैं. पहाड़ी चित्रकला में बसोहली, कुल्लू, विलासपुर, कांगड़ा एवं टिहरी गढवाल आदि रियासतों में इस कला परंपरा के तहत चित्रित रागमाला चित्रों का चित्रांकन हुआ है.



कुल मिलाकर हिम हो या सागर वसंत वर्णन के साथ प्राकृतिक चेतना और इसके साथ मानवीय भावों के परिवर्तन को रागिनियां अपना भाव मानकर दिखाती रही हैं. भले ही उनका स्थान क्यों न बदल गया हो. बसंत के रंग हर जगह एक जैसे ही बिखरे हैं. 


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