नई दिल्ली. पूरी दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही है और यही हाल भारत का भी है. विश्व के कोरोना मीटर पर भारत अब छठे पायदान पर आ गया है. स्थिति की गंभीरता को समझने के लिए इतना ही काफी है किन्तु यदि देश के निजी अस्पताल इस कोरोना काल में भी आदतन मौके का फायदा उठा कर लूटपाट करते रहेंगे तो अपने लिये यकीनन मुसीबत को दावत देंगे. 


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फिर शुरू हो गई लापरवाही भी और लूटपाट भी 


जैसे समाचार कोरोना संक्रमण के इस दौर में भारत के निजी अस्पतालों के रवैये मनमानी और लूटपाट की आ रहे हैं यदि इनका ग्राफ भी तैयार किया जाए तो हो सकता है इसमें भी हम दुनिया में बहुत आगे हों. हमारे अस्पतालों को ये क्यों लगता है कि देश की सरकार गूंगी बहरी या अंधी है और उनकी मनमर्जियां और धोखाधड़ी जो शोर पैदा करेंगी वो ऊपर तक नहीं जाएगा? 


दोनों राजधानियों से आ रही हैं ज्यादा खबरें 


इस तरह के अमानवीय और अपराधपूर्ण समाचार देश भर के निजी अस्पतालों से आ रहे हैं परंतु राजधानी दिल्ली और देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से अधिक संध्या में आ रहे हैं. क्या यहां की सरकारों को इस तरह की खबरों की खबर नहीं है या वे ऐसे लूटपाट करने वाले अस्पतालों पर लगाम कसने की इच्छुक नहीं हैं? यहां से आने वाले समाचार बता रहे हैं कि न केवल कोरोना मरीजों के साथ अमानवीय व्यवहार हो रहा है बल्कि उनके साथ धोखाधड़ी भी खुल्लेआम चल रही है. 


क्या वास्तव में बेड नहीं खाली हैं ?


प्रशासन को रिश्वत दे कर पैसा बनाने के लिए चलाये जा रहे निजी अस्पतालों की देश के महानगरों में कोई कमी नहीं है. लेकिन कोरोना काल में भी इनकी यही हरकत अगर जारी रहे तो इससे अधिक दुर्भग्यपूर्ण और क्या हो सकता है.  दिल्ली और मुंबई के इन अस्पतालों में कोरोना संक्रमण के रोगियों को तथा उनके संबंधियों को भी ये कह कर घर भेजा जा रहा है कि हॉस्पिटल में बेड खाली नहीं है. 


दिल्ली के डॉक्टर की हुई कोरोना-मृत्यु


दुखद है यह समाचार कि दिल्ली के एक कोरोना वारियर की मृत्यु का कारण भी यही रहा है. यह कोरोना   रोगी स्वयं एक डॉक्टर थे जिनको न केवल निजी अस्पतालों ने बेड के लिए इंकार कर दिया बल्कि सरकारी अस्पतालों ने भी उन्हें अंगूठा दिखा दिया और वे उपचार के लिए जब सड़कों पर भटक रहे थे तो इस दौरान ही उकी मृत्यु हो गई. 


मुंबई में भी यही हाल है 


हाल मुंबई में भी ऐसा ही है जैसा दिल्ली में है. लेकिन लूटपाट कहाँ ज्यादा कहाँ कम है यह कह पाना मुश्किल है. मुंबई से आये समाचारों से पता चलता है कि वहां उन हलके-फुल्के बीमार धनी लोगों को भी कोरोना-उपचार के लिए अस्पताल में जबरन भर्ती कर लिया जाता है जिनको कोरोना संक्रमण है ही नहीं. यहां खुल्लआम इंसानियत की बत्ती गुल है और अस्पताल का मीटर चालू है. 


अख़बारों में नहीं आ रही हैं खबरें 


बताया जा रहा है कि अस्पताल की लूटपाट के समाचार स्थान नहीं पा रहे हैं क्योंकि रिश्वतबाज़ी जबरदस्त तरीके से चल रही है. निजी अस्पतालों में मोटे मुर्गे जम कर फंसाये भी जा रहे हैं और उनका तेल भी जम कर निकाला जा रहा है. कई अंदरूनी समाचार बताते हैं कि पांच से दस लाख रुपये तक कोरोना के असली-नकली मरीजों की गाँठ से ऐंठे जा रहे हैं. 


क्या निजी अस्पतालों में गरीब मरीजों का इलाज नहीं होना चाहिए?


सवाल ये है कि निजी अस्पतालों की जिम्मेदारी सिर्फ पैसेवालों के इलाज की ही बनती है? क्या गरीबों के लिए पहले से ही भरे हुए सरकारी अस्पताल ही रह गए हैं? चूंकि सच तो यही है इसलिए कोरोना के दौर में जब देश में स्वास्थ्य आपातकाल चल रहा है तो निजी अस्पतालों को जैसा कि नियम है, कम से कम अपने एक चौथाई  मरीजों का उपचार क्या फ्री में नहीं करना चाहिए? अगर इसका जवाब न है तो सरकार को ऐसे सभी निजी अस्पतालों पर जुर्माना लगा कर उनको फ्री में दी गई जमीनों का पैसा अब वसूल नहीं करना चाहिए?


ऐसे निजी अस्पतालों के इलाज का समय आ गया है 


सरकार के पास तमाम विकल्प मौजूद हैं जो ऐसे लूटपाट के खूंखार अड्डे बन कर नाम कमा रहे अस्पतालों का उचित इलाज कर सकें. यद्यपि इन निजी अस्पतालों का सरकारीकरण सर्वोत्तम विकल्प है किन्तु उसके पहले भी कुछ विकल्प शेष हैं यथा सभी नेताओं और अधिकारियों तथा उनके परिवारजनों का निजी अस्पतालों में उपचार अनिवार्य कर दी जाए ताकि सरकारी अस्पतालों का स्तर सुधर सके और निजी अस्पतालों की लूटमार की दुकानों पर ताला पड़ सके. 


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