नई दिल्लीः न कभी जन्मे, न कभी मरे. वे धरती पर 11 दिसंबर, 1931 से 19 जनवरी 1990 के बीच आए थे. इस वाक्य में लिखी तारीख का महत्व तब काफी बढ़ जाता है जब अचानक ही याद आए कि आज 19 जनवरी है.  इसी के साथ साल के अंक को देखने पर यह तारीख उन लोगों के लिए और भी खास बन जाती है जो कभी न कभी आध्यात्म को समझने की ओर जरा भी बढ़े हैं.


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ओशो में श्रद्धा रखने वाले लोग जानते हैं कि पुणे स्थित ओशो आश्रम में उनकी समाधि पर लिखी इस वाक्य का क्या अर्थ है? यह वाक्य बताता है कि आज के ही दिन 31 साल पहले ओशो यानी कि आचार्य रजनीश यानी कि चंद्रमोहन जैन ने निर्वाण लिया था. वह समाधिस्थ हुए थे. 



इसके साथ वह अपने पीछे छोड़ गए आध्यात्म की दुनिया की एक बड़ी विरासत और बहुत सारे रहस्य. रहस्य कि उनकी मृत्यु कैसे हुई, रहस्य यह कि कौन थे वे लोग जो इसके पीछे रहे होंगे. इन सवालों के जवाब आज तक नहीं मिले हैं, लेकिन इन्हें सवालों का पीछे चलते हुए उन पहलुओं पर नजर डालते हैं जो जबलपुर यूनिवर्सिटी के लेक्चरर को पहले आचार्य रजनीश बनाता है और बाद में ओशो. 
 
जबलरपुर: जहां से हुई शुरुआत
21 मार्च को ओशो अनुय़ायी जबलपुर के संस्कारधानी शहर जरूर पहुंचते हैं. इस दिन मनाया जाता है ओशो संबोधि दिवस, यानी वह दिन जब ओशो ने अपना आध्यात्मिक संबोधन दिया था. इस शहर के देवताल स्थित एक शिला खंड के लिए लोगों की असीम श्रद्धा है. श्रद्धा की वजह है कि यह वही स्थान है जहां से ओशो ने आध्यात्म का प्रकाश फैलाया था.



इसे उनकी तपोस्थली के तौर पर मान्यता प्राप्त है. कहते हैं कि इस शिलाखंड पर बैठते ओशो ध्यान में चले जाते हैं.  जबलपुर ओशो की कर्म-ज्ञान और साधना की भूमि रही है. मध्यप्रदेश के रायसेन में कुच्वाड़ा गांव में 11 दिसंबर 1931 जन्मे ओशो तब चंद्रमोहन जैन कहलाते थे, जब वह जबलपुर आए थे. वे यहा जबलपुर विश्वविद्यालय में लेक्चरर भी रहे. 



नवसंन्यास आंदोलन की शुरुआत की
यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के साथ ही साथ ओशो की रुचि आध्यात्म की ओर बढ़ने लगी थी. धीरे-धीरे उन्होंने धर्म और आध्यात्म पर प्रवचन देना भी शुरू कर दिया. फिर शिविर लगाने का सिलसिला शुरू हुआ और देशभर में उनके शिविर लगने लगे. श्रद्धालु बढ़ने लगे, बहुत सारे लोग आचार्य रजनीश (ओशो ने पहले इसी नाम से प्रवचन करना शुरू किया) के पास शांति की खोज में आने लगे.



आजादी के बाद का दौर वैसे भी अस्थिरता का था. ओशो में लोगों ने सुकून की उम्मीद देखी थी. आचार्य रजनीश ने अब लेक्चरर की नौकरी छोड़ दी और आध्यात्म में नवसंन्यास आंदोलन की शुरुआत की. आचार्य रजनीश अब ओशो बन गए. 


1974 में पुणे बना आध्यात्मिक स्थल
मानवीय शरीर में जगह बनाने वाली कामुकता को ओशो आध्यात्म की गंगा का केंद्र मानते थे. जहां लगभग सभी आध्यात्मिक शिक्षाएं मन और काम भावना पर नियंत्रण की बात करती हैं, ओशो मानवीय कामुकता के हिमायती थे. उनका दर्शन इस विषय में अलग ही थो जो आज भी उनकी छवि को विवादित तौर पर भी सामने रखता है. नवसंन्यास आंदोलन की शुरुआत के बाद वह 1974 में पुणे पहुंचे.



यहां उन्होंने आश्रम की स्थापना की. यही आश्रम आज ओशो इंटरनॅशनल मेडिटेशन रिसॉर्ट के नाम से जाना जाता है. ओशो के दर्शन की प्रसिद्धि बढ़ रही थी, लेकिन विरोधी भी बढ़ रहे थे. पुणे अचानक ही विदेशियों के आने-जाने की जगह बन गया. बड़ी संख्या में पुणे में भीड़ बढ़ने लगी. विदेशियों का इस तरह इकट्ठा होना, भारतीयता पर खतरे की तरह लगा. 1980 में यह खतरा और आध्यात्म का मतभेद इतना बढ़ा कि ओशो को देश छोड़ना पड़ा. वह ऑरेगन (अमेरिका) पहुंचे.  संयुक्त राज्य अमेरिका के वास्को काउंटी में रजनीशपुरम की स्थापना की. 


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अमेरिका प्रवास रहा विवादित
ऑरेगन में ओशो की ख्याति इतनी बढ़ी कि पहले जो उनका आश्रम रजनीश आश्रम था, वहां रहने वाले रजनीशीज कहलाने लगे. धीरे-धीरे यह आश्रम कॉलोनी  की तरह बन गया और फिर ओशो के श्रद्धालुओं ने इसे एक शहर के तौर पर रजिस्टर्ड कराना चाहा. अमेरिकी शिष्यों ओरेगॉन राज्य में 64000 एकड़ जमीन वहां आश्रम बनाया था.



इस रेगिस्तानी जगह में  शुरुआत में ही ओशो को मानने वाले 5000 लोग रह रहे थे. लेकिन ओशो का अमेरिका प्रवास विवादित भी रहा और उन्हें काफी महंगा भी पढ़ा. इतना  कि कहते हैं कि यहीं उनके साथ वह वाकया हुआ जो उनकी मृत्यु का जिम्मेदार बना. हालांकि यह कई दावों में से एक दावा है, जिसकी पुष्टि नहीं हुई. 


कई देशों में नहीं मिली अनुमति
1985 में अमरेकी सरकार ने ओशो पर अप्रवास नियमों के उल्लंघन के तहत 35 आरोप लगाए और उन्हें हिरासत में भी ले लिया. उन्हें 4 लाख अमेरिकी डॉलर की पेनाल्टी भुगतनी पड़ी साथ ही साथ उन्हें देश छोड़ने और 5 साल तक वापस ना आने की भी सजा हुई. कहा जाता है कि इसी दौरान उन्हें जेल में अधिकारियों ने थेलियम नामक धीरे असर वाला जहर दे दिया था.


ओशो ने कई अन्य देशों में भ्रमण की कोशिश की लेकिन 21 देशों ने उन्हें अनुमति नहीं दी.  1986 में ओशो पुणे लौट आए. यहां उन्होंने अपने प्रवचनों का सिलसिला जारी रखा. 1990 में जनवरी की एक ठंड भरी सुबह में ओशो की मृत्यु हुई. उनका अंतिम समय भी रहस्य से भरा हुआ रहा. 


रहस्य भरा रहा है निधन
ओशो के निधन पर एक किताब लिखी गई है Whi Killed Osho. इसे लिखने वाले अभय वैद्य ने अपने संस्मरण में बताया था कि ओशो का आखिरी समय बेहद रहस्यमय रहा है.  ओशो के निधन के ठीक बाद वहां मौजूद रहे डॉक्टर ने बताया था कि ओशो के निधन की जानकारी उनकी मां को देर से दी गई. वह काफी देर तक कहती रहीं कि इन्होंने बेटे को मार डाला. डॉ. के दावे के मुताबिक आश्रम के शिष्य हार्ट अटैक से मौत हुई ऐसा लिखने के लिए दबाव डालते रहे. इसके साथ ही टाइमिंग भी सवाल के दायरे में आती है. 



खैर, ओशो के विचार अब भी मौजूद हैं, विवाद को परे हटा दें तो ओशो जीवन पर ध्यान देने की बात करते थे. उसे समझने की प्रेरणा उनके लिए जरूरी थी. मानवीय भावनाओं को दबाकर नहीं बल्कि उनकी पूर्ति के जरिए आध्यात्म की ओर बढ़ने का दर्शन ओशो सामने रखते हैं. संभोग से समाधि तक का उनका दर्शन जितना विवादित है उतना ही चर्चित. ओशो समाधि स्थल पर लिखा वाक्य वह न कभी जन्मे, न कभी मरे, कम से ओशो को मानने वाले तो ऐसा ही मानते हैं. 


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