नई दिल्लीः लॉकडाउन का आलम जारी है. ऐसे में हर कोई व्यस्त है. लोगों के लिए साथी और सहयोगी बने हैं टीवी और इनडोर गेम्स. टीवी पर तो रामायण और महाभारत के प्रति दिलचस्प क्रेज देखने को मिल रहा है, जबकि खेलों के तौर पर लूडो ने भी अपनी दिलचस्प वापसी की है. ऑनलाइन गेम्स के इस दौर में लूडो के लिए यह दीवानगी देखने लायक है. लोग पुराने कार्ड वाले गेम के बजाय ऑनलाइन औप डिजिटल तरीके से इस खेल को खेल रहे हैं. 


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परिवार साथ में हैं तो लूडो हो जाए
ऑनलाइन गेमिंग के बजाय लूडो में दिलचस्पी इसलिए भी बढ़ी है, क्योंकि इस वक्त परिवार साथ में है. ऐसे में बड़े-छोटे, बच्चे-बुजुर्ग सभी साथ में हैं. नए जमाने के गेम (पबजी जैसे) सिर्फ हमउम्र के साथ ही खेले जा सकते हैं. जबकि इस वक्त पूरे परिवार को एक साथ इन्वॉल्व होने के कारण लूडो फिर से बाहर निकल आया है. पासे पलटे जा रहे हैं और घर-घर से पौ-छह की आवाज आ रही है. उधर टीवी में मामा शकुनि आवाज देते हैं पौ बारह. इधर घरों में ये कटी, वो चली का दौर चल रहा है. 


इस खेल का इतिहास बहुत दिलचस्प है
खेलों के बारे में सीधी बात है कि जबसे मानव सभ्यता है खेल उससे भी पुराने हैं. क्योंकि मानव तो असभ्यता से सभ्यता की ओर बढ़े हैं, और खेलों ने इसमें दिलचस्प भूमिका निभाई है. खेलों ने ही आगे बढ़ने की और उन्नत बनने की प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया.


प्राचीन अभिलेखों, खुदाई में मिले अवशेषों में खेलों के निशान मिल जाते हैं. अजंता की गुफा में दीवारों पर उकेरे एक चित्र में किसी जानवर कई भाले एक साथ चलते दिख रहे हैं. शिकार भी पहले एक खेल ही था. हम बात कर रहे हैं लूडो की. इसका इतिहास भी पौराणिक से होते हुए प्राचीन और फिर वर्तमान तक का सफर कर आया है. 


भारत में लूडो
दार्शनिक तौर पर देखें तो कहा जाता है, जीवन एक खेल है. लूडो के बारे में भारत की प्राचीनता की बात करें तो पुराणों में इसके कई उदाहरण मिल जाएंगे. यहां चौपड़ नाम का एक खेल कई जगह खेला जाता मिलेगा. सबसे पहले शिव-पार्वती कैलाश की एक गुफा में इसे खेलते हुए वर्णित किए जाते हैं.



कहते हैं कि व्याकरण, युद्ध, नृत्य और नाद के बाद शिव ने जिस पंचम सौंदर्य को स्थापित किया था वह खेल है. उन्होंने चौखट यानी चार खाने बनाकर चौपड़ की शुरुआत की, जिसे पासे से खेला जाता था. 


महाभारत में चौपड़
चौपड़ के इस खेल को पचीसी के नाम से भी जानते हैं. महाभारत में मामा शकुनि जिस खेल के पासे पलटकर जीत हासिल करते हैं वह यही चौपड़ या पचीसी था. इसमें तब भी अलग-अलग खेले जाने और दल बनाकर खेले जाने की सुविधा थी. महाभारत में श्रीकृष्ण और सत्यभामा भी इस खेल को खेलते थे.



वह दौर राजा-महाराजाओं के युद्ध का दौर था. ऐसे में सैन्य अभ्यास के साथ-साथ बुद्धि चातुर्य मजबूत करने की भी जरूरत होती थी. उस समय होने वाली व्यूह रचनाओं के अभ्यास के लिए भी खेलों का प्रयोग किया जाता था. आचार्य द्रोण ने अर्जुन को चक्रव्यूह, सर्प व्यूह, गरुण व्यूह, चीलघात व्यूह जैसी संरचनाएं इन्हीं की तरह के खेलों के जरिए समझाई थीं. सैनिकों के स्थान पर कंकड़-कौड़ियां और रंगीन रत्न प्रयोग किए जाते थे. शतरंज का खेल इसी तरह अस्तित्व में आया. 


मुगलकाल में पचीसी
16वीं सदी में मुगल सल्तनत में भी पचीसी खेल का उल्लेख मिलता है. अकबर के दरबार के दस्तावेज उठाइए तो यहां इसके बड़े ही समृद्ध रूप देखने को मिलेंगे. अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी के दरबार में एक विशाल पचीसी के चौखटे का निर्माण कराया था.



यहां वह अपनी दासियों को खेल में प्यादों के रूप में इस्तेमाल करता था. इस खेल पर किये गए शोध अनुसार यह खेल 2000 साल से भी ज्यादा पुराना हैं. अकेले मैसूर में ही यह खेल दस तरीके से खेला जाता है. 


मैसूर का भी खेल देख लेते हैं. 
पचीसी का जो खेल है वह चार खिलाड़ियों के लिए है. मैसूर के राजा ने इसमें कई बड़े बदलाव सामने रखे. 19 वी सदी में मैसूर के राजा कृष्णराज वोडीयार तृतीय की चार पत्नियां थी और 22 से भी ज्यादा दासियां थीं. वह अपनी सभी पत्नियों के साथ पच्चीसी का खेल खेलना चाहते थे. इसलिए उन्होंने 6 खिलाड़ियों वाले पचीसी बोर्ड की संरचना तैयार कराई. आगे चलकर उन्होंने 8, 12 और 16 खिलाडियों वाले पच्चीसी का निर्माण करवाया ताकि वो अपने सभी दासियों के साथ भी यह खेल खेल सके.


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खेल से जुड़ी नैतिकता भी
राजा वोडियार ने इस खेल में और भी दिलचस्प बदलाव किए. उन्होंने इस खेल से नैतिकता को जोड़ा और खेल का स्वरूप ही बदल डाला. इसमें अलग-अलग पायदान पर कर्मों के अनुसार मनुष्य के अगले जन्म की कल्पना की गई हैं जैसे यदि आप अच्छे कर्म करते हैं तो आपको अगले जन्म में राजसिंहासन प्राप्त होगा.



महाराजा वोडियार ने इस खेल को धर्म और चरित्र से जोड़ दिया. इस नैतिकता के जुड़ा एक उदाहरण जैन धर्म के कुछ उल्लेखों और उपदेशों में भी मिलता है, जहां खेल के जरिए मनुष्य को कर्म का सिद्धांत समझाने की कोशिश की गई. यह ज्ञान चौपड़ खेल था. जो आज की सांप-सीढ़ी से मिलता जुलता है. 


विदेशों में खेल
भारत ने हर क्षेत्र में दुनिया को बहुत कुछ दिया है तो खेल में कैसे पीछे रहता है. भारत का चौपड़, चौखटा, पचीसी और चौसर रोमन व यूनानी सभ्यता में डाइस बन गया. चीन ने इसे अपनाया तो चार चौखटे की, चार गोटियों वाले और 6 पासे वाले खेल की भूमिका तैयार हुई.



इसी का परिष्कृत स्वरूप आज का लूडो है. ग्रीक नायकों के कई चित्रण में उन्हें बैठे हुए किसी चौखटे पर खेलते दिखाया गया है. एक तर्क यह भी है ग्रीक योद्धा खाली समय में युद्ध की योजनाएं बनाते थे. इसी के कारण चौखटे वाले खेल की शुरुआत हुई. हालांकि यह तर्क भारत की व्यूह रचना वाले तर्क से मिलता-जुलता है. 


खैर इतिहास जैसा भी हो, जो भी हो. आप परिवार के साथ इस खाली समय को पूरे मन से लूडो खेलते हुए बिताइए और बाहर बिल्कुल मत निकलिए. 


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